मनुष्य तत्व के अंतर्गत ‘मन’ ही सार वस्तु है। इसी औज़ार के सहारे वह छोटे बड़े कार्यों का सम्पादन करता है, पाप-पुण्य, उन्नति-अवनति, सफलता-असफलता, स्वर्ग-नरक की रचना करता है। जिस औज़ार के ऊपर सारा सुख दुख निर्भर है, उसका ठीक प्रकार से प्रयोग करना हर एक व्यक्ति को आना चाहिए।
परंतु कितने लोग हैं जो अपने मन की शक्तियों का उपयोग करना जानते हैं? बंदर के हाथ में तलवार हो, घोड़े की दम से राज सिंहासन बंधा हो तो वे दोनों पशु उससे कुछ लाभ न उठा सकेंगे वरन उलटे आपदा में मुसीबत में फंस जाएंगे। जिसे बंदूक के कल-पुर्जों का ज्ञान न हो, चलाना न आता हो, वह गोली बारूद सहित बढ़िया राइफल या मशीनगन लिए फिरे तो उससे लाभ तो कुछ नहीं उठाएगा और यदि कुछ भूल हुई तो उलटे मुसीबत में पड़ जाएगा। अनेक मनुष्यों को हम विभिन्न प्रकार की आपत्तियों, कठिनाइयों और वेदनाओं से व्यथित देखते हैं। इनमें से अधिकांश कष्ट उनके अपने पैदा किए हुए और काल्पनिक होते हैं। इन दुखों का सारा कारण मन का कुसंस्कारी हो है। यदि मन रूपी औज़ार को लोग ठीक प्रकार से प्रयोग करना जानते और प्रयोग कर सकते तो दुनिया के आधे से अधिक कष्टों का अपने आप अंत हो जाता।
मन के ऊपर ठीक प्रकार का नियंत्रण पाने और उसे इच्छा के अनुसार उपयोग कर सकने की कला हस्तगत करने का उपाय और विधि भारतीय ज्ञान विधा (Indian Knowledge Systems) में योग के रूप में बताई गई है। हम उसे मूल रूप से समझ, पारंपरिक रूप से विधिवत सीख सकते हैं क्योंकि भारत में जन्मे होने से हमें ये सहजता से और चारों ओर उपलब्ध है। योग का उदेश्य मन को ऐसा लचकदार बनाना है कि उसे जिधर भी लगाना चाहें इच्छानुसार लगा सकें।
अष्टांग योग के आठ अंग हैं – यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। सीधे ध्यान (meditation) पर कूद पड़ने से अथवा उसे शॉर्ट कट समझकर अभ्यास करने का प्रयास करने से यात्रा बहुत लंबी हो जाएगी। #मनन
इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धिसे भी पर है, वह (काम) है।
मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है ? जीवन की सार्थकता कहाँ पर है ? विकास का परमोच्च शिखर क्या है ? तृप्ति और आनंद की प्राप्ति किस बिन्दु पर है? इन सब प्रश्नों के जवाब तब मिलते हैं इसकी अनुभूति तब होती है जब हम पंचकोश को जानते हैं। पंचकोश का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है । आयुर्वेद के ग्रंथों मे, अध्यात्म के ग्रंथों मे, उपनिषदों में पंचकोश का विस्तृत वर्णन किया गया है । भारतीय शिक्षा का तो फलितार्थ ही पंचकोश के विकास को बताया गया है ।
मानव अस्तित्व के पाँच तत्व माने गये हैं – शरीर ( इंद्रिय), प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा । इन पांचों का समन्वय होकर पूरा शरीर बनता है, जब तक ये न हो तब तक शरीर पूर्ण नहीं माना जाता है अर्थात क्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। इस अधिष्ठान को समझना प्राथमिकता है। इस शरीर को समझना प्रथम सोपान है अर्थात अन्नमय कोश, शरीर के अंदर की शक्ति को समझना द्वितीय है अर्थात प्राणमय कोश, क्रिया के प्रेरक विचार या मन को समझना तृतीय है अर्थात मनोमय कोश, विचार की प्रेरक बुद्धि को समझना चौथा सोपान है अर्थात विज्ञानमय कोश और इन सब से भी ऊपर, बुद्धि से पर वह तत्व जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको समझना अंतिम सोपान है अर्थात आनंदमय कोश । आत्मा के ऊपर जो पांच परते हैं वो पांच कोष (sheaths) हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश। पांचों कोष उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। अन्नमय से सूक्ष्म प्राणमय, प्राणमय से सूक्ष्म मनोमय, मनोमय से सूक्ष्म विज्ञानमय और विज्ञानमय से आनंदमय कोष (चित्त) है जो सूक्ष्मतम है।
विकास को बाहर से नहीं लाया जा सकता। शरीर बाहर से नहीं बढ़ता अपितु अंदर कुछ ऐसी प्रक्रिया होती है कि शरीर अंदर से बढ़ता जाता है । कोश यह समझाता है कि जितनी भी प्रक्रिया होगी वह अंदर होगी और विकास अंदर से बाहर की ओर होता है। शरीर के भीतर से कुछ होगा वह कोशों की परत दर परत बाहर आएगा।
यही जानकर ऋषि-मुनियों ने किस परत पर कार्य करना चाहिए उसका विज्ञान समझाया, वह कैसे करना है ये समझाया, क्या कार्य है, वह कैसे होता है और इसका परिणाम क्या है वह सब समझाया उसे ही पंचकोश का पूरा विज्ञान कहते हैं । यह कोश का विज्ञान है कि किस परत पर कार्य होता है। पंचकोश विज्ञान को जब हम जानते हैं तो उसमे क्रियाकारिता नहीं है, केवल समझना है । पंचकोश विकास को जब जानते हैं तो उसमें क्रियाकारिता है, कर्तव्य का बोध है कि क्या करना है उसके विज्ञान को समझना पंचकोश के विकास को समझना है।पंचकोश का विकास जब कहा जाता है तब विकास में कर्तव्य का बोध है कि क्या कार्य होता है।
संस्कृति आर्य गुरुकुलम् , पंचकोश आधारित विकास के सिद्धांत द्वारा विधिवत शिक्षा व जीवन के विकास का अविरत कार्य आदर्श समाज के निर्माण के लिये कर रहा है। पंचकोश विकास का मार्गदर्शन संस्कृति आर्य गुरुकुलम के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य मेहुलभाई सत्रों, शिविरों तथा अध्ययन विषयवस्तु के माध्यम से देते हैं।
“सर्व तर्केभ्य: स्वाहा” यह अपने आप में इस पाश्चात्य सौर वर्ष २०२२ का ट्विटर सार वाक्य कहा जा सकता है।
किन्तु आगे का उद्गार इस नाम के व्यंग्य संग्रह के लिए है जिसे अजय चंदेल जी ने हमारे पढ़ने और उनकी संतति द्वारा उनके रचना कार्यों की स्मृति रखने के साधन के रूप में प्रकाशित किया है।
@chandeltweets
इस पुस्तक की प्राप्ति तो कई दिन पहले हो गई थी। अमेजोन ने अपनी तुरत मुफ़्त डिलीवरी और पुस्तक के किनारे क्षत-विक्षत करती सेवा का मान रखते हुए, हमें एक ठेले न गये पर मन से लिए गये रेज़ोल्यूशन के लिए प्रेरित किया कि अब पढ़ेगा-इण्डिया से ही पुस्तकें मँगवाई जायेंगी (यदि उन के पास उपलब्ध है तो), पुस्तकों के सलामत कोने और हिन्दी के बुकमार्क दोनों मिलते हैं। इस क्रान्तिकारी संकल्प के बाद सोचा ट्विटर पर जाकर दो शब्द लिखें और चित्र चढ़ायें, पर वहाँ जाकर देखा तो लोगों ने अजय जी द्वारा अंतिम कोरे पृष्ठ पर उन्हें पुस्तक भेट देने के प्रमाण स्वरूप अपने हाथ से मधुर वचन लिख भेजने के चित्र और ट्वीट करे हुए हैं। बड़ी ग्लानि हुई। इतने वर्षों में ट्विटर पर इतनी साख भी न कमा पाये कि अजय जी हमें भेंट स्वरूप अपनी पुस्तक भेजें, पर फिर पुस्तक खोली तो पहले ही पृष्ठ पर अजय जी द्वारा छाप कर अमर कर दिये गये शब्द पढ़े तो ज्ञात हुआ ये तो पूरी पुस्तक ही हमें समर्पित है ।
ये पढ के हम दुःख से सागर में डूबने से बाहर निकल व्यंग्य के सागर में गोते लगाने को तैयार हुए।
अजय जी की परिपक्व लेखनी से निकला ये व्यंग्य संग्रह एक मनचाहे खिलौनों की पिटारे की तरह लगा, जिसमें जब भी ढूँढोगे कोई मनोरंजक खिलौना ही हाथ लगेगा। 58 लेखों का यह संग्रह आदर्श चाय-चौकी पुस्तक है।(कॉफी टेबल थोड़ा पाश्चात्य हो जाता है और हम घोषित ट्रैड हैं इसलिए काफी-टेबल पद का प्रयोग नहीं करेंगे)। कम से कम हम तो नित्य उसी समय 2 – 4 व्यंग्य पढ़-पढ़ के गोते लगा रहे हैं। अभी पूरा संग्रह नहीं पढ़ा है किन्तु पूरा पढ़ने के बाद भी इसकी स्थिति उस खिलौनों के पिटारे जैसी ही रहेगी। दोबारा पढ़ने पर भी उतना ही मनोरंजन होगा।
वैसे तो निजी रूप से मेरे लिए व्यंग्य की आकस्मिकता ही उसे मनोरंजक बनाती है और संग्रह खोलने का अर्थ है व्यंग्य पढ़ना पूर्व निर्धारित है , किन्तु अजय जी की लेखनी की शैली ऐसी है कि पाठक एक के बाद व्यंग्य का भी उतनी नवीनता से आनन्द लेता है जितना पहले पहले लेख से। ट्विटर के संदर्भ बहुत से लेखों में मिलते हैं , जो पाठक ट्विटर पर नहीं हैं या उस दुनिया को नहीं जानते उन्हें कुछ स्थानों पर नीरसता लग सकती है। हालांकि इस नीरसता की भरपाई व्यंग्यकार का निरंतर सम्पन्न होता व्यंग्य-पद कोश करता रहता है। जैसे – मीडियारण्य, विपच्छमुनि, हाहाकार सेना, लचरचंद, “फ”कार , इत्यादि – जो पाठक को संदर्भ समझने के लिए प्रेरित कर सकता है।
इन्होंने सामयिक ‘आत्मनिर्भर भारत ‘ के नारे से भी प्रेरणा ली दिखती है। एक एक वाक्य पाठक को आरओएफएल क्षण देने के लिए आत्मनिर्भर है और पूरे लेख से इतर अपनी पहचान रखता है। ये हमेशा से ही अजय जी की विशेषता रही है।
आज के समय सर्वाधिक व्यंग्य चुनाव, राजनीति की स्थिति और उसके कलाकारों/नेताओं पर ही लिखे जाते हैं, यह व्यंग्य संग्रह भी इस टैंड्र से अछूता नहीं है । शायद अधिकतर व्यंग्यकार यह मान चुके हैं कि संख्या इसी विषय से प्राप्त होती है और यह लेखक की व्यक्तिगत रूचि को भी दर्शाता है। पर प्रत्येक लेख के पीछे की गंभीरता और लेखक के मन की टीस, दोनों पाठक तक पहुँचती है।
हमें ‘अवतार वीज़ा’ और ‘लिबरल लपेटे में’ अब तक पढ़े लेखों में बहुत बढ़िया लगे।
कुल मिला कर नखलऊ के शर्मा जी के गोल समोसों की तरह, यह व्यंग्य- संग्रह तर्क और विचार की सभी ग्रन्थियों को जगाता है और एक जैसों की भीड़ में कुछ अलग खाने का आनन्द और अनुभव भी देता है। पठनीय है।
अपने आप में किसी व्यंग्य लेख या संग्रह को न पढ़ना कोई कमी नहीं छोड़ता कि उसे न पढ़ने से कोई हानि हो, किन्तु बिना सिर-पैर के और मनस पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डालने वाले OTT की श्रंखला देखने से स्वस्थ व्यंग्य पढ़ना किसी भी समय और हर दृष्टि से अच्छा है। बाकि ट्विटर की भाषा स्थिति की तरह का स्वाहा तो वहीं हो गया जब ‘सर्वेभ्यः तर्केभ्य: स्वाहा ‘ के स्थान पर शीर्षक ‘ सर्व तर्केभ्यः स्वाहा’ हो गया 😉!
आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति इतना भाग्यशाली नहीं कि उसे गुरू का सानिध्य या उनके द्वारा ज्ञानप्राप्ति हो । ऐसे में,गुरु के अभाव में यदि कोई भगवद्गीता पढ़ना चाहता है तो वो कैसे पढ़े? यदि स्वाध्याय भी कर रहे हैं तो किस विधि और क्रम से करें तो वह प्रभावी हो और पूर्ण हो सके?
भगवद्गीता पढ़ने के इच्छुक लोग व्यापक रूप से ये अवरोध और प्रश्न अनुभव करते है। इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिए इस लेख में भगवद्गीता अभ्यास की प्रभावी विधि पर प्रकाश डाला गया है।
भगवद्गीता अभ्यास की प्रभावी विधि
यहाँ गीता शब्द के प्रयोग का अर्थ है- भगवद्गीता! वो गीता का संदेश जो महाभारत के युद्ध के पहले दिन, मार्गशीर्ष एकादशी को, युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान ने कृष्ण रूप में अर्जुन को कहा था। यह संदेश अथवा भगवद्गीता, महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। महामुनि व्यास ने आने वाले समय के अनुकूल उसे विभिन्न योगों में विभाजित किया तथा कालान्तर में गीता का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व होने पर अध्यायों में पाठ संख्या का क्रम मुख्य हो गया। भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों को सामूहिक रूप से प्रस्थानत्रयी कहा जाता है जो वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ हैं। उपनिषदों की कई विद्याओं का उल्लेख व रहस्य, सांख्य दर्शन का सत, विभिन्न योग रूपी साधनों द्वारा व्यक्ति का कल्याण, आदि बहुत कुछ भगवद्गीता में मिलता है। इस कारण इसे जानने की उत्सुकता होती है और अभ्यासरत रहने पर जिज्ञासा जागृत हो जाती है। इस विषय पर सहायता करने के लिए अनेक पुस्तकें उपलब्ध है ।भगवद्गीता विश्व का सर्वाधिक अन्य भाषाओं में अनुवादित ग्रन्थ है। भारत में गीता प्रेस के विभिन्न संस्करण सर्वाधिक प्रचलित है।
पाठों का बन्धारण
गीता की अध्याय संख्या व उनके विषय इस प्रकार हैं :-
पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग
दूसरा अध्याय -सांख्ययोग
तीसराअध्याय – कर्मयोग
चौथा अध्याय -ज्ञानकर्मसन्यासयोग
पाँचवाँ अध्याय -कर्मसन्यासयोग
छ्ठा अध्याय -आत्मसंयमयोग
सातवाँ अध्याय -ज्ञानविज्ञानयोग
आठवाँ अध्याय -अक्षरब्रह्मयोग
नौवाँ अध्याय -राजविद्याराजगुह्ययोग
दसवाँ अध्याय – विभूतियोग
ग्यारहवाँ अध्याय -विश्वरूपदर्शनयोग
बारहवाँ अध्याय -भक्तियोग
तेरहवाँ अध्याय -क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभागयोग
चौदहवाँ अध्याय -गुणत्रयविभागयोग
पन्द्रहवाँ अध्याय -पुरुषोत्तमयोग
सोलहवाँ अध्याय -दैवासुरसम्पद्विभागयोग
सत्रहवाँ अध्याय -श्रद्धात्रयविभागयोग
अठ्ठारहवाँ अध्याय -मोक्षसन्यासयोग
आधुनिक समय में व्यक्ति द्वारा गीता को पुस्तक जानकर उसे दी गई प्राथमिकता
आधुनिक समय में व्यक्ति की ज्ञान अर्जित करने की आकांक्षा अधिकतर अपने आप पढ़ने तक सीमित होती है जिसके लिए वह पुस्तकों को आधार स्तम्भ बना लेता है। शुद्ध शास्त्रीय ज्ञाता-विद्वान से ग्रहण करने के बजाय लोग आपस में चर्चा कर अपने अनुभव व मत-मतान्तर साझा करते हैं और भगवद्गीता जैसे सशक्त ग्रन्थ को भी एक प्रेरक पुस्तक की तरह, एक कॉफी टेबल पुस्तक की तरह पढ़ने के प्रयास करते रहते हैं। सही विधि के अभाव में ‘हिट एण्ड ट्रायल’ से पढ़ने का प्रयास करते है और अधिक आगे नहीं जा पाते। जैसे हम किसी भूल-भुलैया (मेज़) में जाये तो लक्ष्य तक पहुँचने के अनेक मार्ग जान पड़ते हैं, हम अपने अनुमान से एक मार्ग पर चल पड़ते हैं जो कुछ दूर जाकर बन्द हो जाता है। तो या तो उस अवरोध पर हम रुक जाते हैं या पुन: आरम्भ पर आते हैं। मार्ग जब तक सही नही होगा, लक्ष्य तक नही पहुँचेंगे। ऐसे में जानकार द्वारा सुझाये मार्ग पर चलने से उस लक्ष्य के सही मार्ग से आगे बढ़ते हैं। उसी प्रकार, गुरु द्वारा बतायी विधि से भगवद्गीता पढ़ने पर हम उसे जानने समझने के लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और अध्ययन कार्य को पूर्ण कर पाते है।
यह स्वीकारिता सबसे पहले लानी आवश्यक है कि स्वयं से गीता अध्ययन कठिन है। अठारह अध्यायों के शब्दार्थ तो पाठक किसी भी श्रेष्ठ सुझाई / जानी प्रणाली से पढ़ लेगा। – किन्तु पाठक को अधिक कुछ नहीं समझेगा।वह जिस दृष्टि से समझता है वो न तो पूर्ण है न सक्षम लेकिन आज के समय का सत्य यही है कि अधिकतर व्यक्तियों के गुरु नहीं है न उस दिशा में कोई कार्य है। लेकिन गीता पढ़ने की, उसे जानने की इच्छा है तो ऐसे में व्यक्ति क्या करे?
गीताध्ययन की प्रभावी विधि
इसे जानने के लिए दो पक्षों को समझना आवश्यक है:
पहला पक्ष – गीता को पढ़ने और समझने के लिए निरन्तरता, दीर्घकालिता तथा सत्कार का व्रत
व्यक्ति सबसे पहले क्या पढ़े? इस प्रश्न का उत्तर इस पक्ष से मिलता है। पतञ्जलि योग सूत्र में बताते हैं-अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः॥१.१२॥ स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढभूमि:॥१.१४॥ जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्॥२.३१॥
गीता अध्ययन के लिए इन तीन सूत्रों की प्रेरणा कुछ इस प्रकार होगी कि अभ्यास से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और बहुत समय तक निरन्तर और श्रद्धा के साथ सेवन किया हुआ वह अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है और यह , सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य महाव्रत है। अध्ययन साधना की यह साथन रूपी चाबी महर्षि पतञ्जलि ने उपलब्ध कराई हुई है।
निरन्तरता, नियमित रहने से आती है और नियमित रहने का सबसे प्रभावी साधन है उच्चारण अर्थात् गीता का नियमित रूप से वाणी द्वारा संस्कृत पाठ का स्पष्ट उच्चारण या आवृत्ति! हममें से कई को संस्कृत पढ़ना व उसका उच्चारण नहीं आता तो उसे सीखने का यही अवसर है। असंख्य व्यक्ति, समूह, संस्थाएँ ये कार्य प्रत्यक्ष तथा ऑनलाइन निःस्वार्थ रूप से कर रहे हैं। उनसे उच्चारण सरलता से सीखा जा सकता है।
उच्चारण सीखने से, आवृत्ति करने से नियमितता आती है, गीता के प्रति सहजता आती है, फलतः दृढ़ता आती है और व्यक्ति का विश्वास बढ़ता है कि वह कुछ जान रहा है। जैसे-जैसे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है, वैसे वैसे उसके अर्थ की ओर व्यक्ति की जिज्ञासा बढ़ती है। इसमें एक अपेक्षा यह भी रहती है कि इससे वह साथ- साथ संस्कृत सीख रहा है। वह नहीं भी सीखे तो उच्चारण आदि सीखने से उसका गीता से परिचय बढ़ता है, उदाहरण के लिए- कितने अध्याय है, कौन सा अध्याय किस योग की बात करता है, कहाँ सर्वाधिक श्लोक हैं, आदि। अर्थात् गीता का मूलभूत परिचय उच्चारण सीखते सीखते हो जाता है।
सस्वर पाठ तथा कण्ठस्थीकरण ( याद करने) की सरलता के अनुसार पाठ क्रम:
गीता के अध्यायो का आवृति अथवा शब्दार्थ को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार क्रम रखा जाता है( यह सीखने या सिखाने वाले के अनुसार भिन्न भी हो सकता है) – पन्द्रहवाँ, बारहवाँ, सोलहवाँ, नौवाँ, दसवाँ, पहला, दूसरा, आठवाँ, छठा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, सातवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ तथा ग्यारहवाँ।
इस क्रम का कारण अध्याय में श्लोकों की संख्या, उनका सरल उच्चारण, साधारण अर्थ की रोचकता, छन्दों की अथवा विभक्तियो आदि की एकरूपता, आदि होते हैं। गीता प्रेस की पुस्तकों में कण्ठस्थ करने के लिए श्लोक- आवृति और संख्या आदि स्मरण करने की कई युक्तियाँ दी गयी रहती है अथवा अनुभवीजन अन्य प्रभावी स्मरण युक्तियाँ बताते हैं।
छोटे बच्चे श्लोकों की बार -बार आवृति करें और बड़ी अवस्था वाले व्यक्ति श्लोकों के पदच्छेद और शब्दार्थ को ध्यान में लाकर फिर श्लोको की आवृत्ति करें तो श्लोक स्मरण होते चले जाते हैं। समूह पाठ करने से आयु जनित संकोच दूर होता है तथा उच्चारण की छोटी मोटी त्रुटि ठीक होती रहती हैं। लयबद्ध पाठ-आवर्तन आनन्दित करता है और भिन्न रागों में गाने पर व्यक्ति का मधुर मनोरजंन होता है। ऐसे धीरे- धीरे उसमें रस आने लगता है।
इसी सब में गीता के सही अर्थ को जानने की स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा उत्पन्न होती है। गीता के प्रयोजन को जानने के लिए व्यक्ति सनद्ध होता है।
अर्थ और तत्व के अनुसार पाठ क्रम:
सही अर्थ में गीता के तत्व और प्रयोजन को जानने के लिए अध्ययन इस क्रम में किया जाना चाहिए। इस क्रम में भगवद्गीता के ज्ञाता अथवा गुरु और उनके अभाव में टीका , व्याख्या की सहायता से अर्थ ज्ञान प्राप्त करने ( श्रवण – मनन – निधि ध्यासन) का प्रयास वांछनीय है:
इस क्रम के कारण को गुरु समझाता है तथा जिज्ञासु को आत्म ज्ञान तथा मोक्ष के पथ पर ले चलता है। ये पुस्तकों में लिखित नहीं मिल पाता है। आरम्भ विषाद से होता है और अंत मोक्ष में होता है।
तो सबसे पहले युद्ध और व्यक्ति का विषाद, फिर कर्म की चेतना , फिर कर्मसन्यास, फिर ज्ञान-विज्ञान फिर राजविद्या राजगुह्य की महिमा, पश्चात विश्वरूप दर्शन, फिर क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का विभाग, पुरुषोत्तम का ज्ञान,उसके पश्चात परमात्मा के प्रति श्रद्धा के तीन विभाग।
ऐसे पहले स्थितप्रज्ञ, फिर ब्रह्म की उपासना, फिर आत्म संयम योग, फिर आत्मा से ऊपर का अक्षर ब्रह्म का ज्ञान, फिर सर्वत्र ब्रह्म दर्शन ( विभूति योग) । उसके पश्चात भक्ति घटित होती है जिससे गुणत्रय से व्यक्ति अतीत होता है, फिर दैवी सम्पदा को प्राप्त करके मोक्ष सन्यास की प्राप्ति होती है। मोक्ष से पहले क्या है तो दैवी सम्पदा है , इस माया को अतीत करके मोक्ष की प्राप्ति है। उससे पहले गुणातीत अवस्था है। गुणातीत अवस्था से पहले भक्ति है। उससे पहले ब्रह्म दर्शन है, उससे पहले अक्षर ब्रह्म को जानना है, उससे पहले आत्म संयम है। उसकी आवश्यकता क्यों है क्योंकि ब्रह्म की उपासना है फिर उस उपासना के लिए आदर्श स्थितप्रज्ञ होना है ( सांख्य योग)।
अब मन में ये प्रश्न उठता है कि पाठबद्ध व्यास जी ने किया तो उसी क्रम से पढा जाना चाहिए। यहां समझने का विषय है कि आर्ष ग्रन्थ सूत्र रूपी होते हैं अर्थात कुछ व्यक्त होता है और कुछ अव्यक्त होता है और वह गुरू की चेष्टा से व जिज्ञासु की पात्रता से घटित होता है।अर्थ-क्रम से अध्ययन और उसका चित्त में धारण वास्तव में जिज्ञासु के आत्म विकास की यात्रा है। जिसकी परिणति मोक्ष में होकर भगवद्गीता का प्रयोजन सिद्ध होता है।
जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा ( संजय का) मत है॥
दूसरा पक्ष – अनुबन्ध चतुष्ट्य से गीता अध्ययन
व्यक्ति इस विधि से ही क्यों पढ़े? इस प्रश्न का उत्तर इस पक्ष से मिलता है। विषय, अधिकारी, सम्बन्ध, प्रयोजन – किसी बात को जानने के लिए ये चार मुख्य अनुबन्ध चतुष्टय कहलाते हैं । इन सब के मूल में है जिज्ञासा ।
गीता को पढ़ने की उत्सुकता का आरम्भ हमारे निजी स्वार्थ से होता है – गीता मेरी सहायता कैसे कर सकती है / गीता से मैं कैसे अधिक सफल हो सकता/ सकती हूँ ? गीता को जानना, पढ़ना शरीर के स्तर से होता है, पर कहने वाला गुरु शरीर से ऊपर होना चाहिए तभी तो वो शरीर से ऊपर की बात बता पायेगा। इसलिए जो भाष्य है, व्याख्या है , उसके अध्ययन की ये एक रीति है जो गुरु/ विद्वान के मार्गदर्शन में पालन करी जाती है। गीता है या दर्शन शास्त्र है, उसे पढ़ने या पढ़ाने की एक रीति आयी है वो रीति से पढेंगे तो वास्तविक अर्थ को जान पायेंगे, प्रयोजन को जान पायेंगे, उसके अधिकारी को जान पायेंगे, उसके सम्बन्ध को जान पायेंगे और इसके विषय को जान पायेंगे।
निरन्तरता, दीर्घकालिता और सत्कार के अभ्यास गुण तब तक नहीं आयेंगे जब तक व्यक्ति को प्यास नहीं लगेगी, उसे जिज्ञासा नहीं होगी। इसके लिए ब्रह्म सूत्र में बताया है कि सबसे पहले जिज्ञासा अर्थात् ब्रह्म जिज्ञासा आवश्यक है। जब तक जिज्ञासा नहीं तब तक आगे बढ़ना नहीं होगा। स्वाध्याय से ही आगे बढ़ेंगे तो कितने प्रश्न तो उठेंगे ही नहीं ।
अब जिज्ञासा कैसे आयेगी? जिज्ञासा वातावरण से आयेगी। तो वातावरण तैयार किया जाना चाहिये। भले ही गीता केकितने कोर्स कर लें, लेकिन वातावरण नहीं तो जिज्ञासा लगाना कठिन है। ये सर्वप्रथम है। ये व्यक्ति कई प्रकार से कर सकता है। नियमित पाठ करना इसका प्रभावशाली साधन है, उसे सत्संगति में करना और भी अच्छा।
अनुबन्ध चतुष्ट्य में पहला है विषय – विषय क्या है?जैसे विषय है ब्रह्म का प्रतिपादन करना , यदि ग्रन्थ में वो बात न आये तो वह ग्रन्थ उस विषय का नहीं कहा जायेगा।
दूसरा है विषय का अधिकारी अर्थात उसे ग्रहण करने के लिए कौन है? यहाँ जिज्ञासु अधिकारी है !
यदि कोई जिज्ञासु नहीं है तो स्पष्ट है कि वो नहीं ही समझ पायेगा। जब जिज्ञासा होती है तभी उसे पता चलता है इससे क्या होगा! जो अधिकारी नहीं है वो गीता समझ भी लेगा तो उसे प्रश्न आयेगा कि ये बात तो मैने जान ली लेकिन उससे क्या अन्तर पड़ा? इसे जानकर क्या होगा? पूरा भाष्य भी पढ लिया .जाये या गीता विद्यालय पाठ्यक्रम में भी आ जाये तो उसका अर्थ सब नहीं पढ सकेंगे क्योकि गीता को कोर्स में लाया जा सकता है, सबको अधिकारी नहीं बनाया जा सकता। शिक्षक भी पढ़ लेगा तो उसके मन में प्रश्न आयेगा कि मैंने पूरी गीता भी पढ ली किन्तु उससे मुझे क्या लाभ हुआ? जिज्ञासु होता तो उसे जो मिलता उसके बाद ये प्रश्न नहीं आता कि मुझे क्या मिला! भूखे को भोजन जाये तो वो सोचता है कितना अच्छा हो गया भोजन मिल गया। उसे बहुत महत्व की वस्तु मिली लगती है। उसके पास कुछ धन-सम्पत्ति नहीं है। किन्तु भूखे के पास तृप्ति है और ये जो तृप्ति है, वह भूख के कारण है, भोजन के कारण नहीं है। ऐसे ही जिज्ञासु को गीता के अध्ययन से जो प्राप्त होता है वह गीता के पढ़ने के कारण नहीं उसकी जिज्ञासा के कारण है।
अपने स्तर पर व्यक्ति कैसे पता लगा सकता है कि उसे केवल उत्सुकता है या जिज्ञासा है ? उसके प्रश्न पूछने से, विषय की, सीखने की तीव्रता से पता चलता है कि उसे जिज्ञासा है अथवा केवल उत्सुकता । उसे किस विषय में रस है? जैसे अध्यात्म में रस है तो उसे अध्यात्म की तत्व की जिज्ञासा है । लेकिन राजनीति में अथवा व्यवहारिकता में अथवा बाह्य वस्तुओं में रस है तो पता चलता है ये जिज्ञासा नहीं केवल उसकी उत्सुकता है। कुछ नया जानने की उत्सुकता स्वाभाविक होती है। जो हर किसी में हो सकती है। जिज्ञासा एक स्तर पर जाकर होती है, सबको नहीं होती है।
विषय, अधिकारी, फिर दोनों को सम्बन्ध – ग्रन्थ और विषय का, ग्रन्थ और अधिकारी का – जब तक नहीं बनता है तब तक वो पूर्णता नहीं आती है। विषय और ग्रन्थ का सम्बन्ध होना चाहिये। ऐसे ही ग्रन्थ और अधिकारी का सम्बन्ध होना चाहिये। जो कही गयी अधिकारिता रखता है वो अधिकारी है । गीता के सम्बन्ध में जिज्ञासु अधिकारी है। जिज्ञासा कब आती है? “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवये ” – प्रणिप्रात परिप्रश्न सेवा ये तीन जो करे वो अधिकारी है, अधिकारी को ज्ञान घटित होगा। जैसे आहार लेने के बाद रक्त बन जाता है ऐसा नहीं है। आहार लेने के बाद जो प्रकिया होती है (आहार को रस, रस के रक्त में परिवर्तित करने की ) वो होनी चाहिए, उससे रक्त बनता है केवल आहार से नहीं। केवल गीता सीखने की तैयारी से गीता नहीं आ जायेगी।
अधिकार प्राप्त करने के लिए क्या करना है? उसके लिए व्यक्ति को प्रयोजन सिद्ध करना है।उसका क्या प्रयोजन है? गीता का प्रयोजन क्या है, वह किस उद्देश्य से कही गयी? वो बनाई एक उद्देश्य से गयी – अर्जुन को सत्य और धर्म का भान करा कर युद्ध को सन्नद्ध करने के लिए, किन्तु प्रयोजन अलग ही था – मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति तक ले जाना। गीता का उपयोग यदि अलग रीति से हो तो वो प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।
प्रयोजन यदि लौकिक है तो अध्यात्म ग्रन्थ का प्रयोजन चरित्रार्थ नहीं होता। लौकिक स्तर पर बहुत से स्थानो पर गीता बहुत सहायता करती है, ऐसे में ये समझ लेना है कि यह गीता का प्रयोजन नहीं है, उसका बाय- प्रोडक्ट है। बाय- प्रोडक्ट का प्रयोजन है कि उसका उपयोग ऐसा भी हो सकता है – जैसे अपने जीविका कमाने के क्षेत्र में गीता के माध्यम से कैसे सफल हों? ये गीता का प्रयोजन नहीं है।
गीता किस प्रयोजन से कही गयी ? तो विषाद से आरम्भ कर मोक्ष तक की यात्रा में जितने पड़ाव है, उनसे होते हुए मोक्ष कर्म या गुणातीत अवस्था को प्राप्त करना। जैसे-विषाद के बाद कर्म का पड़ाव है। कर्म के बाद कर्म सन्यास का पड़ाव है। वो अवस्था जब व्यक्ति कर्म विहीन हो सकता है, कर्म के बाद ज्ञान और विज्ञान की स्थिति आती है तो ज्ञान घटित होता है। ये ज्ञान केवल ज्ञान है, सूचना है या विद्या है? कहते हैं वो विद्या है और वो भी राज विद्या है तो राजविद्या- राजगुह्य योग की स्थिति आती है। राजविद्या घटित हो जाने पर विश्व का यथार्थ दर्शन होता है तो विश्व रूप दर्शन की स्थिति होती है। विश्वरूप दर्शन होने पर भक्ति घटित होती है । इस प्रकार आगे जाते हैं (ऊपर दिये अर्थ क्रम के अनुसार ) और अंततः मोक्ष की स्थिति या गुणातीत अवस्था प्राप्त होती है। व्यक्ति को गीता का यह प्रयोजन सिद्ध करना है, अन्य तो छोटे छोटे प्रयोजन हैं।
इस प्रकार अनुबन्ध चतुष्ट्य के माध्यम से पहले पक्ष में बतायी विधि का कारण स्पष्ट होता है।आधुनिक समय में गीता की सरल सुलभ पहुँच के लिए किये गये प्रयास इसी श्रेणी में आते हैं। किन्तु वह अनुबन्ध चतुष्ट्य का पालन नहीं करते हैं। ऐसे में पढ़ते तो सब है किन्तु आगे कम ही बढ़ पाते है। गीता और व्यक्ति का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए लोगों को ऊपर नहीं उठा सकते हैं तो गीता को नीचे ले आते हैं। गुरु परम्परा में व्यक्ति को ऊपर उठाने की विधि है, गीता को नीचे लाने की विधि नहीं है। गीता अपने स्तर पर है, उस तक व्यक्ति को जाना है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
कार्य पुरुषार्थ से उद्यम करने से ही सिद्ध होते है, केवल इच्छा करने से नहीं I जैसे सोते हुए सिंह के मुख में हिरन स्वयं प्रवेश नहीं करते।
आभार:
संस्कृति आर्य गुरुकुलम् के आचार्य मेहुलभाई’ गुरुपरंपरा से शिक्षित दीक्षित गीता-दर्शन शास्त्री तथा षड्दर्शन शास्त्री हैं। उनकी ज्ञानप्राप्ति वाराणासी के ऋषितुल्य पं विश्वनाथ शास्त्री दातार जी से हुई है। इस लेख में प्रस्तुत विधि आचार्य जी द्वारा उद्घाटित है तथा उनकी अनुमति से लेखिका द्वारा यहाँ सार्वजनिक करी गयी है।
यह लेख इंडिका टुडे पोर्टल पर भी प्रकाशित किया गया है। इसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है: https://www.indica.today/bharatiya-languages/hindi/effective-method-of-bhagavad-gita-study-how-to-read-bhagavad-gita/
सूर्य ग्रहण में क्या- क्या घटनाएँ होती हैं, सूर्य ग्रहण के समय क्या-क्या परिवर्तन होते है और क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए ?
सूर्य ग्रहण एक खगोलीय घटना है। सूर्य ग्रहण का भारतीय इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। वेदों (ऋग्वेद) में अत्रि मुनि ने सूर्य ग्रहण पर सबसे पहले बात करी । अत्रि और स्वरभानु की एक कथा भी आती है। उस कथा में सहसा सूर्य का आच्छादन हो जाने से, अंधेरा हो जाता है और स्वरभानु उसे दैवी प्रकोप बताता है और ये जिसका कारण वह अत्रि मुनि को बताता है, तब अत्रि उसकी गिनती करके बताते हैं कि ये कोई दैवी प्रकोप नहीं है अपितु एक खगोलीय घटना (Cosmic event) है। अत्रि मुनि ने बताया कि ऐसी ही खगोलीय घटना इस दिन इस समय पुनः होगी और बताए गये दिन समय पर वह हुई। तब से ग्रहण का गणित अस्तित्व में आया। या ग्रहण के गणित की खोज की गई, ऐसा हम बता सकते हैं। ये कई सहस्र वर्ष पुरानी घटना है। सबसे पहले भारत ने ये जाना की ग्रहों की गति की गिनती करके खगोलीय घटनाओं को बताया जा सकता है। पहले से यह पता चल सकता है कि कब सूर्य का ग्रहण होगा।
सूर्य ग्रहण में क्या- क्या घटनाएँ होती हैं, सूर्य ग्रहण के समय क्या-क्या परिवर्तन होते है और क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए ?
सूर्य का ग्रहण होना अर्थात सूर्य का आच्छादित हो जाना, ढक जाना। सूर्य जब आच्छादित हो जाता है तो उसकी किरणें पृथ्वी पर भली प्रकार से नहीं आती हैं, जिस प्रकार आनी चाहिएँ। उस अवस्था को हम ग्रहण कहते हैं। ध्यातव्य: सूर्य ग्रहण अमावस्या को ही होता है और चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को, अन्य किसी तिथि को नहीं होता है। यह पूर्ण तथा सहस्त्रो वर्ष प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान है। कब ग्रहण होगा, कब छूटेगा ये पूरी वैज्ञानिक व गणितीय गणना उपलब्ध है। ये अन्धश्रद्धा न होकर प्रामाणिक हैं। सूर्य ग्रहण वर्ष में कम से कम एक बार या अधिक से अधिक सात बार हो सकता है।
विचारणीयः स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से पूछें ,जो ग्रहण या eclipse के बारे में पढ चुके हैं, कि उन्हें ये बात पता है या याद है तो अधिकतर का उत्तर “ना ” में होगा। भारतीय शिक्षा पद्धति से विधार्थियों को जब खगोल पढ़ाया जाता है तो यह सब विस्तार से समझाया जाता है।
ज्योतिष तथा खगोल शास्त्र के ग्रन्थों में इसका वितरित वर्णन है। वाराहमिहिर रचित बृहत्संहिता में राहुचाराध्याय ग्रहण के कई पक्षों को बताता है। उसी प्रकार अथर्ववेद संहिता विभिन्न कीटाणुओं जन्तुओं के उत्पत्ति संक्रमण आदि का वर्णन करती हैं। धर्मशास्त्र में ग्रहण के समय पालन करने के नियम-विधि का वर्णन है।सूर्य ग्रहण कभी कभी दीपावली के दिन या किसी विशेष दिन की अमावस्या पर होता है तो उसके विशेष प्रभाव होते हैं। सूर्य ग्रहण की एक अवधि होती है ( duration) । वह सारे समय भारत में दिखे ये आवश्यक नहीं। जब वो भारत में दिखता है तब ये नियम पालन करने होते हैं। जब किसी अन्य स्थान पर है तो पालन करने की आवश्यकता नहीं होती है।
सूर्य ग्रहण की तीन अवस्थाएँ होती हैं वेध, स्पर्श, मोक्ष ।
01 | वेध सूर्य ग्रहण के समय से 12 घंटे पहले वेध काल आरंभ हो जाता है। इसी को हम स्थानीय भाषा में ग्रहण का सूतक लगना कहते हैं। चन्द्र ग्रहण पर यह छह घण्टे पहले आरंभ हो जाता है। बारह घण्टे पहले से उसका प्रभाव आरम्भ होता है इसलिए जो स्वस्थ रहना चाहता है, मानने को इच्छुक है उसके लिए वेध काल में ये नियम बताए हैं :
भोजन करना बन्द कर दें
पानी वाली वस्तुएँ लेना बन्द कर दें।
कुछ न खाएँ तो उत्तम है यदि कुछ खाना भी पडे तो फल खाएँ पानी वाली चीजें न खाएँ ये ग्रहण के नियमों में बताया है।
मन्त्र का जप करें।
किसी भी मन्त्र जाप का एक सहस्त्र गुणा प्रभाव होता है, अनन्त गुणा फल मिलता है ऐसा भी बताया है । कोई भी मन्त्र का जाप कर सकते है। विशेष जो सिद्धियाँ है या विशेष निमित्त हेतु के लिए किया जाता है उसके लिए अलग अलग मन्त्र बताए गये हैं। विद्वान या पण्डित से उसकी जानकारी ली जा सकती है।
मल मूत्र का त्याग कर के निवृत्त रहें।
वेध आरम्भ होने के बाद बाहर न निकलें ।
ग्रहण के समय शरीर पर बहुत सारे परिवर्तन होते हैं। उस समय शरीर को आराम दें तो उत्तम होता है। पानी न पिएँ, पीना भी पड़े तो उबाल के ठण्डा किया हुआ पानी पिएँ वो भी बहुत थोड़ी मात्रा में । खाने पीने के सब नियम साधारण नियम हैं। ये नियम बालकों के लिए,गर्भवती महिलाओं के लिए, वृद्धों के लिए या रोगियों के लिए नहीं हैं । ये सब यथेष्ट खा पी सकते हैं क्योंकि न खाने पर दुर्बलता आ सकती है या रोग हो सकते हैं, अतः ये सब नियम के अपवाद है।
पृथ्वी की भौगोलिक स्थितिः सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण कम हो जाता है। सूर्य का प्रभाव पृथ्वी पर कम होता है इसलिए पृथ्वी का गुरुत्व कम हो जाता है। गुरुत्वाकर्षण कम हो जाने पर अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे हम रात्रि में देखते हैं कि कई जीव जन्तु उत्पन्न या सक्रिय हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से वह चले जाते है इसी लिए हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु में जब सूर्य मेघों से आच्छादित रहता है, ढका रहता है तब अनेक प्रकार के जीव जन्तु कीट विषाणु हो जाते हैं। वही घटना होती है जब सूर्य विशेष रूप से आच्छादित होता है अर्थात् ग्रहण के समय! तब बहुत प्रकार के न दिखने वाले जन्तु उत्पन्न होते हैं। वो उत्पन्न होकर भोज्य पदार्थो पर खाने पीने की वस्तुओं पर प्रभाव डालते हैं विशेष रूप से पानी पर । जो भी पानी वाले भोज्य पदार्थ है, जो हम अन्न पकाकर खाते हैं या जो processed food है , उन सब पर उसका विशेष असर होता है। भोजन यदि बचा है तो या तो किसी को खिला दें या डाल दें अथवा जाने दें। ग्रहण के बाद नया पकाकर खाएं। घर में पानी है, दूध आदि हैं तो उसने दर्भ, तुलसी इत्यादि जिन वनस्पतियोंमें anti- bacterial गुण हैं उन्हें डाल कर रखें। ग्रहण में विशेष रूप से पानी संक्रमित होता है। कोरोना ने हम सब को भली भाँति बता दिया है कि बाल से भी हजार गुना सूक्ष्म जीव कैसे घातक या विनाशकारी हो सकता है। हमारे ऋषि-मुनियो ने सहस्रों वर्षो पहले से बताया है कि इस काल में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण कम हो जाने से घातक जीव-जन्तु उत्पन्न होते हैं। इसलिए सभी पकी हुई खाद्य सामग्री वेध लगने से ही निकाल दें।
02 | स्पर्श (ग्रहण का समय): यह मुख्य काल है। इस समय:
भोजन न करें
पानी न पियें
बाहर (सूर्य प्रकाश में) न निकले। घूमें नहीं
स्नान कर शरीर को स्वच्छ रखें
मन्त्र जप, ध्यान करें
इस समय आच्छादित सूर्य होता है। इस समय इसका खगोलीय प्रभाव हम पर बहुत अधिक होता है तो कम से कम उस समय बाहर न निकलें।
03 | मोक्ष : सूर्य ग्रहण का समय बीतने पर अवस्था आती है मोक्ष की! अर्थात् ग्रहण के समाप्त हो जाने के बाद का समय। इस अवस्था में:
स्नान करें
दान करें
आनन्द करें
मोक्ष समय आनन्द क्यों होता है? जब-जब पृथ्वी पर विनाश हुआ, प्रलय आयी उस समय ऐसी ही खगोलीय घटनाएँ हुईं।तो जब जब पृथ्वी पर बड़ी प्रलय की अवस्था आयी तब तब पृथ्वी से गुरुत्व कम हो जाता है (भारतीय दर्शन की दृष्टि से) । सूर्य ग्रहण के समय ऐसी ही विनाशकारी घटनाओं की प्रलय की संभावना रहती है।इसलिए यदि हम घूमते फिरते हैं तो हमारे मस्तिष्क में राजस विचार होते हैं। जब हम ध्यान मन्त्रजप इत्यादि करते हैं तो हमारे विचार सात्विक होते हैं। यदि ऐसे समय संभावना भी मान लें कि प्रलय हो जाए तो – ” यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्गावभावितः॥” ऐसा गीता में बताया है कि अंत समय में जैसे भाव में व्यक्ति जाता है उसी समय का भाव का अगला जन्म हमको मिलता है। तो उत्तम भाव में रहने का, जप मन्त्र करने का इसलिए विधान किया गया है। यदि प्रलय हो जाए तो हम अच्छे भाव में जाएँ।अब जब मोक्ष काल आता है तो प्रलय या विनाशकारी घटना की संभावना समाप्त हो जाती है ग्रहण मोक्ष हो जाने पर पृथ्वी बहुत बड़ी आपति से छूट जाती है। पृथ्वी को हम माता मानते हैं। पृथ्वी बड़ी आपत्ति से बच गई इसलिए आनन्द मनाने का, दान करने का, उल्लास करने का विधान है। मोक्ष होने के बाद नया पानी भरते है, भोजन पका कर खाते हैं । यदि मोक्ष रात्रि में होता है तो यह सब कार्य अगले दिन प्रातः किया जाता है।
ये सब वैज्ञानिक , खगोलीय तथा स्वास्थ्य-आयुर्वेद से सम्बन्धित तर्क है ग्रहण के पीछे ! बताने का उद्देश्य – ग्रहण की तीनों अवस्थाओं के समय इन नियमों का, दिए विधानों का पालन करें,ध्यान आदि करें। औषधि ले सकते हैं; पानी वाली वस्तुएँ न लें, बाहर की खाने की वस्तुएँ न लें, अन्य कोई विशेष आहार न लें, आवश्यक हो तो फलाहार ले ; गर्भवती, बालक, वृद्ध अथवा रोगी यथेष्ट आहार ले सकते हैं।
ध्यान मन्त्र जप आदि का कई गुना प्रभाव भी गुरुत्वाकर्षण से संबंधित ऊर्जा विज्ञान के कारण है। स्वरभानु नाम रूपक पर भी मनन करेंगे तो ध्वनि तरंगों तथा electromagnetic waves के गुरुत्वाकर्षण से संबंध का विज्ञान उद्घाटित होगा। कदाचित् मन्त्र साधना का ग्रहण के समय सहस्र गुना अधिक प्रभाव का कारण भी उद्घाटित हो जाए। 🙂
मन्त्र प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण किसी अन्य अवसर पर प्रस्तुत करेंगे।
(ऊपर प्रस्तुत विवरण मेहुलभाई आचार्य जी से प्राप्त है )
वरदराज पेरूमाल कोविल दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था और विष्णु स्तुति गायी थीं। यह मंदिर कुछ 1100 वर्ष पुराना है। इसे प्रसिद्ध चोल राजा राज राजा प्रथम ने बनवाया था। बाद के समय में चोल राजाओं कुलोत्तुंग प्रथम और विक्रम चोला ने इसमें विस्तार किए।
मंदिर के पीछे की ओर से मूलवर सन्निधि का शिखर (पुण्यकोटि विमानम)! इस शिखर पर नरसिंह शीर्ष दिखता है। प्रवेशद्वार से भीतरी प्रांगण का दृश्य, जिसमें दो मण्डप और उसके पश्चात् ध्वज स्तंभ स्थित है। ध्वज स्तंभ के दाईं ओर अन्न क्षेत्र और बाईं ओर पवित्र पुष्करणी स्थित है। और यह है मंदिर की पुष्करणी जिसके कारण यह एक तीर्थस्थल कहलाता है।
वरदराज पेरूमल यानि वर देने वाले विष्णु ! जिनका नौ फ़ीट का अंजीर की लकड़ी का बना विग्रह इस पुष्करिणी में सदा जलमग्न विराजमान रहता है और हर 40 वर्ष में एक बार जल से बाहर आता है, भक्तों के दर्शन हेतु! इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्व कर्मा द्वारा किया बताया जाता है।
इस स्थान में मूर्ति जलमग्न रहती है।
सोलहवीं शताब्दी तक यह गर्भग्रह में विद्यमान और पूजित थी। परंतु मुसलमान आक्रांताओं के बढ़ते हमलों के कारण अर्चकों ने उसे चांदी की पेटिका (casket) में सुरक्षित कर इस पुष्करणी में छिपा दिया और इसकी जानकारी गुप्त रखी। 1709 में पुष्करणी की सफाई में यह उद्घाटित हुआ। तब से यह परंपरा स्थापित हुई कि प्रत्येक चालीस वर्ष के बाद यह मूर्ति जल से निकाली जाती है और 48 दिनों तक भक्तों के दर्शन के लिए रखी जाती है। इसकी पौराणिक कथा गूगल पर सरलता से उपलब्ध है। कहते हैं कि ब्रह्मा जी द्वारा किये जा रहे यज्ञ की सरस्वती रूपी वेगवती नदी के जल प्रकोप से रक्षा के लिए स्वयं विष्णु यहां बाड़ की तरह लेट गये थे।
मुख्य दर्शन वीथिका
बारह स्तंभों की इस वीथिका की शोभा देखते ही बनती है। यहां विष्णु के उत्सव विग्रह श्री देवी तथा भू देवी के साथ विराजमान हैं। भारत भर से दर्शनार्थी यहां दर्शन के लिए आते हैं। किन्तु स्थानीय मूलनिवासी वैष्णव अपनी आभा और निष्ठा के कारण सहज ही पहचान में आ जाते हैं।
पेरूमाल(विष्णु) के उत्सव विग्रह के बायीं ओर ये छोटा आ प्रांगण है जिसके बायीं ओर तायार पेरुनदेवी की सन्निधि है। ये मण्डप शायद तायार के उत्सव विग्रह के लिये हो!
जालीदार स्तंभ
इन जालीदार स्तंभों की शिल्पकारी चकित करती है। इतनी सूक्ष्मता से आकार और अनुपात का ध्यान रख, एक ही पत्थर को पूर्ण रूप से सही तराशा है।
अंदर की ओर से मण्डप की छत
केवल स्तंभ ही नहीं, इस मण्डप की छत भी विस्मित करती है। अच्छी बात यह है की जीर्णोद्धार के समय सामायिक चटक रंगों का प्रयोग ना करके प्राकृतिक रंगों की सहायता से इन्हें संरक्षित किया गया है।
तायार पेरून देवी की सन्निधि में उनके दर्शन में एक प्रकार की शीतलता का अनुभव होता है। परिक्रमा करते समय पीछे की ओर से शिखर का स्वर्ण आच्छादित शिखर बहुत सुन्दर दिखता है। तायार अर्थात् मां। मन्दिर के मुख्य देव की पत्नी का एक मां के रूप में स्वतंत्र सन्निधि रहती है। इस मंदिर में विष्णु पत्नी लक्ष्मी पेरुन देवी के रूप में विद्यमान हैं।मूल विग्रह के बारे में पूछने पर मुख्य मण्डप वीथिका के पीछे की ओर स्थिति सन्निधि में जाने को कहा जाता है। मूलवर नरसिंह की सन्निधि में पंद्रह स्तंभों में से एक पर यह रूप उकेरा हुआ है। विग्रह का रूप कुछ इसी तरह है। यहां उग्र नरसिंह अथवा योगी नरसिंह का विग्रह स्थापित है।और ये है प्रसिद्ध सौ स्तंभों वाला मण्डप!
चोल कला का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता यह शत -स्तंभ मण्डप पुष्करणी के बाईं ओर स्थित है। प्रत्येक स्तंभ एक भिन्न कथा और देव को प्रस्तुत करता है। भारतीय शिल्प जिज्ञासु और इतिहासकार यहां कितने ही दिन बिता सकते हैं। यह मण्डप विजय नगर के राजाओं द्वारा बनवाया बताया जाता है।
कठोर पाषाण में तराश कर बनाई इन कलाकृतियों की सूक्ष्मता और निपुणता देख बरबस ही शिल्प कार के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। योद्धा के शस्त्र, घोड़े की लगाम, अश्व के पैरों के नीचे आए शत्रु की अवस्था, सह कुछ स्पष्ट है।
कल्याण मण्डप
इस मण्डप वेदी पर प्रति वर्ष वसंत के समय श्री विष्णु का विवाह पेरून देवी से होता है। सुनने में आया उत्सव भव्य होता है।
स्तंभ पर उकेरे आञ्जनेय (हनुमान)!योगी नरसिंह
शत -स्तंभ मण्डप से दिख रही इस दिव्य पुष्करिणी की दिव्यता चित्र में नहीं बांधी जा सकती । श्री विष्णु से प्रार्थना है कि वह अपना वरदहस्त सदा भक्तों के शीश पर रखें और उन्हें दर्शनलाभ दें!
जो व्यक्ति ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।
वर्षा ऋतु का आगमन हो चुका है। आषाढ़ और सावन मास में वर्षा ऋतु का काल होता है। प्रत्येक ऋतु का काल अलग होता है, उस समय वातावरण की स्थिति अलग होती है और उसी प्रकार हमारे शरीर में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ की स्थिति भी ऋतु के साथ बदलती है। भाव प्रकाश में भाव मिश्र बताते हैं:
– जिस समय दोषों की वृद्धि, कोप तथा शमन हुआ करता है, उस समय को ऋतु कहते हैं।
ऐसे में सामान्य प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि इस ऋतु में आहार विहार कैसा होना चाहिए?
वर्षा ऋतु वात यानि वायु के प्रकोप का काल है। इस ऋतु में मंद अग्नि होती है जिसका हमारी पाचन क्रिया पर सीधा असर पड़ता है। यह ऋतु प्रजनन प्रक्रिया के आरंभ होने का भी काल है। जीवाणु, कीट सृष्टि की उत्पत्ति का काल है। यह एकमुख्य कारण है कि इस ऋतु में भारत में लोकाचार और परम्पराएं भी इस प्रकार से रची हैं कि सब ऋतु अनुकुल आहार विहार करें। जैसे –
मांसकासेवननकरना – मांस के सेवन के लिए किसी पशु -पक्षी के जीवन का अंत किया जायेगा। क्योंकि प्राकृतिक रूप से यह पशु- सृष्टि की प्रजनन प्रक्रिया का काल है तो शिकार/आखेट से इस प्रक्रिया में, सृष्टि की उन्नति के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है, अतः इस कार्य को ही इस ऋतु में निषिद्ध कर दिया जाता है।
हरीसब्जी, प्याज, फलविशेषकात्याग – वर्षा ऋतु में इनमें कीट-जीवाणु की उत्पत्ति अधिक होती है। ऐसा मुख्यतः वातावरण में अधिक नमी होने के कारण होता है। इन्हें त्यागने से इन्हें खाने की तथा इनके माध्यम से कीट-विषाणु खा लिए जाने की संभावना समाप्त हो जाती है तथा रोग होने से बच जाते हैं।
यात्रानकरनाऔरग्रंथअध्ययनकरना – वर्षा होने के कारण और अधिकतर जगहों पर कच्चा जल उपलब्ध होने के कारण प्रवास यात्रा में कठिनाई होती है और जल के कारण उदर रोगों की संभावना बहुत बढ़ जाती है, अतः एक ही स्थान पर रहने का प्रावधान किया जाता है और समय का सदुपयोग हो इसलिए सम्यक वातावरण के तापमान में ग्रंथ अध्ययन का विधान रहता है।
इस ऋतु में कैसा आहार विहार करना चाहिए ?
नमकीन, खट्टा/अम्ल रस वाला , चिकना, हल्का और मधुर आहार लें। कब्ज़ न होने दें। जठराग्नि का विशेष ध्यान रखें। नया पानी और नए साकभाजी त्याग दें और साधारण श्रम करें। संयमी रहें, विशेष व्यायाम न करें। वायुकारी आहार न लें।
गुरुजी (आचार्य मेहुल भाई) वर्षा ऋतु में आहार -विहार के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते हैं:
शरीर व आत्मा दोनों का आरोग्य अच्छा रहना चाहिए। दोनों की पुष्टि हो, शरीर आत्मा को ना भूले और आत्मा शरीर को ना भूले यानी ऐसे में हम शरीर व आत्मा दोनों का विचार करें। संस्कृति आर्य गुरुकुलम् एकमात्र ऐसी संस्था है जो दोनों को साथ में रखकर चलती है। यह एकमात्र ऐसा गुरुकुल है जिसने आयुर्वेद तथा आध्यात्म – दोनों क्षेत्रों में अग्रगण्य प्रदान किया है। वर्षा ऋतु में आहार इसके दूसरे छोर यानी शरीर के विषय का प्रश्न है। आयुर्वेद आषाढ़ व श्रावण मास में विशेष जिन वस्तु के सेवन करने की बात बताता है वह इस प्रकार है :
१) अदरक : आषाढ़ मास में अग्नि मंद होती है या मन्दाग्नि होती है। यानि मेटाबॉलिज्म तथा डाइजेस्टिव एसिड्स निम्न होते हैं। अदरक अग्नि को प्रदीप्त करता है इसलिए भोजन से पहले से अदरक खाने से मंद अग्नि बढ़ती है। अतः पूरे आषाढ़ में और सावन में अदरक का सेवन करें। यदि किसी प्रकार का धार्मिक परहेज है तो सौंठ का भी सेवन पर सकते हैं।
लाभ :
अदरक खाने से अग्नि मंद नहीं होगी, प्रदीप्त रहेगी जिसके फलस्वरूप अच्छा पाचन होगा, भूख लगेगी।
वायु का अनुलोमन होगा। वायु का अनुलोमन करने से शरीर में वायु नहीं बढ़ेगा। वात संबंधी रोग नहीं होंगे।
अदरक पुराने आम यानी कच्चे रस का पाचन करता है।
अदरक या सौंठ सुबह या शाम, किसी भी समय ले सकते हैं।अदरक के टुकडे पानी में भिगो कर या नमक के साथ सेवन करें। यदि सोंठ ले रहे हैं तो आधा चम्मच सुबह या शाम किसी भी समय ले सकते हैं।
२) एरंड का तेल ( कैस्टर ऑयल) : एरंड के तेल से वायु का अनुलोमन होता है और स्वास्थ्य अच्छा होता है।
३) तिल तेल: विशेषकर इस ऋतु में लोकाचार में बहुत तली चीजें खाने का प्रचलन है, जैसे पकोड़े भज्जी आदि। इस ऋतु में आप यदि तले पदार्थ खाते हैं तो अच्छा लगता है क्योंकि वर्षा के कारण शरीर रुक्ष हो जाता है और तेल खाने से शरीर को स्निग्धता मिलती है। इस ऋतु में वात बढ़ जाता है जिससे रुक्षता बढ़ जाती है। यदि आप तेल के व्यंजन खाते हैं तो याद रखें इस समय सबसे अच्छा तेल है तिल तेल! चरक सूत्र में बताया गया है “तिल तैलं स्थावरजातानां स्नेहानाम्”, सभी प्रकार के स्थावर स्नेह हैं, उनमें तिल तेल सबसे अच्छा है । अर्थात इस समय जो पूरे शरीर में स्नेहन या ऑइलिंग होनी चाहिए, वह तिल का तेल कर देगा। तो तिल के तेल में बनाई वस्तुओं का सेवन करें।
४) भारी वस्तुएं ना खाएं।
५) दूध का सेवन कम करें।
६) सादा आहार करें।
७) बासी भोजन बिल्कुल ना करें। रात का सुबह दोपहर का रात को ना खाएं इससे पाचन शक्ति मंद हो जाएगी, अग्नि मंद हो जाएगी, ऐसा ना करें।
ऐसा करने से आपका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।
मानसिक स्वास्थ्य के लिए, अध्यात्म की साधना के लिए यह दो महीने बहुत ही अच्छे हैं। इस समय में एक ही स्थान पर रहे अर्थात् भ्रमण यात्रा ना करें। सामान्य रूप से आहार-विहार करें और चिंतन, मनन, ग्रंथ-अध्ययन अधिक से अधिक करें। चातुर्मास आरंभ हो गया है, उसका पूरा लाभ उठाएं और अपना ध्यान रखें।
ऋतुसम्यक आहार-विहार
ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन का आदी होने को ऋतुसात्मय कहते हैं । यदि कोई बाहरी वातावरण में परिवर्तन के अनुसार आहार और जीवन शैली या गतिविधियों को संशोधित (adjust or modify) कर सकता है, तो वह अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण प्राप्त कर सकता है – ऐसा चरक बताते हैं ।
जो व्यक्ति ऋतुसात्मय को, ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, और जिसके आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।
कल की राम मंदिर की सुंदर घटना के समय जो लेख मैं लिख रही थी, वह वैसे तो अपने लिए था, “नोट्स टू सेल्फ” की तरह किंतु मंदिर के अनुभव के बाद लगा कि सबसे साझा करूं। क्योंकि जो उन अम्मा ने अंत में कहा, एक तरह से वही तो विश्लेषण के रूप में मैं लिख रही थी, जब वो आयी थीं।
‘रामात् नास्ति श्रेष्ठ:’ तथा ‘शक्तिक्रीडा जगत सर्वम्’ इन दोनों वाक्यों का संस्कृत भाषा के सन्दर्भ मे एक विशेष आध्यात्मिक संबंध है।
संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है, ये तो हमने कई बार सुना है। इसका बंधारण (व्याकरण) विश्व में सर्वश्रेष्ठ है, जिस कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के क्षेत्र में इसका जड़ों के स्तर पर प्रयोग हो रहा है। किन्तु इस वैज्ञानिकता के साथ-साथ संस्कृत के बंधारण में आध्यात्म और सृष्टि की रचना के चक्र का जो रहस्य बुना है, वह जैसे प्रकट हुआ मन में! उसे ही मैंने शब्द देने का प्रयास किया है।
संस्कृत की वैज्ञानिकता क्या है ?
पहला तो यह शब्दों या मंत्र के रूप में, ध्वनि तरंगों के द्वारा हमारे स्थूल शरीर में जैविक और रासायनिक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है, जो हमारे स्वास्थ्य से और मस्तिष्क की गतिविधि से सीधा सीधा संबंध रखती है। और दूसरा इस के पदों के अर्थ को समझकर उससे, मन में प्रस्तुत-परंतु-प्रायः-सुषुप्त अध्यात्म का विकास भी होता है। संस्कृत मनुष्य को अध्यात्म की ओर उसके जीवन चक्र के लक्ष्य की ओर ले जाती है।
संस्कृत की वैज्ञानिकता में अध्यात्म कैसे बुना है?
“रामात् नास्ति श्रेष्ठ:” इस वाक्य का प्रयोग तीन विषयों में उपमा-संकेत के लिए किया जाता है :
१) मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र और उनके कुशल राजतंत्र (रामराज्य) के कारण
२) आर्युवेद के अध्ययन मे
३) संस्कृत भाषा के अध्ययन , पाठन में
तकनीकी विश्लेषण:
संस्कृत में राम शब्द का परिचय “अकारांत पुल्लिंग राम शब्द” इस प्रकार से दिया जाता है। राम शब्द रम् धातु से बना है। रम् धातु का अर्थ है क्रीडा करना, उसमें घञ् प्रत्यय, उपधावृद्धि होकर- राम- यह कृदंत शब्द सिद्ध हुआ और कृदंत होने से प्रातिपदिक हुआ, अर्थात् अर्थवान हुआ, सार्थक हुआ। सुप् और तिङ् प्रत्याहार में आने वाले प्रत्ययों को विभक्ति कहते हैं। प्रातिपदिक (सार्थक शब्द) को विभक्ति की प्राप्ति होती है, इन दोनों के संयोग से जो परिणाम प्राप्त हुआ उसे पद कहते हैं।
विभक्तियाँ सात होती हैं जिन्हें हम क्रमशः प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी (तथा संबोधन) कहते हैं। इनके नाम क्रमशः कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध अधिकरण तथा संबोधन हैं।
आध्यात्मिक विश्लेषण:
राम का अर्थ है “रमन्ते योगिनोऽस्मिन्” – योगी जिसने रमण करते हैं, यानि परम तत्व या ईश्वर। ‘शक्ति क्रीडा जगत् सर्वम्’ का अर्थ है यह सारा जगत शक्ति का खेल है अर्थात् माया चक्र है जिसमें सब जीव क्रीडा का भाग हैं। राम प्रातिपदिक अर्थात् सार्थक है, परम तत्व है जिसमें योगी रमण करते हैं। सार्थक को (परम तत्व को) शक्ति से विभक्ति की प्राप्ति हुई। विभक्ति अर्थात विभाजन। यह विभाजन शक्ति के द्वारा हुआ, शक्ति अर्थात् वह क्रीडा(माया) जिसमें योगी रमण करते हैं। तो राम शक्ति (प्रकृति) से विभक्त होकर सात रूपों में सिद्ध हैं, जो सात विभक्तियाँ हैं। राम ही कर्ता हैं; राम ही कर्म हैं; राम ही करण हैं साधन हैं, उनके ही द्वारा सब कुछ है; राम संप्रदान हैं अर्थात् सब कुछ राम के लिए है; राम से अलग होकर, अपादान कर; राम के ही सम्बन्ध से सब पुनः राम के अधिकरण में, उसके अधिकार में आ जाते हैं और शक्ति क्रीडा का चक्र पूर्ण होता है। जिस नाम को एक बार (एक वचन), एक बार और (द्विवचन), बहुत बार (बहुवचन) पुकारने की इच्छा होती है, संबोधन की विवक्षा होती है, वह है = राम!
सार्थक प्रातिपदिक राम की अर्थात् परम अणु की, शक्ति से कई अणुओं में विभक्ति हुई, किंतु परमाणु फिर भी पूर्ण ही रहा।
यह, वह सब पूर्ण है, पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। पूर्ण में से पूर्ण लेकर भी पूर्ण ही शेष रहता है।
और अंत में, रामरक्षा स्तोत्र के इस छंद में राम के सारे रूप (विभक्तियाँ) एक साथ उपस्थित हैं। विद्यार्थियों, विशेषकर बाल विद्यार्थियों के लिये एक साथ सरलता से सारी विभक्तियाँ स्मरण करने के लिये ये श्लोक स्मरण कर लेना सर्वोत्तम युक्ति है :
सावधान ! कृपया पहचानें कि किसका मास्टरस्ट्रोक आज सोशल मीडिया पर बड़ी अच्छी तरह चल रहा है।
मुँह नीचे करके तितर बितर हो जाएँ या एकजुट खड़े रहें?
आज का मूडी जी का मास्टरस्ट्रोक : जागो हिन्दू जागो
हैश्टैग “टेक द फ़ाइट टू द स्ट्रीट्स”
👆गहन चिंतन करें और समझें।
आज की नूपुर शर्मा की घटना अप्रत्याशित है। क्षुब्ध नहीं हूँ क्योंकि एक सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को सनातन का न तो रक्षक मानती हूँ न ही तारनहार।
किसी से उसकी क्षमता से अधिक आशा बांधेंगे तो ठेस अधिक लगेगी ही।
सावधान ! कृपया पहचानें कि किसका मास्टरस्ट्रोक आज सोशल मीडिया पर बड़ी अच्छी तरह चल रहा है – जो सामान्य जन का एकजुट होना शुरू होता दिख रहा था (आभासी दुनिया में ही सही) वो आज ही छिन्न भिन्न हो रहा है। अधिकतर कह रहे हैं कि अपने आप और केवल अपने जीवन-जीविका पर ध्यान दो, हिंदू राष्ट्र के आशावाद ने अचानक मुँह फेर लिया आज। राष्ट्रत्व और अपने सामूहिक अस्तित्व के प्रति उदासीन और बँटा हुआ हिंदू ही उन राक्षसों को शक्ति है।
इस एक ही पासे से लकड़ी खाने वाले मकड़े ने रत्ती रत्ती लकड़ा खाते हुए आज उस भाग को खा डाला जी जगह से एक सशक्त शाखा निकली हुई थी।
इस गणित की पहेली जो आज की घटना के, हिन्दू राष्ट्र के संदर्भ में सुलझाइए और पहचानिये कि लकड़ी कौन है, मकड़ा कौन, रत्ती रत्ती खाई जाने वाला पदार्थ क्या है और कितने दिन लगेंगे लकड़े को समाप्त होने मेंः
अस्सी मन का लकड़ा, उस पर बैठा मकड़ा, रत्ती रत्ती खाये तो कितने दिन में खाये।
राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिये अपने हिस्से का योगदान देने में समर्थ होना चाहेंगे या असमर्थ रहना चाहेंगे ?
आपने शायद वो विडिओ देखा होगा चीन का मनी ट्रैप – यानि उसके पैसे के जाल के बारे में। कैसे चीन पहले सहायता के लिये लोन देता है और देशों के वापस ना चुकाने पर धीरे धीरे उस देश के संसाधनों और स्थानों तक पर अपना कानूनी रूप से वैध अधिकार कर लेता है। धीरे-धीरे कई देशों में ऐसा कर रहा है और अपने सिल्क-रूट पर कार्य कर रहा है। हम ये सोच कर खुश हो जाते हैं कि भारत की ऐसी स्थिति नहीं है तो हम सुरक्षित हैं । क्योंकि मोदी जी अन्य देशों के साथ सफल सामरिक व कूटनैतिक संबंधों के द्वारा सिल्क-रूट के षड्यन्त्र से भली-भाँति निबट रहे हैं, हम सुरक्षित हैं । बड़े बड़े सुरक्षा और आधारभूत इन्फ्रस्ट्रक्चर की वस्तुओं के भारत में निर्माण से हमें बल मिलता है, उसकी ओर सकारात्मक कदम बढ़ रहे हैं, इसलिए हम सुरक्षित हैं। केवल इतना ही सोचकर निश्चिंत ना हो जाईये ! हम में से प्रत्येक का जो दायित्व है, राष्ट्रधर्म है उसका हम सबको अपने अपने स्तर पर ही पालन करना है। आप और हम उसमें कहाँ आते हैं, ये समझना चाहिए। क्योंकि भारत बाकी देशों जैसा नहीं है, इसीलिए भारत के लिये चीन की रणनीति भी बाकी देशों जैसी नहीं है । उसका एक पक्ष ये है कि उसे भारत का आर्थिक नियंत्रण नहीं प्राप्त करना बल्कि उसे आर्थिक रूप से दुर्बल करना है, अस्थिर करना है, आर्थिक अराजकता फैलानी है। यहाँ आर्थिक निर्भरता बनाने के लिये उसकी भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या पर निवेश का रास्ता लिया है। भारत के बाजार कर दोधारी निशाना है – एक फुटकर बाजार जिसे आप और हम प्रतिदिन प्रयोग करते हैं और दूसरा स्टार्ट-अप में निवेश । दोनों जगह दृष्टि में आए ऐसे बड़े बड़े नाम उसका लक्ष्य नहीं है, अपितु उसका लक्ष्य है साधारण उपभोक्ता-आप और हम! उपभोक्ता बाजार में ‘मेड इन चाइना’ को तो हम जानते ही हैं। बीच-बीच में ‘स्वदेशी ही लो’ की हवा चलती है किन्तु अंततः साधारण भारतीय उपभोक्ता सस्ता होने के कारण और सुलभता से उपलब्ध होने के कारण अभी भी अधिकतर चीन का बना सामान ही प्रयोग कर रहा है। ट्विटर की जागरूकता बहुत ही छोटे स्तर की होती है, उसे पूरे भारत का व्यवहार और उत्तर समझने की भूल हम ना करें तो अच्छा। फुटकर व्यापारी चीन के बने उत्पाद बहुत सरलता से, अत्यधिक उधार पर प्राप्त कर सकते हैं अतः धीरे-धीरे गोली-टॉफी तक यहाँ बनाना छोड़कर वही से आयात करने लगे हैं । हम सबको अपने परफेक्ट घर के परफेक्ट मंदिर में परफेक्ट मूर्ति चाहिए तो दीपावली पर एकदम समकोणीय सुंदर दिखने वाली लक्ष्मी-गणेश ही आते हैं जो पास के बाजार में मिल जाए। ट्विटर के फोटो-ओप में मिट्टी का सामान बनाने वाले या बेचने वाले से ही अंततः विसर्जन करने के लिये लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाएं लेने के आह्वान सीमित होते हैं; व्यापक स्तर पर बाजार में क्या उपलब्ध है और लोग क्या ले रहे हैं, एक दृष्टि डालने पर दिख जाता है। ये तो हमारी संस्कृति के सबसे बड़े उत्सव की बात है, साधारण जीवन की मूल आवश्यकताओं के साधनों और उत्पादों के तो असंख्य उदाहरण हैं। अंतरराष्ट्रीय व्यापार-नियमों के चलते सरकार एक सीमा के बाद इस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती, लेकिन चीन को रोकने की पूरी आशा हम केवल सरकार/शासन से रखते हैं । फुटकर व्यापारी थोक विक्रेता का ग्राहक है और थोक विक्रेता चीन की महा-थोक, सस्ती और निरंतर आपूर्ति का। फुटकर और थोक व्यापारी की अधिक से अधिक लाभ कमाने की मूलभूल अपेक्षा है। वो अपना लाभ की मात्रा में कोई कमी नहीं चाहते और उपभोक्ता के रूप में हमें सबसे सस्ता और घर के बगल वाली दुकान में मिलने वाला सामान ही चाहिए। उसी प्रकार वैसे तो स्टार्ट-अप के जगत में बहुत सारा विदेशी निवेश लगता है और चीन के निवेश की पूँजी छोटी लगती है – कुछ ६-७ बिलियन अमरीकी डॉलर ! कहा जाता है कि सरकार के लगाए प्रतिबंधों के बाद तो इस निवेश में और भी कमी आई है क्योंकि स्टार्ट-अप अन्य विदेशी निवेशकों से और भारत में से ही बहुत धन इकट्ठा कर ले रहे हैं। केवल बड़े-बड़े कुछ स्टार्ट-अप में चीन का पैसा लगा है (2020 में भारत के 24 में से 17 यूनीकॉर्न्स में चीन का प्रत्यक्ष निवेश था जिसमें अलीबाबा और टेनसेंट मुख्य थे, एन्ट फाइनैन्शल अलीबाबा की ही सहबद्ध कंपनी है)। आज byju, zomato जैसे कुछ का उदाहरण दे कर बताया जाता है कि चीन का निवेश भ्रम है, इन्होंने कितनी तेजी से चीन के निवेश से अपनी निर्भरता हटा ली और हम मान लेते हैं कि ऐसा ही है । जिन जिन प्रकाशन समूहों में ये बताते हुए आलेख-आर्टिकल आते हैं उनके नाम देखिएगा कभी। भारत के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भ्रष्टाचार से ग्रसित है, ये हम केवल राजनैतिक चर्चाएं करते समय ध्यान में रखते हैं लेकिन ऐसे बिजनस आर्टिकल पढ़ते समय भूल जाते हैं। लेकिन छोटे-छोटे कितने ही स्टार्ट-अप की निवेश की पहली पसंद या विकल्प कोई चीनी निवेशक या निवेश कंपनी ही होती है। बहुत से ऐसे लोगों को निजी रूप से जानती हूँ। परोक्ष रूप से चीन क्या कर रहा है और किस प्रकार अमेरिका में वेन्चर केपिटल कंपनियाँ बना के छद्म वेश में निवेश कर रहा है, ये भी कम ही लोग जानते हैं। ट्रम्प के शासन तंत्र ने बहुत सी ऐसी कंपनियों को बंद किया, उन के दाँत कुंद किये, तो व्यापार जगत ने बहुत भर्त्सना करी (र.र. शब्द का प्रयोग करने का बड़ा मन है यहाँ!) । वहाँ भी ‘करेला, वो भी नीम चढ़ा’ तब हो जाता है जब सारी व्यापारी दुनिया कहती है (भारत की विशेष रूप से) कि राजनीति और व्यापार को अलग रखना चाहिए। कदाचित उसका निहित आर्थिक स्वार्थ इतना अधिक है कि ये समझ नहीं पाती कि चीन का हर कदम वैश्विक राजनीति से प्रेरित है। जैक मा (की कंपनी अलीबाबा) ने भारत में निवेश को केवल व्यापारिक दृष्टि से नाप-तोल कर विवेकपूर्ण व्यवहार करना शुरू किया और अपने देश में भी शासन से अलग आर्थिक स्वावलंबन की राह पर चलने का प्रयास किया तो, एक दृष्टि से विश्व की सबसे बड़ी कंपनी को रातों-रात क्या बना दिया गया !और जैक मा ऐसे अंतर्ध्यान हुये कि कभी-कभी ही कहीं-कहीं ही दिखते हैं अब! पेटीएम का उदाहरण देखिए। एक भारतीय के विचार और प्रयास पर चीन ने भरपूर पैसा लगाया । सबसे अधिक प्रचलित हुआ, उपभोक्ता ने हाथोंहाथ लिया । सरकार ने भी विमुद्रीकरण लागू होने पर उसका लाभ लिया और जनता ने भी । धीरे-धीरे प्रकल्प सफेद हाथी बन गया । अब चंद्रशेखर जी का राष्ट्रीय स्वावलंबन जागा या आत्मनिर्भरता का भाव अथवा कोश के खाली होने और निवेशकों के हाथ खींचने की स्थिति बन गई – जिस भी वजह से, आईपीओ आया… और लगभग मुँह के बल ही गिरा। भारत के फुटकर उपभोक्ता ने जरूरत के समय उसका बहुत लाभ लिया पर जब निवेशक के रूप में आया तो बोला “ नहीं भाई, ओवरप्राइस्ड है, कोई फायदा नहीं, मत-लो/बेचो !” भारत में ही बने, भारतीयों के लिये ही बने एक उत्पाद को बनाए रखने के लिये भी राष्ट्रीयता नहीं, निजी लाभ ही मुख्य बन गया । ये केवल एक उदाहरण दिया यहाँ ! ऐसे ही अवसर चीन पूरी मेहनत से, समय लगा के, बुन-बुनकर आपके सामने परोसता रहा है और रहेगा। और हम जब तक हमारी अपनी निजता को बहुत छोटा और प्रभावहीन मानते हुए, अपने नित्य जीवन और राष्ट्रीयता को दो अलग अलग पदार्थ मानते रहेंगे, सुख और हित में से सुख को चुनते रहेंगे, तब तक ठगे जाते रहेंगे और राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिये अपने हिस्से का योगदान देने में असमर्थ रहेंगे।