आदरणीय गुरुजी श्री मेहुलभाई आचार्य द्वारा दिया गया दर्शन का परिचय!
दर्शन का पहला रूप हम समझते हैं देखना। हम विग्रह का, भगवान की मूर्ति का दर्शन करते हैं,उसे देखते हैं। कभी किसी व्यक्ति को भी कहते हैं,”आपके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं” (दर्शन दुर्लभ हो गये, जबसे दिया उधार!) अर्थात् कोई व्यक्ति अब दिखता नहीं।
जब भारतीय ‘दर्शन’ की बात करी जाती है तो वह है संस्कृत की ‘दृश’ धातु से बना, उससे निष्पन्न हुआ शब्द -दर्शन!
आधुनिक पाश्चात्य संसार में जो ‘philosophy’ शब्द है , वह दर्शन के लिये प्रयोग होता है। जिसे philosophy कहते हैं , वह दर्शन नहीं है। दर्शन उससे बहुत आगे है, बहुत विस्तृत है।
अनुमान से कुछ बताने, या सोचने, विचार करने, बहुत विचार करने को फिलोसॉफी कहते हैं। फिलोसॉफी विचार का शास्त्र है।
फिलोसॉफी में सोचा जाता है, दर्शन में देखा जाता है।दर्शन निर्विचार की भूमिका में देखा जाता है। दर्शन प्रत्यक्ष है।
ज्ञान प्राप्त करने की, साधना की भारतीय विज्ञान में सीढ़ी है – श्रवण, मनन और निधि ध्यासन। श्रवण माने सुनना; मनन माने सुने हुए तथा स्वाध्याय द्वारा जाने गये ज्ञान को पुनः स्मरण करना, उसका संकलन करना तथा निधि-ध्यासन माने मनन किये हुए ज्ञान को स्तिथप्रज्ञ होकर उसका परीक्षण करना, उसे धारण करना व आत्मसात करना।
हमारे ऋषि-मुनियों ने इस निधि ध्यासन की प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी बातें देखीं, अनुभव करीं और उनका साक्षात्कार किया। वो सोचीं नहीं, विचार नहीं किया, संशोधन नहीं किया; उन्होंने साक्षात्कार किया। साक्षात्कार होने के बाद कुछ रहस्य ऐसे पता चले जो हम इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते। वह, जिसका अनुभव इन्द्रियों रूपी साधन द्वारा नहीं हो सकता, उन्हें इन्द्रियातीत कहते हैं। ऐसे अनुभव को किसी साधन से नहीं जाना जा सकता, साधना से जाना जा सकता है। ऐसे ही कुछ इन्द्रियातीत अनुभव ऋषि-मुनियों को हुए। वह पता चला जो सृष्टि के पार है।
इसीलिए तो ‘रिष’ धातु से ऋषि शब्द बना – ऋषति संसारस्य पारं दर्शयति, इति ऋषि:। ऋषि का अर्थ है, जो संसार से पर की बात बता सके, जो संसार के पार की बात को जान लेते हैं।
अतः निधि ध्यासन की प्रक्रिया में, ऋषि मुनियों के मन में प्रश्न उठे। प्रश्न उठने के पश्चात उन्होंने साधना करी। साधना के पश्चात उसके उत्तर मिले। उन्होंने इन्द्रियातीत अनुभवों से अपने मन में उठे प्रश्नों के उत्तर को जाना – ये शरीर कैसे चलता है ; मन कहाँ से आया है ; [केन: सितं प्रेषितं मन:, केन: प्राण:] कौन प्राण को भेजता है ; मरने के बाद क्या होता है ; आत्मा कहाँ चला जाता है और क्या-क्या जाता है ; सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ; क्यों उत्पन्न हुई ; ये सब क्यों हुआ ; मैं संसार में क्यों आया ; मुझे कौन चला रहा है ; मैं कहाँ जाऊँगा ; मैं क्या कर रहा हूँ ; यह सब क्या है ; ये सभी रचना और इसकी विधि क्या है?
वह उत्तर अनुभूति के स्तर पर मिले, शब्द के स्तर पर नहीं! उन्होंने उन उत्तरों को देखा और उसको कहा – दर्शन!
उसके ऊपर शास्त्र लिखे गये। विभिन्न ऋषियों ने विभिन्न शास्त्र लिखे।
मनुष्य के लिए साधना के कई मार्ग हैं, प्राप्तव्य एक है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं : गणित में दो और दो चार होते हैं, एक और तीन भी चार होते हैं तथा आठ में से चार जाएँ, तो भी चार होते हैं। चार तक पहुँचना महत्वपूर्ण है और चार तक बहुत तरह से पहुँचा जा सकता है। ऐसी ही यदि 100 की संख्या पर पहुँचना हो तो कई मार्ग हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि केवल कोई एक मार्ग ही सही है। ऐसा नहीं है कि केवल दो और दो चार ही उचित है अथवा शुद्ध है, तीन और एक नहीं। यदि कोई ऐसा कहता है तो कहने वाला गणितज्ञ नहीं हो सकता!
ऐसे ही मुक्ति का यही एक मार्ग है और कोई मार्ग नहीं हो सकता, ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं है।
ऋषि-मुनियों ने जाना कि परमात्मा की ओर जाने वाले कितने मार्ग हैं और भटकाने वाले कितने मार्ग हैं। परमात्मा तक ले जाने वाले मार्गों की पूरी प्रक्रिया दी। सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ; हम कहाँ से आये; जन्म कैसे होता है; जन्म के समय पर गर्भ में हम कैसे आ जाते हैं; वहीं क्यों आते हैं; पूर्व जन्म कैसे होता है; पुनर्जन्म कैसे होता है – ऐसी बहुत सारी बातें लिखीं और उनका नाम बताया गया दर्शन शास्त्र!
हमारे ऐसे छह दर्शन मुख्य हैं:
- न्याय, (2) वैशेषिक, (3) सांख्य, (4) योग, (5) पूर्व मीमांसा (मीमांसा शास्त्र) तथा (6) उत्तर मीमांसा (वेदांत)।
इन छह दर्शनों के शास्त्र भिन्न ऋषियों ने लिखे हैं। वेदों को आधार मानकर, वेदों के वाक्यों को आधार मानकर लिखे गये ये छह दर्शन वैदिक दर्शन कहलाते हैं।
अन्य तीन दर्शन हैं :
(7) जैन दर्शन, (8) बौद्ध दर्शन और (9) चार्वाक दर्शन
यह अवैदिक दर्शन कहलाते हैं क्योंकि वो वेदों को प्रमाण नहीं मानते हैं। इनमें दो दर्शन ऐसे हैं जो पूर्व व पुनर्जन्म को मानते हैं, सृष्टि के रहस्य को मानते हैं – जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन। ये दोनों दर्शन हैं। सृष्टि की, पूर्वजन्म की, पुनर्जन्म की पूर्ण प्रक्रिया बताते हैं। परंतु ये वेदों के वाक्यों को प्रमाणभूत नहीं मानते। वह मानते हैं कि वेद वाक्य प्रमाण हो भी सकता हैं और नहीं भी हो सकता है।
नौंवा और अंतिम दर्शन है चार्वाक दर्शन। चार्वाक दर्शन रहस्य को नहीं मानता है। वह भोगों को मानता है:
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।
अर्थात् जब तक जीवन है, सुख से जियो, भोग-आनंद करो। यह देह भस्मीभूत होने के बाद कहाँ पुनः आना है।
चार्वाक दर्शन कहता है कि सब कुछ यहीं, इसी संसार में है, इसीलिए सब भोग लो क्योंकि उसके बाद जन्म ही नहीं है। इस संसार से बाहर कुछ होता तो जन्म होता। कुछ नहीं है इसीलिए जन्म भी नहीं है। आत्मा, परमात्मा, सत्संग – यह सब कुछ नहीं होता, इसका कोई लाभ नहीं। इस दर्शन के अनुसार:
त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः। बुद्धि पौरुष हीनानां जीविका धातु निर्मिता।।
अर्थात् बुद्धि और पौरुष बिना के लोग ऐसी लोक-परलोक की बातें करते रहते हैं।
इन सबका उत्तर वैदिक दर्शन में, न्याय व वैशेषिक आदि में बहुत विस्तारपूर्वक दिया गया है। यदि एकाग्रचित्त होकर पढ़ेंगे तो संपूर्ण दर्शन समझ में आ जाएगा।
इस तरह से नास्तिक दर्शन और आस्तिक दर्शन, दोनों दर्शन हैं। पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष दोनों हैं। प्रत्येक तथ्य यहाँ तर्क से स्पष्ट किया गया है। दर्शन शास्त्र में कुछ भी तर्क अथवा अर्थ के परे नहीं है। बुद्धि के साक्षात्कार की भूमिका पर आकर जो लिखा गया वो दर्शन शास्त्र है।
इसके लिए गीता में स्वयं कृष्ण ने ही ‘ज्ञान क्या है’ ये बताया है:
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
अध्यात्मज्ञान में स्थित होना और तत्वज्ञान के अर्थ में परमात्मा को ही देखना (जो दर्शन शास्त्र बताता है),वही ज्ञान है। तत्वज्ञान कराने वाला जो दर्शनशास्त्र है, वह मेरे मत में ज्ञान है, और अन्य सब अज्ञान है।
तो दर्शन शास्त्र क्या है? ऋषि-मुनियों ने जो अलग-अलग मार्गों से अनुभूति करी – सृष्टि कैसे बनी, कौन चलाता है, कैसे चलती है, आदि, उस अनुभूति से जो भिन्न-भिन्न वाक्य निकले, जिनकी दिशा भिन्न हैं, कहने की विधि भिन्न है, लेकिन पहुँचना एक ही स्थान/लक्ष्य पर है- मुक्ति! मोक्ष!; इन अनुभवों का, देखी हुई अनुभूतियों का नाम दर्शन है।
वैदिक ज्ञान की सूक्ष्म समझ का उदाहरण: न्याय दर्शन अथवा भारतीय भौतिक शास्त्र/भौतिकी (Indian Physics)
आधुनिक विज्ञान ने लगभग 1800 ई. में परमाणु (atom) की व्याख्या करी तथा उस पर शोध आरम्भ किया।
न्याय दर्शन, जिसे Indian physics कहा जाता है, उसके रचयिता गौतम मुनि ने परमाणु के बारे में लिखा है। परमाणु शब्द, आज जिसे हम atom कहते हैं, वो वेदों के बाद,पहली बार गौतम मुनि ने बताया है। परमाणु की व्यवस्थित व्याख्या; परमाणु क्या होता है; इतना सूक्ष्म होता है कि दिखता नहीं है, तो भी वह होता है; उसका यथार्थ माप, परिमाण; उसकी शक्ति; यह पूर्ण विवरण गौतम मुनि ने लिखित किया। जिस समय यूरोप ने परमाणु की कल्पना भी नहीं करी थी, तब परमाणु का पूरा विवरण गौतम मुनि ने लिखा था।
जालान्तर्गते भानौ यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य षष्ठतमो भागः परमाणुः स उच्यते ।।
वातायन के जाल से (खिड़की से) अंदर आती सूर्य की किरणों में जो अति लघु कण दिखते हैं, उसके छठे भाग को परमाणु कहते हैं।
यह उदाहरण दर्शाता है की न तो वैदिक ज्ञान लुप्तप्रयोग अथवा अप्रचलित (obsolete) है तथा न ही ये व्यर्थ अथवा अप्रासंगिक (irrelevant) है। आधुनिक विज्ञान के तीनों भागों – भौतिक शास्त्र (physics), रसायन शास्त्र (chemistry) और जीव शास्त्र (biology, zoology) का उद्भव इसी भारतीय दर्शन से हुआ है। इसके सभी मूलभूत सिद्धांतों को जानना, वैदिक विद्या को पढना व सीखना, आज के समय में प्रखरतम, तेजस्वी व रचनात्मक वैज्ञानिक व दार्शनिक दोनों बना सकता है।
इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: । मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: ।।
भगवद्गीता 3.42
इंद्रियों के परे मन है, मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है ।
यात्रा जारी है….
बहुत अच्छा लेख है। पढ़कर अच्छी जानकारी मिली। साधुवाद।
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धन्यवाद पारितोष जी 🙏🏻
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