“सर्व तर्केभ्य: स्वाहा” यह अपने आप में इस पाश्चात्य सौर वर्ष २०२२ का ट्विटर सार वाक्य कहा जा सकता है।
किन्तु आगे का उद्गार इस नाम के व्यंग्य संग्रह के लिए है जिसे अजय चंदेल जी ने हमारे पढ़ने और उनकी संतति द्वारा उनके रचना कार्यों की स्मृति रखने के साधन के रूप में प्रकाशित किया है।
@chandeltweets
इस पुस्तक की प्राप्ति तो कई दिन पहले हो गई थी। अमेजोन ने अपनी तुरत मुफ़्त डिलीवरी और पुस्तक के किनारे क्षत-विक्षत करती सेवा का मान रखते हुए, हमें एक ठेले न गये पर मन से लिए गये रेज़ोल्यूशन के लिए प्रेरित किया कि अब पढ़ेगा-इण्डिया से ही पुस्तकें मँगवाई जायेंगी (यदि उन के पास उपलब्ध है तो), पुस्तकों के सलामत कोने और हिन्दी के बुकमार्क दोनों मिलते हैं। इस क्रान्तिकारी संकल्प के बाद सोचा ट्विटर पर जाकर दो शब्द लिखें और चित्र चढ़ायें, पर वहाँ जाकर देखा तो लोगों ने अजय जी द्वारा अंतिम कोरे पृष्ठ पर उन्हें पुस्तक भेट देने के प्रमाण स्वरूप अपने हाथ से मधुर वचन लिख भेजने के चित्र और ट्वीट करे हुए हैं। बड़ी ग्लानि हुई। इतने वर्षों में ट्विटर पर इतनी साख भी न कमा पाये कि अजय जी हमें भेंट स्वरूप अपनी पुस्तक भेजें, पर फिर पुस्तक खोली तो पहले ही पृष्ठ पर अजय जी द्वारा छाप कर अमर कर दिये गये शब्द पढ़े तो ज्ञात हुआ ये तो पूरी पुस्तक ही हमें समर्पित है ।

ये पढ के हम दुःख से सागर में डूबने से बाहर निकल व्यंग्य के सागर में गोते लगाने को तैयार हुए।
अजय जी की परिपक्व लेखनी से निकला ये व्यंग्य संग्रह एक मनचाहे खिलौनों की पिटारे की तरह लगा, जिसमें जब भी ढूँढोगे कोई मनोरंजक खिलौना ही हाथ लगेगा। 58 लेखों का यह संग्रह आदर्श चाय-चौकी पुस्तक है।(कॉफी टेबल थोड़ा पाश्चात्य हो जाता है और हम घोषित ट्रैड हैं इसलिए काफी-टेबल पद का प्रयोग नहीं करेंगे)। कम से कम हम तो नित्य उसी समय 2 – 4 व्यंग्य पढ़-पढ़ के गोते लगा रहे हैं। अभी पूरा संग्रह नहीं पढ़ा है किन्तु पूरा पढ़ने के बाद भी इसकी स्थिति उस खिलौनों के पिटारे जैसी ही रहेगी। दोबारा पढ़ने पर भी उतना ही मनोरंजन होगा।
वैसे तो निजी रूप से मेरे लिए व्यंग्य की आकस्मिकता ही उसे मनोरंजक बनाती है और संग्रह खोलने का अर्थ है व्यंग्य पढ़ना पूर्व निर्धारित है , किन्तु अजय जी की लेखनी की शैली ऐसी है कि पाठक एक के बाद व्यंग्य का भी उतनी नवीनता से आनन्द लेता है जितना पहले पहले लेख से। ट्विटर के संदर्भ बहुत से लेखों में मिलते हैं , जो पाठक ट्विटर पर नहीं हैं या उस दुनिया को नहीं जानते उन्हें कुछ स्थानों पर नीरसता लग सकती है। हालांकि इस नीरसता की भरपाई व्यंग्यकार का निरंतर सम्पन्न होता व्यंग्य-पद कोश करता रहता है। जैसे – मीडियारण्य, विपच्छमुनि, हाहाकार सेना, लचरचंद, “फ”कार , इत्यादि – जो पाठक को संदर्भ समझने के लिए प्रेरित कर सकता है।
इन्होंने सामयिक ‘आत्मनिर्भर भारत ‘ के नारे से भी प्रेरणा ली दिखती है। एक एक वाक्य पाठक को आरओएफएल क्षण देने के लिए आत्मनिर्भर है और पूरे लेख से इतर अपनी पहचान रखता है। ये हमेशा से ही अजय जी की विशेषता रही है।
आज के समय सर्वाधिक व्यंग्य चुनाव, राजनीति की स्थिति और उसके कलाकारों/नेताओं पर ही लिखे जाते हैं, यह व्यंग्य संग्रह भी इस टैंड्र से अछूता नहीं है । शायद अधिकतर व्यंग्यकार यह मान चुके हैं कि संख्या इसी विषय से प्राप्त होती है और यह लेखक की व्यक्तिगत रूचि को भी दर्शाता है। पर प्रत्येक लेख के पीछे की गंभीरता और लेखक के मन की टीस, दोनों पाठक तक पहुँचती है।
हमें ‘अवतार वीज़ा’ और ‘लिबरल लपेटे में’ अब तक पढ़े लेखों में बहुत बढ़िया लगे।
कुल मिला कर नखलऊ के शर्मा जी के गोल समोसों की तरह, यह व्यंग्य- संग्रह तर्क और विचार की सभी ग्रन्थियों को जगाता है और एक जैसों की भीड़ में कुछ अलग खाने का आनन्द और अनुभव भी देता है। पठनीय है।
अपने आप में किसी व्यंग्य लेख या संग्रह को न पढ़ना कोई कमी नहीं छोड़ता कि उसे न पढ़ने से कोई हानि हो, किन्तु बिना सिर-पैर के और मनस पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डालने वाले OTT की श्रंखला देखने से स्वस्थ व्यंग्य पढ़ना किसी भी समय और हर दृष्टि से अच्छा है। बाकि ट्विटर की भाषा स्थिति की तरह का स्वाहा तो वहीं हो गया जब ‘सर्वेभ्यः तर्केभ्य: स्वाहा ‘ के स्थान पर शीर्षक ‘ सर्व तर्केभ्यः स्वाहा’ हो गया 😉!