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विश्वगुरु राष्ट्र के नागरिकों का स्तर

बौद्धिक नागरिक किसी भी देश अथवा राज्य की सर्वाधिक मूल्यवान पूँजी होते हैं। केवल एक बौद्धिक वर्ग (think tank) नहीं, अपितु सभी गण\लोग जिन्हें हम ‘साधारण जन’ कहते हैं, उनकी बुद्धि का स्तर, विवेक और संतोष जब ऐसा हो कि वह जीवन दर्शन को जीते हुए निर्भीकता से राजा(सर्वोच्च पदाधिकारी) की त्रुटियों को भी इंगित कर सकें – ऐसी स्थिति, ऐसा वातावरण दर्शाता है कि एक राष्ट्र कितना सम्पन्न है,उन्नत है, विश्व गुरु है। 

ये विचार उस समय आया जब गुरुजी संस्कृत संभाषण का एक सत्र ले रहे थे। उस सत्र में उन्होंने राजा भोज की कथाओं से क्रिया का एक दृष्टांत प्रस्तुत किया। प्रायः हम राजा भोज की कथाएँ आनंद के लिए व उनके नैतिक संदेशों के कारण सुनते-सुनाते हैं। उनके राज्य की प्रजा कितनी विद्वान थी अथवा प्रजा के भाषाई बौद्धिक स्तर के बारे में कम ही चर्चा होती है।

  1. प्रजा प्रास अलंकार में बात करती है। राजा के समक्ष निर्भीकता से अपने विचार प्रकट करती है। अपने जीवन के नित्य कार्यों को संघर्ष न समझते हुए न तो अति संवेदनशील हैं, न दुखी है, न ही शारीरिक श्रम को कष्ट की संज्ञा देती हैं, अतः संतोष से जीवन-यापन करती है। इस प्रसंग से समझते हैं:

 राजा भोज ने देखा एक क्षीण सा व्यक्ति अपनी सर पर बड़ा सा और भारी गट्ठर रखे मंथर गति से जा रहा है। राजा ने संस्कृत में पूछा – “भारं न बाधति?” (भार बाधा नहीं दे रहा/नहीं लग रहा?) उस व्यक्ति ने संस्कृत में उत्तर दिया – “ भारं न बाधते राजन् यथा ‘बाधति’ बाधते।” (राजन, भार इतनी बाधा नहीं दे रहा जितना आपका ‘बाधते’ को ‘बाधति’कहना बाधा दे रहा है।)

इस प्रश्न में ‘बाध’ एक आत्मनेपदी* धातु है अतः उसका वर्तमान काल में प्रयोग करेंगे तो ‘बाधते’ कहा जाएगा। ‘बाधति’ कहने का अर्थ हुआ कि वक्ता उसे परस्मैपदी धातु समझ रहा है अतः वर्तमान काल में ‘अति’ प्रत्यय के साथ क्रियापद बना प्रयोग कर रहा है। 

*आत्मनेपदी वो धातु होती है जिसकी क्रिया का फल अपने को मिलता है और परस्मैपदी वो धातु होती है जिसकी क्रिया का फल दूसरे को मिलता है। यहाँ इस प्रश्न में उस भार की बाधा स्वयं उस व्यक्ति को मिल रही है अतः यहाँ आत्मनेपदी धातु के क्रियापद का प्रयोग होगा। 

राजा की इसी संस्कृत व्याकरण की त्रुटि को उस साधारण नागरिक ने इंगित किया। और साथ ही साथ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करते हुए राजा को बड़ी सरलता से उत्तर दिया। अपने भार ढोने के काम से उसे कोई उलाहना नहीं थी, राजा के पूछने पर कुछ सहायता मिलने के अवसर का लाभ भी उसने कोई स्वार्थ व आलस्य जनित विचार कर नहीं लिया। प्रजा के संतोषजनक आदर्श जीवन-यापन का कितना सुंदर उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हुआ। 

  1. कवियों आदि द्वारा संस्कृत व संस्कृति प्रसार के लिए राजा भोज नाटकों का आयोजन करवाते थे। जिससे प्रजाजन सहजता से ही संस्कृत संभाषण और उसके साथ-साथ व्याकरण के नियम आदि भी सीख लेते थे। ऐसे ही एक बार वसंत ऋतु में नाटक हो रहा था। राजा भोज भी उस नाटक सभा में उपस्थित थे। वहाँ एक फटे-पुराने वस्त्र पहने, अति निर्धन दिखने वाला व्यक्ति भी नाटक देख रहा था।ठण्ड से बचने के लिए उसके पास कुछ नहीं था। उसे देख राजा को दया भी आयी और दुख भी हुआ तो उन्होंने उसकी सहायता करने के उद्देश्य से संवाद करना चाहा। राजा ने पूछा -“ शीतं कथं नीतम्?” (सर्दी कैसे जाती है/बीतती है?)

व्यक्ति ने उत्तर दिया – “रात्रौ जानु दिवा भानु कृशानु सन्ध्ययोर्भयो:। एवं शीतं मया नीतम् जानु भानु कृशानुभि:।।”  (रात में घुटने, दिन में सूर्य और दोनों संध्या समय अग्नि। ऐसे घुटनों, सूर्य और अग्नि से मेरी सर्दी बीतती है।)

यानी रात में घुटनों को छाती तक समेट कर गुमड़ी मार कर सो जाता हूँ, दिन में सूर्य की गर्मी से रक्षा होती है और दोनों संध्या काल अर्थात सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद, जिस समय सो नहीं रहे होते और सूर्य भी नहीं होता, तब आग/अलाव जलाकर सर्दी के दिन व्यतीत करता हूँ। ऐसा उस फटे कपड़े पहने व्यक्ति ने राजा को बताया।

एक प्रश्न के उत्तर में तुरंत एक अनुष्टुप छंद की रचना करी (अलंकार आप पहचानिये) और कितने संतोषजनक दृष्टिकोण का परिचय देते हुए बताया की कोई कष्ट नहीं है, और ये उपाय करके उसकी शीत ऋतु व्यतीत हो जाती है। वह व्यक्ति इतना सुंदर उत्तर देकर अपने संतोष की स्थिति का व कष्ट में न होने की मनःस्थिति का सूचन राजा को देता है। राजा को समक्ष देख, उसके सहायता करने के संकेत को समझकर भी उस निर्धन व्यक्ति ने राजा से कुछ नहीं माँगा। राजा ने अवश्य यह सुनने के उपरांत उसकी साधन/दृव्य से सहायता करी। 

कोई ‘sense of entitlement’ नहीं कि मैं आपकी प्रजा हूँ और मेरी रक्षा व लालन-पालन आपका कर्तव्य/धर्म है- ऐसा कोई उलाहना राजा को नहीं दिया। कोई अपेक्षा नहीं करी क्योंकि अपने जीवन-यापन का दायित्व हर व्यक्ति पर स्वयं होता है। राजा, राज्य व समाज की परिकल्पना/ रचना अवश्य सभी व्यक्तियों के जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से की गयी है। परंतु वैदिक व वैज्ञानिक सिद्धांतों से स्थापित करी गयी संस्कृति में पला-बढ़ा व्यक्ति इतना सक्षम, स्वावलंबी व संतोषी (content) होता है कि अपने जीवन की परिस्थितियों में व्यग्र व उद्विग्न नहीं होता  और अपनी सहायता के लिए औरों से अपेक्षा नहीं रखता, राजा से भी नहीं। बौद्धिक स्तर पर परिपक्व होता है। और बड़ी बड़ी साहित्य की डिग्री न होने पर भी भाषा व व्याकरण (वो भी संस्कृत!) पर उसका पांडित्य अच्छा होता है। 

एक निर्धन व्यक्ति की,एक अति साधारण काम करने वाले व्यक्ति की इस परिस्थिति की आज के समय के निर्धन या ‘शोषित’ व्यक्तियों की परिस्थिति से तुलना करिये। निर्धन व्यक्ति (below poverty line) की सहायता न करने पर सरकार को निकम्मा बताया जाता है। उस व्यक्ति/व्यक्तियों से अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी निर्धनता को दूर करने की अपेक्षा नहीं रखी जाती। एक तरह से उन्हें दया का पात्र बनाकर पहले तो उनके आत्मसम्मान को नीचे धकेलने में हम अपना योगदान देते हैं और दूसरा अकर्मठता को बढ़ावा देते हैं। 

जीविका उपार्जन और विद्या ग्रहण में योग्यता को ताक पर रखते हुए जातिगत व सम्प्रदायगत आरक्षण के अपना अधिकार मानते हैं। वर्ण व जाति प्रथा को discriminatory बताते हैं पर जीविका उपार्जन के विभिन्न कार्यों की जातियाँ बना रखी हैं। ये काम छोटा है, नीचा है -ये काम ऊँचा है, खेती करे तो बेचारा, मज़दूरी करे तो बेचारा और ऑफिस में बैठ कर काम करे तो अच्छा। धन के आधार पर परिवहन में, brandvalue के अस्तित्व के आधार पर class की रचना तो सामाजिक कार्यसमता व योग्यतासमता के लिए बनाई गयी जाति व्यवस्था से कहीं भिन्न है और वास्तव में अति तुच्छ है। यह वाला आधुनिक caste-system हम सब के अंतर्मन और मस्तिष्क में चिन्हित हो चुका है और हम सब वैसे ही व्यवहार करते हैं। 

राष्ट्र को विश्वगुरु बनाने के लिए स्वावलंबी, योग्य व बुद्धि से परिपक्व नागरिक सबके आवश्यक घटक (component) है। 

राजा भोज की अति साधारण प्रजा के यह दृष्टांत, उस समय के राष्ट्र के उन्नत स्तर, व्यक्ति की मनः स्थिति व भाषा की संपन्नता को दर्शाते हैं। उस भारत को मेरा प्रणाम!  वैसी ही सशक्त प्रजा का पुनः निर्माण हो इसके लिए हम भारतीय जीवन शैली, दृष्टिकोण, सिद्धांतों, विचार, विद्या व शिक्षा पर पूर्ण रूप से वापस आएँ ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है !!

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।

चाणक्यनीतिदर्पण:

जीव स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही उन कर्मों के फल सुख-दुख को भोगता है, जीवन स्वयं संसार में नाना योनियों में जन्म लेता है और स्वयं पुरुषार्थ करके संसारबन्धन से छूट कर मुक्त हो जाता है।

यात्रा जारी है….

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