वर्षा ऋतु में आहार-विहार

जो व्यक्ति ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।

वर्षा ऋतु का आगमन हो चुका है। आषाढ़  और सावन मास में वर्षा ऋतु का काल होता है। प्रत्येक ऋतु का काल अलग होता है, उस समय वातावरण की स्थिति अलग होती है और उसी प्रकार हमारे शरीर में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ की स्थिति भी ऋतु के साथ बदलती है।  भाव प्रकाश में भाव मिश्र बताते हैं: 

क्षयकोपशमा यस्मिन्दोशाणां संभवन्ति हि । ऋतुशट्कं तदाख्यातं रवे राशिषु संक्रमात् ।।

 – जिस समय दोषों की वृद्धि, कोप तथा शमन हुआ करता है, उस समय को ऋतु कहते हैं।

ऐसे में  सामान्य  प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि इस ऋतु में  आहार विहार कैसा होना चाहिए? 

वर्षा ऋतु वात यानि वायु के प्रकोप का काल है। इस ऋतु में मंद अग्नि होती है जिसका हमारी पाचन क्रिया पर सीधा असर पड़ता है। यह ऋतु प्रजनन प्रक्रिया के आरंभ होने का भी काल है। जीवाणु, कीट सृष्टि की उत्पत्ति का काल है। यह एकमुख्य कारण है कि इस ऋतु में भारत में लोकाचार और परम्पराएं भी इस प्रकार से रची हैं कि सब ऋतु अनुकुल आहार विहार करें। जैसे –

मांस का सेवन करना – मांस के सेवन के लिए किसी पशु -पक्षी के जीवन का अंत किया जायेगा। क्योंकि प्राकृतिक रूप से यह पशु- सृष्टि की प्रजनन प्रक्रिया का काल है तो शिकार/आखेट से इस प्रक्रिया में, सृष्टि की उन्नति के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है, अतः इस कार्य को ही इस ऋतु में निषिद्ध कर दिया जाता है।

हरी सब्जी, प्याज, फल विशेष का त्याग – वर्षा ऋतु में इनमें कीट-जीवाणु की उत्पत्ति अधिक होती है। ऐसा मुख्यतः वातावरण में अधिक नमी होने के कारण होता है। इन्हें त्यागने से इन्हें खाने की तथा इनके माध्यम से कीट-विषाणु खा लिए जाने की संभावना समाप्त हो जाती है तथा रोग होने से बच जाते हैं।

यात्रा करना और ग्रंथ अध्ययन करना – वर्षा होने के कारण और अधिकतर जगहों पर कच्चा जल उपलब्ध होने के कारण प्रवास यात्रा में कठिनाई होती है और जल के कारण उदर रोगों की संभावना बहुत बढ़ जाती है, अतः एक ही स्थान पर रहने का प्रावधान किया जाता है और समय का सदुपयोग हो इसलिए सम्यक वातावरण के तापमान में ग्रंथ अध्ययन का विधान रहता है।

इस ऋतु में कैसा आहार विहार करना चाहिए ?

नमकीन, खट्टा/अम्ल रस वाला , चिकना, हल्का और मधुर आहार लें। कब्ज़ न होने दें। जठराग्नि का विशेष ध्यान रखें। नया पानी और नए साकभाजी त्याग दें और साधारण श्रम करें। संयमी रहें, विशेष व्यायाम न करें। वायुकारी आहार न लें।

गुरुजी (आचार्य मेहुल भाई) वर्षा ऋतु में आहार -विहार के  प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते हैं:

शरीर व आत्मा दोनों का आरोग्य अच्छा रहना चाहिए। दोनों की पुष्टि हो, शरीर आत्मा को ना भूले और आत्मा शरीर को ना भूले यानी ऐसे में हम शरीर व आत्मा दोनों का विचार करें। संस्कृति आर्य गुरुकुलम् एकमात्र ऐसी संस्था है जो दोनों को साथ में रखकर चलती है। यह एकमात्र ऐसा गुरुकुल है जिसने आयुर्वेद तथा आध्यात्म – दोनों क्षेत्रों में अग्रगण्य प्रदान किया है। वर्षा ऋतु में आहार इसके दूसरे छोर यानी शरीर के विषय का प्रश्न है।  आयुर्वेद आषाढ़ व श्रावण मास में विशेष जिन वस्तु के सेवन करने की बात बताता है वह इस प्रकार है :

) अदरक : आषाढ़ मास में अग्नि मंद होती है या मन्दाग्नि होती है। यानि मेटाबॉलिज्म तथा डाइजेस्टिव एसिड्स निम्न होते हैं। अदरक अग्नि को प्रदीप्त करता है इसलिए भोजन से पहले से अदरक खाने से मंद अग्नि बढ़ती है। अतः पूरे आषाढ़ में और सावन में अदरक का सेवन करें। यदि किसी प्रकार का धार्मिक परहेज है तो सौंठ का भी सेवन पर सकते हैं।

लाभ :

अदरक खाने से अग्नि मंद नहीं होगी,  प्रदीप्त रहेगी जिसके फलस्वरूप अच्छा पाचन होगा, भूख लगेगी।

वायु का अनुलोमन होगा। वायु का अनुलोमन करने से शरीर में वायु नहीं बढ़ेगा। वात संबंधी रोग नहीं होंगे।

अदरक पुराने आम यानी कच्चे रस का पाचन करता है।

अदरक या सौंठ सुबह या शाम, किसी भी समय ले सकते हैं।अदरक के टुकडे पानी में भिगो कर या नमक के साथ सेवन करें। यदि सोंठ ले रहे हैं तो आधा चम्मच सुबह या शाम किसी भी समय ले सकते हैं। 

२) एरंड का तेल ( कैस्टर ऑयल) : एरंड के तेल से वायु का अनुलोमन होता है और स्वास्थ्य अच्छा होता है।

३) तिल तेल: विशेषकर इस ऋतु में लोकाचार में बहुत तली चीजें खाने का प्रचलन है, जैसे पकोड़े भज्जी आदि। इस ऋतु में आप यदि तले पदार्थ खाते हैं तो अच्छा लगता है क्योंकि वर्षा के कारण शरीर रुक्ष हो जाता है और तेल खाने से शरीर को स्निग्धता मिलती है। इस ऋतु में वात बढ़ जाता है जिससे रुक्षता बढ़ जाती है। यदि आप तेल के व्यंजन खाते हैं तो याद रखें इस समय सबसे अच्छा तेल है तिल तेल! चरक सूत्र में बताया गया है “तिल तैलं स्थावरजातानां स्नेहानाम्”, सभी प्रकार के स्थावर स्नेह हैं, उनमें तिल तेल सबसे अच्छा है । अर्थात इस समय जो पूरे शरीर में स्नेहन या ऑइलिंग होनी चाहिए, वह तिल का तेल कर देगा। तो तिल के तेल में बनाई वस्तुओं का सेवन करें।

४) भारी वस्तुएं ना खाएं।

५) दूध का सेवन कम करें।

६)  सादा आहार करें।

७) बासी भोजन बिल्कुल ना करें। रात का सुबह दोपहर का रात को ना खाएं इससे पाचन शक्ति मंद हो जाएगी, अग्नि मंद हो जाएगी, ऐसा ना करें।

ऐसा करने से आपका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।

मानसिक स्वास्थ्य के लिए, अध्यात्म की साधना के लिए यह दो महीने बहुत ही अच्छे हैं। इस समय में एक ही स्थान पर रहे अर्थात् भ्रमण यात्रा ना करें।  सामान्य रूप से आहार-विहार करें और चिंतन, मनन, ग्रंथ-अध्ययन अधिक से अधिक करें। चातुर्मास आरंभ हो गया है, उसका पूरा लाभ उठाएं और अपना ध्यान रखें।

ऋतुसम्यक आहार-विहार

ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन का आदी होने को ऋतुसात्मय कहते हैं । यदि कोई बाहरी वातावरण में परिवर्तन के अनुसार आहार और जीवन शैली या गतिविधियों को संशोधित (adjust or modify) कर सकता है, तो वह अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण प्राप्त कर सकता है – ऐसा चरक बताते हैं ।

तस्याशिताद्यादाहाराद्बलं वर्णश्च वर्धते| यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम्||

जो व्यक्ति ऋतुसात्मय को, ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, और जिसके आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।

Author: Brahm Varchas

I am here to share my journey from the regular run of the mill life to reach Brahm Varchas - the pinnacle of knowledge and existence !

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