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गुरुकुल

‘गुरुकुल’ शब्द से साक्षात्कार होते ही सबसे पहले आपके मन में क्या आता है? कदाचित पहला तो अंतर्जाल पर सर्वाधिक प्रचलित वो चित्र जिस में एक बरगद के वृक्ष के नीचे एक दाढ़ी वाले वृद्ध आचार्य बैठे हैं और उनके सामने दो शिखाधारी ब्रह्मचारी शिष्य बैठे हैं(इस चित्र के कुछ परिष्कृत रूप भी हो सकते हैं)। दूसरा ये विचार की गुरुकुल एक ऐसा स्थान है जहाँ वेद-वेदांगों का पठन-पाठन होता है (उपर्युक्त चित्र के पात्रों द्वारा), बहुत सारी गायें होती हैं, वो वन क्षेत्र में स्थित होता है और सन्यासी लोग शिक्षण का कार्य करते हैं।

आपने जो जाना-सुना है उसके आधार पर यह भी हो सकता है कि आप सोचते हैं – गुरुकुल अर्थात एक कोई बहुत बड़े प्रचारक या सम्प्रदाय प्रमुख का स्थान! जहाँ कई अन्य धार्मिक, आध्यात्मिक कार्य होते हैं, और वहाँ बच्चे (मुख्यतः कुमार बालक) भी पढ़ते हैं, जो उन प्रमुख या धर्मगुरु की परंपरा अथवा ‘गद्दी’ का कदाचित कालांतर में निर्वहन करेंगे। ये सभी रूप सत्य हैं। किन्तु केवल ये ही गुरुकुल हैं और यही पूर्णरूप है, ऐसा भी नहीं है।

आजकल बहुत लोग गुरुकुल की ओर आकर्षित हो रहे हैं और खोज-खोज के उसके बारे में पढ़ रहे हैं, लिख रहे हैं। इस आकर्षण के कई कारण हैं –

  • एक बड़ा कारण है (भारत में) की लोगों को मैकॉले द्वारा स्थापित और आज भी चलती शिक्षा व्यवस्था के तामसिक उद्देश्य का पता चल रहा है। इसके लिए षड्यंत्र शब्द का प्रयोग भी किया जाता है।
  • वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की अपूर्णता दिख रही है (भई  कुछ भी कहो,स्थापित तो मैकॉले ने ही करी थी), उसके परिणाम दिख रहे हैं । तो उसका हल खोजने के लिए अपनी प्राचीनतम शिक्षा व्यवस्था का आकलन करना अथवा उसकी ओर जाना स्वाभाविक ही है।
  • लोग अपनी संस्कृति, धरोहर और ज्ञान को बचाने के लिए या उसके पुनरुत्थान की प्रेरणा से उसके बारे में जानना चाहते हैं, उससे जुड़ना चाहते हैं।
  • आधुनिक समय लोगों के किसी न किसी विषय का विशेषज्ञ बनने का है अर्थात उसकी विस्तृत जानकारी लेने का है, तो गुरुकुल व्यवस्था के बारे में जानकर उसके छोटे छोटे अंशों को एक चूल अथवा प्लग-इन की तरह प्रयोग करके आधुनिक व्यवस्था को कैसे परिष्कृत किया जा सकता है, ये उत्तर मिलने की अपेक्षा है।
  • और आजकल गुरुकुल शब्द तथा विचार चर्चा में है तो इसके बारे में थोड़ा बहुत जानकर कुछ की अपने चने भुनाने की इच्छा है।
अन्य कारण भी हैं, परंतु मुख्यतः यही दृष्टिगोचर हैं। जब किसी भी कारणवश लोग इसकी ओर आकर्षित होते हैं तो दो-तीन मूल प्रश्न होते हैं, सबके मन में :
  • गुरुकुल क्या होता है? चलता कैसे है?
  • ये किस प्रकार की व्यवस्था है? (गुरु-शिष्य परंपरा का विवरण क्या है)
  • गुरुकुल में पढ़ के बच्चे आगे जाकर क्या बनते हैं? शिक्षा की मुख्यधारा में कैसे मिलते हैं? उन्हें नौकरी मिलती है?
  • बच्चे पढ़ते कैसे हैं गुरुकुल में?
जो लोग केवल विषय के तरह गुरुकुल का अध्ययन करने के इच्छुक होते हैं, उनके प्रश्न होते हैं:
  • गुरुकुल व्यवस्था कैसे चलती है? इसके घटक क्या हैं?
  • वैदिक शिक्षा पद्धति क्या है? इसका क्या विस्तार है?
  • ये आधुनिक व्यवस्था से भिन्न कैसे हैं?

इन सभी प्रश्नों के तकनीकी उत्तरों की चर्चा भी किसी अन्य ब्लॉग पोस्ट में करूँगी। वैसे तो कई सामान्य और गण्यमान्य व्यक्ति इस पर बहुत कुछ कहते दिखाई देते हैं, किन्तु गुरुकुलों की संख्या बढ़ाने के लिए उनमें से कितने धरा पर कार्य कर रहे हैं, उसका शुद्ध अनुमान नहीं हो पाया है मुझे!

 आज आपको अपने गुरुकुल (sanskrutigurukulam.com) के एक सामान्य दिवस के बारे में बताती हूँ। स्वयं जानिए तथा विचार करिए की क्या क्या भिन्न अथवा नवीन है आपके लिए !

सूचना : गुरुकुल में विद्यार्थी (कन्या व कुमार), गुरुजी (आचार्य जी, आयुर्वेदाचार्य, दर्शन शास्त्री, गीता दर्शन विशेषज्ञ), गुरुमाता (गुरुपत्नी, वैद्या, शिक्षिका) तथा शिक्षक – सभी अंतःवासी हैं, अर्थात सभी गुरुकुल परिसर में ही रहते हैं। कन्याएँ और शिक्षिकाएँ एक कक्ष में निवास करती हैं। इसी तरह शिक्षक और कुमार एक कक्ष में निवास करते हैं। सबकी अपनी-अपनी शैय्या है और एक तीन भाग वाला कपाट! व्यक्तिगत कहलाने योग्य जो कुछ है वो उसमें रहता है, मुख्यतः वस्त्र । पुस्तिकाएँ आदि अध्ययन कक्ष में रहती हैं तथा पुस्तकें सब साझा करते हैं तो वो पुस्तकालय में रहती हैं। दिवस का आरम्भ सूर्योदय से एक घड़ी पहले (लगभग 45 मिनट) या कहें 5 बजे के लगभग होता है ।


दिवस प्रारंभ:

 किसी को विशेष यत्न से नहीं उठाना पड़ा, स्वयं अथवा एक नम्र पुकार से उठ गये हैं । उठते ही अपने अपने करों में प्रातः मंत्र पढ़ा । [नित्य कर्म स्नानादि के पश्चात लगभग छह बजे प्रार्थना सत्र होता है] सत्र से पहले छात्रों (अर्थ छात्र-छात्राएँ  दोनों) को सभा कक्ष का मार्जन (साफ-सफाई) करना है, धूप-दीप और अग्निहोत्र के कुंड आदि सब व्यवस्थित करना है। तीन छात्र ये सब करने दौड़ गए हैं। [यह करने के लिए आचार्य जी ने अथवा शिक्षकों ने कोई नियम नहीं बाँधे हैं। एक बार सिखा कर सबको कहा गया की छात्रों को ही सब नियोजित/व्यवस्थित करना है। आपस में परामर्श करके उन सबने अपने कार्य बाँट लिए हैं] एक छात्र प्रार्थना आरम्भ होने तक कक्ष में नहीं पहुँच पाया तो उसने स्वेच्छा से उस दिन का अल्पाहार (नाश्ता) त्याग दिया है। [ये बाध्य नियम नहीं है। तदापि यदि किसी कारणवश विलंब हुआ तो वो छात्र स्वेच्छा से अल्पाहार का त्याग करे, ऐसा उन्हें सुझाया गया है।] वास्तव में उस छात्र को एक अन्य छात्र के अधिक समय तक स्नानघर में रहने के कारण अपना स्नान करने में विलंब हुआ तो उस कारण छात्र ने भी मन ही मन निश्चित किया को वो भी आज अल्पाहार नहीं लेगा। [ये सब आपस में कह-सुन लेते हैं छात्र, शिक्षकों को इसकी कोई जानकारी नहीं होती]

प्रार्थना में सरस्वती वंदना के साथ वेद-उपनिषद-संहिता आदि के कुछ मंत्र सभी सस्वर गा रहे हैं। एक शिक्षक मंजीरे बजा रहा है, इससे सबका संगीत लय का अभ्यास भी साथ-साथ हो रहा है । ठीक सूर्योदय के समय अग्निहोत्र हवन हो गया (जो 5 मिनट से अधिक का समय नहीं लेता) । फिर एकाग्रता के अभ्यास के लिये तथा अग्निहोत्र की अग्नि के लाभ व धूम्र के सेवन करने के लिए, कुछ देर सब ध्यान में बैठे हैं। आज के ध्यान का संचालन एक छात्र कर रहा है।  कल वो प्रार्थना मंत्र बोलने के समय शांत बैठा था, इसलिए उसे आज ध्यान सत्र का संचालन करने को कहा गया है । वर्तमान मास में श्री सूक्त का पाठ चल रहा है, एक-दो छात्रों के उच्चारण में कुछ त्रुटि अभी शेष रह गयी है, अधिकतर का उच्चारण व स्वर शुद्ध है। आज श्री सूक्त का पाठ करते 25 दिन हो गए हैं, सभी छात्रों को कंठस्थ हो गया है, किसी को पुस्तिका में देखने की आवश्यकता नहीं पड़ रही । पाठ के पश्चात सभी ने सूर्य नमस्कार के 1 मंत्र पे एक आवर्तन की गणना से 12 आवर्तन किये तथा एक अतिरिक्त सूर्य नमस्कार अपने माता-पिता के चरणों में नमन करते हुए किया । प्रार्थना सत्र सम्पन्न हुआ । कुछ छात्र सभा कक्ष को व्यवस्थित करने में लग गए हैं और जिनका क्रम था वो गैया दुहने की तैयारी करने चले गए हैं । वो गौशाला का (जिसमें एक गाय पुष्या तथा एक उसकी बछिया सुरभि है) मार्जन करेंगे, उसके भोजन की व्यवस्था करेंगे, दूध दोहेंगे और जो छात्र अभी 1 मास पहले आया है आज उसे दूध दोहना सिखाना आरम्भ करेंगे।

अल्पाहार से पहले झटपट कक्ष का मार्जन करके, कपड़े धो के सब रसोई घर में आ जुटे हैं । मार्जन करके आसान बिछा के, अपनी अपनी थाली और चषक (गिलास) लेकर बैठ गए हैं। [लगभग 8 बजे अल्पाहार का समय होता है। रसोई घर में भोजन बनता है और एक साथ पंगत में बैठकर खाया जाता है। परोसने का कार्य करने वाला उस समय सबके साथ नहीं खाता है, सबके उपरांत खाता है] आज अल्पाहार में अपनी गैया का उसी प्रहर का दूध (इलायची केसर डाल कर) मुरमुरे और एक छात्र के घर से आयी मिठाई है [किसी के घर से मिठाई आती है तो सबके लिए आती है, केवल उस छात्र के लिए नहीं तथा मिठाई अनिवार्य रूप से घर की बनी होती है। बाहर की/हलवाई की बनाई मिठाई बच्चों के लिए लाने की अनुमति नहीं है]। नए छात्र को अभी सुबह अपने आप च्यवनप्राश खाने का तथा त्रिफला से नेत्र प्रक्षालन का अभ्यास नहीं है, कभी कभी भूल जाता है, आज भी भूल गया ।

सबका अल्पाहार थाली में आ जाने के बाद सबके भोजन मंत्र बोला [4 मंत्रों का समूह है भोजन मंत्र यहाँ] और आनंद से अपना अपना अल्पाहार ग्रहण किया । सभी के लिए पर्याप्त है ये देख लेने के पश्चात! गुरु माँ सुभाषित से उद्धृत करके कहती हैं कि भोजन करते समय सदैव दूसरों की सोचो और मरते समय सदैव अपनी सोचो!

अल्पाहार के पश्चात सब अपनी पुस्तकें आदि देखने में व्यस्त हैं क्योंकि 9 बजे से पुनरावर्तन सत्र आरम्भ हो जाएगा । सभी शिक्षक, गुरुजी अपने अपने अध्यनन में व्यस्त हैं। गुरुमाता पाकगृह का दैनिक नियोजन देख रहीं हैं । 9 बजे अध्ययन कक्ष में सत्र आरम्भ हो गया है, पहले गीता के 2 अध्याय, तत्पश्चात शब्दरूप (तथा गुरुजी ने लोट लकार के 25 धातु रूप भी कंठस्थ करने को कहा है), योगसूत्र का द्वितीय पाद तथा अष्टाध्यायी का प्रथम अध्याय करते करते एक घंटा हो गया। क्योंकि इस सत्र में कोई शिक्षक नहीं होता तो आज सस्वर पुनरावर्तन करते करते सबने प्रतियोगिता भी कर ली की कौन सबसे उच्च स्वर में पूरे समय गा लेता है।

दूसरे कक्ष में जहाँ गुरु जी सभी शिक्षकों के साथ सत्र में थे, वहाँ से गुरुमाता अपना सत्र लेने के लिए आती दिख रहीं हैं। सब बच्चे दौड़ गए हैं, किसी की निवास कक्ष में पुस्तिका छूट गयी है, किसी के वस्त्र सुखाने रह गए हैं, एक को पानी पीना है तो एक शीघ्रता से सुरभि को सुप्रभात कहने गया है। सबके पुनः आगमन के पश्चात गुरुमाता ने आज ज्योतिष का सत्र लेना आरम्भ कर दिया है। बाहर ही ले रहीं हैं आज का सत्र!

आज उन्होंने तीन पाद (45 मिनट) का सत्र लेने का सोचा है, ज्योतिष-भूगोल का प्रारंभिक परिचय इतने समय में हो जाएगा (उधर दो शिक्षक जो गुरुजी से पढ़ते भी हैं, उनका सत्र चल रहा है)। कक्षा में किसी छात्र ने नक्षत्रों की बात सुनते सुनते ध्रुव तारे की पहचान करने के लिए कुछ प्रश्न पूछ लिया तो महान बालक ध्रुव के चरित्र की भी चर्चा आरम्भ हो गयी।  सप्तऋषि की कथा भी गुरुमाता ने सबको विस्तार से बताई। इतने सब में 11:45 हो गए हैं । कुछ गृह कार्य देकर गुरुमाता भोजन बनाने वाली हमारी अन्नपूर्णा, वैशाली बहन (और उनकी काकी) की सहायता को आ गयी हैं।

दूसरा सत्र के लिए अंशु दीदी ने हिंदी का संज्ञा से विशेषण बनाने का सत्र लेना निश्चित किया था, किन्तु अब भोजन में अधिक अवकाश शेष न होने के कारण उन्होंने विषय परिवर्तन कर लिया है । वो सब छात्रों के साथ पृथ्वी का गोलक (ग्लोब) लेकर बैठ गयी हैं । कौन कौन से महाद्वीप हैं, कहाँ हैं, वो  दिखा रही हैं, भारत के मानचित्र की भी पहचान करा रही हैं । साथ के साथ संगणक (कंप्यूटर) पर गूगल मानचित्र खोलकर महाद्वीप से देश, देश से राज्य, राज्य से नगर और नगर से अपने गुरुकुल का स्थान भी दिखा दिया है । अक्षांश और देशांतर (latitude and longitude) भी बताये हैं । एक विद्यार्थी ने अपनी पुस्तिका में गूगल में दिख रहे अपने गुरुकुल के अक्षांश और देशांतर अपनी पुस्तिका में लिख लिए हैं (इस बुधवार जब अपने अभिभावकों से बात करेगी तो उन्हें बताएगी की गुरुकुल का भूगोलीय स्थान क्या है)। सब विद्यार्थियों को गृहकार्य मिला है सभी महाद्वीपों के नाम कंठस्थ करने का तथा अगले दिन उन्हें गोलक पे खोज कर दिखाने का! गोलक पे पृथ्वी का भ्रमण कर के छात्रों ने अंशु दीदी से वचन ले लिया है की आज भोजन और संध्या वंदन के पश्चात वो उन्हें अपनी न्यूज़ीलैंड यात्रा का वृतांत सुनाएँगी।

भोजन का समय हो गया है, वैशाली दीदी ने सबको भोजन के लिए पुकारा है। सब लोग रसोईघर में आ गए हैं, दो छात्रों ने सबके लिए आसन बिछा दिए हैं। एक छात्रा हाथ धोने गयी तो उसे भमरी (ततैया) ने काट लिया है। उसने किसी को नहीं पुकारा, तुलसी के पौधे की जड़ से मिट्टी ली और काटे स्थान पे लगा ली है और आ कर अपने भोजन आसन पर बैठ गयी है। आज गुरुजी से मिलने कोई अतिथि आये हुए हैं, वो भी साथ भोजन के लिए बैठे हैं। परोसने के पश्चात भोजन मंत्र बोल कर सब भोजन कर रहे हैं। बच्चे छिपी दृष्टि से अतिथि को देख रहे हैं क्योंकि वो खाते हुए दोनों हाथों का प्रयोग कर रहे हैं । छोटी आयु वाले छात्र अपनी स्मित छिपा नहीं पा रहे हैं । वैशाली दीदी ने आँखों ही आँखोँ में उन्हें ऐसा करने से मना किया तो गंभीर होने का प्रयत्न कर रहे हैं । भोजन के साथ आम अथवा छाछ में से एक को चुनना है, अधिकतर विधार्थियों ने आम और कुछ ने छाछ को चुना है । अतिथि ने दोनों के लिए हाँ कही तो बच्चे पुनः चकित हैं – ये तो विरुद्धाहार भी करते हैं ! अपनी अपनी गति से भोजन के पश्चात सबने अपने बर्तन धो कर यथास्थान रख दिए हैं। अब विश्राम का  समय है, लगभग 4 बजे तक का समय अपनी अपनी रीत से व्यतीत करने की अनुमति है (बस सोना नहीं है)।

यदि इस समय आप को अदृश्य रूप से परिसर में भ्रमण करने को मिले तो दिखेगा कि कोई अपना चित्र पूरा कर रहा है । एक छात्र ‘आंनद मठ’ पढ़ रहा है क्योंकि उसके साप्ताहिक कार्य में उसे ये उपन्यास पढ़ के इसकी कथा संक्षिप्त रूप में गोष्ठी में सुनानी है । एक अन्य विद्यार्थी  बछड़ी को आम के पेड़ से बांध, वहीं खाट बिछाकर विश्राम कर रहा है । उसे पता है उसने अभी तक रविवार को आने वाले गणित के गुरुजी का गृहकार्य पूर्ण नहीं किया है परंतु इस समय वो मोरों के खेत से चले जाने की राह देख रहा है क्योंकि उसे उनके पंख बटोरने हैं । दूसरी ओर, गौशाला के समीप बड़ के पेड़ के नीचे दो विद्यार्थी आज का गृहकार्य कर रहे हैं । वरिष्ठ विद्यार्थी कनिष्ठ विद्यार्थी को आज के सत्र के कुछ अंश विस्तार से बता रहा है। एक और निवास कक्ष में दो मिल के एक के साथ शतरंज खेल रहे हैं। एक विद्यार्थी पृथ्वी के गोलक के समीप बैठा विचार में है। वहाँ से जाते शिक्षक को देखकर पूछ रहा है यदि हम धरती को अपनी माता कहते हैं तो उस पर पग रख कर चलते हुए तो हम उसका अपमान कर रहे हैं, हम अपनी माता को कहाँ कभी पग लगाते हैं? शिक्षक (मन में उसके इस सुंदर प्रश्न पर प्रसन्न होते हुए) उसे बता रहे हैं कि इसीलिए तो हम प्रातः उठते ही भूमि पर पग धरने से पहले उससे क्षमा माँगते हैं (समुद्रे वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते । विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।) । उधर वो छोटा वाला बड़े भैया को ‘आनंद मठ’ पढ़ते देख कुछ गुरु पढना चाहता है, तो खोज कर पुस्तक मेले से स्वयं चुन के लाई पुस्तक ‘1965 के युद्ध की शौर्य गाथाएँ’ निकाल रहा है।

कितने समय में वो गृह कार्य पूर्ण करेगा, कितने समय खेलेगा और किस समय पुस्तक पढना आरम्भ करेगा, ये सब मानसिक योजना उसने बना ली है । गुरुमाता के कक्ष की ओर जाएँ तो वो कुछ लिख रही हैं (कुछ दिन से उन्होंने गीता के प्रत्येक श्लोक पे एक गीत लिखने का क्रम आरम्भ किया है, कदाचित छठे अध्याय पे हैं वो आजकल)। गुरुजी संगणक कक्ष में अपने यूट्यूब के सीधे प्रसारित सत्र में व्यस्त हैं ।

मोरों की वाणी से संध्या के आने की सूचना मिल गयी है और विद्यार्थियों का कलरव सुनाई दे रहा है । कोई पौधों में पानी दे रहा है, दो गैया के दुहने के कार्य में रत हैं, दो चिड़ी-छक्का (badminton) खेल रहे हैं। कुछ विष-अमृत खेल रहे हैं । 1-2 घंटे के समय में ये सब कुछ करने के पश्चात संध्या के भोजन की पुकार आ गयी है। सभी छात्र रसोईघर की ओर जाते हुए सोच रहे हैं की आज क्या होगा भोजन में – खिचड़ी कढ़ी, छुंके हुए चावल, जौ की भाकरी और शाक, पोहे, मुठिया अथवा अन्य कुछ ? पहुँचे तो पता चला कि आज दाल ढोकली और गेहूँ की भाकरी है । अतिथि सांयकाल के भोजन में भी साथ हैं और दोपहर के भोजन की प्रशंसा करते नहीं थक रहे हैं कि सात्विक भोजन भी इतना स्वादिष्ट हो सकता है उन्हें कोई कहता तो विश्वास नहीं करते परंतु अब तो स्वयं अनुभव किया है इसलिए अत्यंत आनंदित हैं। भोजन के पश्चात इतने प्रेम से भोजन खिलाने के लिए गुरुमाता और वैशाली बहन को उन्होंने बहुत धन्यवाद दिया है।

सभी छात्र संध्या वंदन के लिए एकत्रित हो गए हैं। एक छात्र की प्रतीक्षा है, वो सदैव अपनी ‘गीता’ कहीं भी रख के भूल जाता है और समय पर सबको प्रतीक्षा करवाता है। उसके आ जाने पर संध्या धूप-दीप के पश्चात गीता के सत्रहवें अध्याय का परायण करने बैठ गए हैं।

अतिथि के आया होने के कारण आज सांयकाल का गुरुजी का संस्कृत का सत्र नहीं हो रहा तो सब हारमोनियम पर आ जुटे हैं । संगीत के गुरुजी शनिवार को आते हैं, इस शनिवार उन्हें 6 अलंकार बजा के दिखाने हैं पर उसे छोड़ के आज एक गुजराती भजन (जो किसी पुरानी पुस्तिका में स्वरों के साथ लिखा मिल गया है) को हिंदी में अनुवाद कर के उसे बजाने और गाने का भरपूर प्रयास हो रहा है। तभी सबको याद आया की आज तो अंशु दीदी से न्यूज़ीलैंड की यात्रा का वृतांत सुनना था, तो सभी संगणक कक्ष में एकत्रित हो गए हैं  केवल वो ‘आनंद मठ’ पढने वाले बड़े भैया को छोड़कर, वो तो आज उस भजन को साधकर ही रहेंगे । उनका अभ्यास पंचम स्वर में चल रहा है, गीत के मुखड़े में इतनी बार भगवान से वरदान माँगा है कि आज तो वो साक्षात प्रकट हो कर दे ही देंगे, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

उधर अंशु दीदी ने प्रयत्न किया की वो वृतांत सुनाना अभी टाल दें, छात्रों से कह रही हैं कि शुक्रवार के स्थान पर आज ही संगणक (computer) का सत्र कर लेते हैं क्योंकि गुरुजी आज व्यस्त हैं, परंतु ये युक्ति चलती नहीं दिख रही। अंततः उन्होंने अपना लैपटॉप बंद किया और न्यूज़ीलैंड के तूफान में फँसे अपने विमान का वृतांत सुना रहीं हैं, बच्चे पृथ्वी का गोलक भी उठा लाए हैं, देखने के लिए की वेलिंगटन से ऑकलैंड कितनी दूर है। अंशु दीदी ने वृतांत सुनाते सुनाते सभी महाद्वीपों के नाम भी पूछ लिए हैं (जो प्रातः सत्र में गृहकार्य था)। वृतांत का अंत आते आते 9:30 बज गए हैं।

सोने का प्रकरण आरम्भ हुआ है। हाथ-मुँह धोना, शैय्या लगाना, शेष गृह कार्य करना, दूध-औषधि लेना, शैय्या पे बैठकर पुस्तक पढना, सब चल रहा है। वो छोटा वाला बड़े रस से ‘1965 के युद्ध की शौर्य गाथाएँ” खोलकर कर पढ़ रहा है। 2-3 पृष्ठ पढ़ के अकस्मात अध्ययन कक्ष की ओर दौड़ गया है और गोलक पर कुछ देख कर वापस आ गया है। सोने के लिए शैय्या पे लेटकर कुछ मुस्कुरा रहा है। उसने महाद्वीपों और भारत के स्थान के साथ-साथ ये भी जान लिया है की पाकिस्तान और चीन भारत के दो सीमा लगते पड़ोसी देश हैं। अब कल वो गृहकार्य बताने के समय सबको ये अतिरिक्त जानकारी भी देगा (उसे आभास नहीं हो पाया है कि अंशु दीदी ने तो वृतांत सुनाते सुनाते गृहकार्य जाँच भी लिया है) । और एक प्रश्न भी पूछना है उसे । पुस्तक में समझ नहीं आया कि पाकिस्तान मानचित्र में भारत की तुलना में इतना छोटा से देश है, उसने भारत से युद्ध क्यों किया था ? कल ये प्रश्न पूछ लेगा ।

उधर कन्याओं के कक्ष में वो छात्रा जिसे भमरी ने काटा था, वो ‘रश्मिरथी’ की प्रसिद्ध ‘कृष्ण की चेतावनी’ से “हा हा दुर्योधन बाँध मुझे” शैय्या पे लेटकर शौर्य रस में गा रही है । अन्य कन्याओं के निवेदन पर उसने सबको अपने मौन से कृतार्थ किया है और नेत्र मूँद लिए हैं ।

ऐसी ही कुछ न कुछ सोचते, कहते सभी निद्रा देवी की शरण में चले गए हैं । गुरुजी अभी भी सभा कक्ष में अतिथि के साथ विमर्श कर रहे हैं। वो अतिथि किसी औषधि पर शोध कर रहें हैं कदाचित, गुरुजी से मार्ग दर्शन लेने आये हैं।


तो ये था गुरुकुल का एक दिवस !

आपको क्या लगता है ? बच्चों को मन उचाट होने का, मोबाइल पे आंखें गड़ा के खेल खेलने का, टी वी देखने का अथवा मन चुराने का, अवकाश है ?

क्या आपको आभास हुआ कि इस एक दिवस में शिक्षण की 26 में से 7 वैदिक पद्धतियों का सहज प्रयोग हुआ ?

क्या आप जान पाए, कितने विषय पढ़ाये गये ?

आचार्यात् पादं धत्ते पादं एकं स्वमेधया । पादं एकं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालेन पच्यते ॥
¼ आचार्य से सीखा जाता है, ¼ स्वध्ययन से, ¼ सहपाठियों के साथ तथा ¼ (ज्ञान) समय के साथ पचता है।
यात्रा जारी है.……

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