वरदराज पेरूमाल कोविल मंदिर, काँचीपुरम, तमिलनाडु

राजगोपुरम ! मुख्य द्वार

वरदराज पेरूमाल कोविल दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था और विष्णु स्तुति गायी थीं। यह मंदिर कुछ 1100 वर्ष पुराना है। इसे प्रसिद्ध चोल राजा राज राजा प्रथम ने बनवाया था। बाद के समय में चोल राजाओं कुलोत्तुंग प्रथम और विक्रम चोला ने इसमें विस्तार किए।

मंदिर के पीछे की ओर से मूलवर सन्निधि का शिखर (पुण्यकोटि विमानम)! इस शिखर पर नरसिंह शीर्ष दिखता है।
प्रवेशद्वार से भीतरी प्रांगण का दृश्य, जिसमें दो मण्डप और उसके पश्चात् ध्वज स्तंभ स्थित है।
ध्वज स्तंभ के दाईं ओर अन्न क्षेत्र और बाईं ओर पवित्र पुष्करणी स्थित है।
और यह है मंदिर की पुष्करणी जिसके कारण यह एक तीर्थस्थल कहलाता है।

वरदराज पेरूमल यानि वर देने वाले विष्णु ! जिनका नौ फ़ीट का अंजीर की लकड़ी का बना विग्रह इस पुष्करिणी में सदा जलमग्न विराजमान रहता है और हर 40 वर्ष में एक बार जल से बाहर आता है, भक्तों के दर्शन हेतु! इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्व कर्मा द्वारा किया बताया जाता है।

इस स्थान में मूर्ति जलमग्न रहती है।

सोलहवीं शताब्दी तक यह गर्भग्रह में विद्यमान और पूजित थी। परंतु मुसलमान आक्रांताओं के बढ़ते हमलों के कारण अर्चकों ने उसे चांदी की पेटिका (casket) में सुरक्षित कर इस पुष्करणी में छिपा दिया और इसकी जानकारी गुप्त रखी। 1709 में पुष्करणी की सफाई में यह उद्घाटित हुआ। तब से यह परंपरा स्थापित हुई कि प्रत्येक चालीस वर्ष के बाद यह मूर्ति जल से निकाली जाती है और 48 दिनों तक भक्तों के दर्शन के लिए रखी जाती है। इसकी पौराणिक कथा गूगल पर सरलता से उपलब्ध है। कहते हैं कि ब्रह्मा जी द्वारा किये जा रहे यज्ञ की सरस्वती रूपी वेगवती नदी के जल प्रकोप से रक्षा के लिए स्वयं विष्णु यहां बाड़ की तरह लेट गये थे।

मुख्य दर्शन वीथिका

बारह स्तंभों की इस वीथिका की शोभा देखते ही बनती है। यहां विष्णु के उत्सव विग्रह श्री देवी तथा भू देवी के साथ विराजमान हैं। भारत भर से दर्शनार्थी यहां दर्शन के लिए आते हैं। किन्तु स्थानीय मूलनिवासी वैष्णव अपनी आभा और निष्ठा के कारण सहज ही पहचान में आ जाते हैं।

पेरूमाल(विष्णु) के उत्सव विग्रह के बायीं ओर ये छोटा आ प्रांगण है जिसके बायीं ओर तायार पेरुनदेवी की सन्निधि है।
ये मण्डप शायद तायार के उत्सव विग्रह के लिये हो!
जालीदार स्तंभ

इन जालीदार स्तंभों की शिल्पकारी चकित करती है। इतनी सूक्ष्मता से आकार और अनुपात का ध्यान रख, एक ही पत्थर को पूर्ण रूप से सही तराशा है।

अंदर की ओर से मण्डप की छत

केवल स्तंभ ही नहीं, इस मण्डप की छत भी विस्मित करती है। अच्छी बात यह है की जीर्णोद्धार के समय सामायिक चटक रंगों का प्रयोग ना करके प्राकृतिक रंगों की सहायता से इन्हें संरक्षित किया गया है।

तायार पेरून देवी की सन्निधि में उनके दर्शन में एक प्रकार की शीतलता का अनुभव होता है। परिक्रमा करते समय पीछे की ओर से शिखर का स्वर्ण आच्छादित शिखर बहुत सुन्दर दिखता है। तायार अर्थात् मां। मन्दिर के मुख्य देव की पत्नी का एक मां के रूप में स्वतंत्र सन्निधि रहती है। इस मंदिर में विष्णु पत्नी लक्ष्मी पेरुन देवी के रूप में विद्यमान हैं।
मूल विग्रह के बारे में पूछने पर मुख्य मण्डप वीथिका के पीछे की ओर स्थिति सन्निधि में जाने को कहा जाता है। मूलवर नरसिंह की सन्निधि में पंद्रह स्तंभों में से एक पर यह रूप उकेरा हुआ है। विग्रह का रूप कुछ इसी तरह है। यहां उग्र नरसिंह अथवा योगी नरसिंह का विग्रह स्थापित है।
और ये है प्रसिद्ध सौ स्तंभों वाला मण्डप!

चोल कला का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता यह शत -स्तंभ मण्डप पुष्करणी के बाईं ओर स्थित है। प्रत्येक स्तंभ एक भिन्न कथा और देव को प्रस्तुत करता है। भारतीय शिल्प जिज्ञासु और इतिहासकार यहां कितने ही दिन बिता सकते हैं। यह मण्डप विजय नगर के राजाओं द्वारा बनवाया बताया जाता है।

कठोर पाषाण में तराश कर बनाई इन कलाकृतियों की सूक्ष्मता और निपुणता देख बरबस ही शिल्प कार के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। योद्धा के शस्त्र, घोड़े की लगाम, अश्व के पैरों के नीचे आए शत्रु की अवस्था, सह कुछ स्पष्ट है।

कल्याण मण्डप

इस मण्डप वेदी पर प्रति वर्ष वसंत के समय श्री विष्णु का विवाह पेरून देवी से होता है। सुनने में आया उत्सव भव्य होता है।

स्तंभ पर उकेरे आञ्जनेय (हनुमान)!
योगी नरसिंह

शत -स्तंभ मण्डप से दिख रही इस दिव्य पुष्करिणी की दिव्यता चित्र में नहीं बांधी जा सकती । श्री विष्णु से प्रार्थना है कि वह अपना वरदहस्त सदा भक्तों के शीश पर रखें और उन्हें दर्शनलाभ दें!

Author: Brahm Varchas

I am here to share my journey from the regular run of the mill life to reach Brahm Varchas - the pinnacle of knowledge and existence !

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