सूर्य ग्रहण – खगोल और आयुर्वेद की दृष्टि से

सूर्य ग्रहण में क्या- क्या घटनाएँ होती हैं, सूर्य ग्रहण के समय क्या-क्या परिवर्तन होते है और क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए ?

सूर्य ग्रहण एक खगोलीय घटना है। सूर्य ग्रहण का भारतीय इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। वेदों (ऋग्वेद) में अत्रि मुनि ने सूर्य ग्रहण पर सबसे पहले बात करी । अत्रि और स्वरभानु की एक कथा भी आती है। उस कथा में सहसा सूर्य का आच्छादन हो जाने से, अंधेरा हो जाता है और स्वरभानु उसे दैवी प्रकोप बताता है और ये जिसका कारण वह अत्रि मुनि को बताता है, तब अत्रि उसकी गिनती करके बताते हैं कि ये कोई दैवी प्रकोप नहीं है अपितु एक खगोलीय घटना (Cosmic event) है। अत्रि मुनि ने बताया कि ऐसी ही खगोलीय घटना इस दिन इस समय पुनः होगी और बताए गये दिन समय पर वह हुई। तब से ग्रहण का गणित अस्तित्व में आया। या ग्रहण के गणित की खोज की गई, ऐसा हम बता सकते हैं। ये कई सहस्र वर्ष पुरानी घटना है। सबसे पहले भारत ने ये जाना की ग्रहों की गति की गिनती करके खगोलीय घटनाओं को बताया जा सकता है। पहले से यह पता चल सकता है कि कब सूर्य का ग्रहण होगा।

सूर्य ग्रहण में क्या- क्या घटनाएँ होती हैं, सूर्य ग्रहण के समय क्या-क्या परिवर्तन होते है और क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए ?

सूर्य का ग्रहण होना अर्थात सूर्य का आच्छादित हो जाना, ढक जाना। सूर्य जब आच्छादित हो जाता है तो उसकी किरणें पृथ्वी पर भली प्रकार से नहीं आती हैं, जिस प्रकार आनी चाहिएँ। उस अवस्था को हम ग्रहण कहते हैं। ध्यातव्य: सूर्य ग्रहण अमावस्या को ही होता है और चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को, अन्य किसी तिथि को नहीं होता है। यह पूर्ण तथा सहस्त्रो वर्ष प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान है। कब ग्रहण होगा, कब छूटेगा ये पूरी वैज्ञानिक व गणितीय गणना उपलब्ध है। ये अन्धश्रद्धा न होकर प्रामाणिक हैं। सूर्य ग्रहण वर्ष में कम से कम एक बार या अधिक से अधिक सात बार हो सकता है।

विचारणीयः स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से पूछें ,जो ग्रहण या eclipse के बारे में पढ चुके हैं, कि उन्हें ये बात पता है या याद है तो अधिकतर का उत्तर “ना ” में होगा। भारतीय शिक्षा पद्धति से विधार्थियों को जब खगोल पढ़ाया जाता है तो यह सब विस्तार से समझाया जाता है।

ज्योतिष तथा खगोल शास्त्र के ग्रन्थों में इसका वितरित वर्णन है। वाराहमिहिर रचित बृहत्संहिता में राहुचाराध्याय ग्रहण के कई पक्षों को बताता है। उसी प्रकार अथर्ववेद संहिता विभिन्न कीटाणुओं जन्तुओं के उत्पत्ति संक्रमण आदि का वर्णन करती हैं। धर्मशास्त्र में ग्रहण के समय पालन करने के नियम-विधि का वर्णन है।सूर्य ग्रहण कभी कभी दीपावली के दिन या किसी विशेष दिन की अमावस्या पर होता है तो उसके विशेष प्रभाव होते हैं। सूर्य ग्रहण की एक अवधि होती है ( duration) । वह सारे समय भारत में दिखे ये आवश्यक नहीं। जब वो भारत में दिखता है तब ये नियम पालन करने होते हैं। जब किसी अन्य स्थान पर है तो पालन करने की आवश्यकता नहीं होती है।

सूर्य ग्रहण की तीन अवस्थाएँ होती हैं वेध, स्पर्श, मोक्ष ।

01 | वेध सूर्य ग्रहण के समय से 12 घंटे पहले वेध काल आरंभ हो जाता है। इसी को हम स्थानीय भाषा में ग्रहण का सूतक लगना कहते हैं। चन्द्र ग्रहण पर यह छह घण्टे पहले आरंभ हो जाता है। बारह घण्टे पहले से उसका प्रभाव आरम्भ होता है इसलिए जो स्वस्थ रहना चाहता है, मानने को इच्छुक है उसके लिए वेध काल में ये नियम बताए हैं :

  • भोजन करना बन्द कर दें
  • पानी वाली वस्तुएँ लेना बन्द कर दें।
  • कुछ न खाएँ तो उत्तम है यदि कुछ खाना भी पडे तो फल खाएँ पानी वाली चीजें न खाएँ ये ग्रहण के नियमों में बताया है।
  • मन्त्र का जप करें।

किसी भी मन्त्र जाप का एक सहस्त्र गुणा प्रभाव होता है, अनन्त गुणा फल मिलता है ऐसा भी बताया है । कोई भी मन्त्र का जाप कर सकते है। विशेष जो सिद्धियाँ है या विशेष निमित्त हेतु के लिए किया जाता है उसके लिए अलग अलग मन्त्र बताए गये हैं। विद्वान या पण्डित से उसकी जानकारी ली जा सकती है।

  • मल मूत्र का त्याग कर के निवृत्त रहें।
  • वेध आरम्भ होने के बाद बाहर न निकलें ।

ग्रहण के समय शरीर पर बहुत सारे परिवर्तन होते हैं। उस समय शरीर को आराम दें तो उत्तम होता है। पानी न पिएँ, पीना भी पड़े तो उबाल के ठण्डा किया हुआ पानी पिएँ वो भी बहुत थोड़ी मात्रा में । खाने पीने के सब नियम साधारण नियम हैं। ये नियम बालकों के लिए,गर्भवती महिलाओं के लिए, वृद्धों के लिए या रोगियों के लिए नहीं हैं । ये सब यथेष्ट खा पी सकते हैं क्योंकि न खाने पर दुर्बलता आ सकती है या रोग हो सकते हैं, अतः ये सब नियम के अपवाद है।

पृथ्वी की भौगोलिक स्थितिः सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण कम हो जाता है। सूर्य का प्रभाव पृथ्वी पर कम होता है इसलिए पृथ्वी का गुरुत्व कम हो जाता है। गुरुत्वाकर्षण कम हो जाने पर अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे हम रात्रि में देखते हैं कि कई जीव जन्तु उत्पन्न या सक्रिय हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से वह चले जाते है इसी लिए हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु में जब सूर्य मेघों से आच्छादित रहता है, ढका रहता है तब अनेक प्रकार के जीव जन्तु कीट विषाणु हो जाते हैं। वही घटना होती है जब सूर्य विशेष रूप से आच्छादित होता है अर्थात् ग्रहण के समय! तब बहुत प्रकार के न दिखने वाले जन्तु उत्पन्न होते हैं। वो उत्पन्न होकर भोज्य पदार्थो पर खाने पीने की वस्तुओं पर प्रभाव डालते हैं विशेष रूप से पानी पर । जो भी पानी वाले भोज्य पदार्थ है, जो हम अन्न पकाकर खाते हैं या जो processed food है , उन सब पर उसका विशेष असर होता है। भोजन यदि बचा है तो या तो किसी को खिला दें या डाल दें अथवा जाने दें। ग्रहण के बाद नया पकाकर खाएं। घर में पानी है, दूध आदि हैं तो उसने दर्भ, तुलसी इत्यादि जिन वनस्पतियोंमें anti- bacterial गुण हैं उन्हें डाल कर रखें। ग्रहण में विशेष रूप से पानी संक्रमित होता है। कोरोना ने हम सब को भली भाँति बता दिया है कि बाल से भी हजार गुना सूक्ष्म जीव कैसे घातक या विनाशकारी हो सकता है। हमारे ऋषि-मुनियो ने सहस्रों वर्षो पहले से बताया है कि इस काल में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण कम हो जाने से घातक जीव-जन्तु उत्पन्न होते हैं। इसलिए सभी पकी हुई खाद्य सामग्री वेध लगने से ही निकाल दें।

02 | स्पर्श (ग्रहण का समय): यह मुख्य काल है। इस समय:

  • भोजन न करें
  • पानी न पियें

बाहर (सूर्य प्रकाश में) न निकले। घूमें नहीं

  • स्नान कर शरीर को स्वच्छ रखें
  • मन्त्र जप, ध्यान करें

इस समय आच्छादित सूर्य होता है। इस समय इसका खगोलीय प्रभाव हम पर बहुत अधिक होता है तो कम से कम उस समय बाहर न निकलें।

03 | मोक्ष : सूर्य ग्रहण का समय बीतने पर अवस्था आती है मोक्ष की! अर्थात् ग्रहण के समाप्त हो जाने के बाद का समय। इस अवस्था में:

  • स्नान करें
  • दान करें
  • आनन्द करें

मोक्ष समय आनन्द क्यों होता है? जब-जब पृथ्वी पर विनाश हुआ, प्रलय आयी उस समय ऐसी ही खगोलीय घटनाएँ हुईं।तो जब जब पृथ्वी पर बड़ी प्रलय की अवस्था आयी तब तब पृथ्वी से गुरुत्व कम हो जाता है (भारतीय दर्शन की दृष्टि से) । सूर्य ग्रहण के समय ऐसी ही विनाशकारी घटनाओं की प्रलय की संभावना रहती है।इसलिए यदि हम घूमते फिरते हैं तो हमारे मस्तिष्क में राजस विचार होते हैं। जब हम ध्यान मन्त्रजप इत्यादि करते हैं तो हमारे विचार सात्विक होते हैं। यदि ऐसे समय संभावना भी मान लें कि प्रलय हो जाए तो – ” यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्गावभावितः॥” ऐसा गीता में बताया है कि अंत समय में जैसे भाव में व्यक्ति जाता है उसी समय का भाव का अगला जन्म हमको मिलता है। तो उत्तम भाव में रहने का, जप मन्त्र करने का इसलिए विधान किया गया है। यदि प्रलय हो जाए तो हम अच्छे भाव में जाएँ।अब जब मोक्ष काल आता है तो प्रलय या विनाशकारी घटना की संभावना समाप्त हो जाती है ग्रहण मोक्ष हो जाने पर पृथ्वी बहुत बड़ी आपति से छूट जाती है। पृथ्वी को हम माता मानते हैं। पृथ्वी बड़ी आपत्ति से बच गई इसलिए आनन्द मनाने का, दान करने का, उल्लास करने का विधान है। मोक्ष होने के बाद नया पानी भरते है, भोजन पका कर खाते हैं । यदि मोक्ष रात्रि में होता है तो यह सब कार्य अगले दिन प्रातः किया जाता है।

ये सब वैज्ञानिक , खगोलीय तथा स्वास्थ्य-आयुर्वेद से सम्बन्धित तर्क है ग्रहण के पीछे ! बताने का उद्देश्य – ग्रहण की तीनों अवस्थाओं के समय इन नियमों का, दिए विधानों का पालन करें,ध्यान आदि करें। औषधि ले सकते हैं; पानी वाली वस्तुएँ न लें, बाहर की खाने की वस्तुएँ न लें, अन्य कोई विशेष आहार न लें, आवश्यक हो तो फलाहार ले ; गर्भवती, बालक, वृद्ध अथवा रोगी यथेष्ट आहार ले सकते हैं।

ध्यान मन्त्र जप आदि का कई गुना प्रभाव भी गुरुत्वाकर्षण से संबंधित ऊर्जा विज्ञान के कारण है। स्वरभानु नाम रूपक पर भी मनन करेंगे तो ध्वनि तरंगों तथा electromagnetic waves के गुरुत्वाकर्षण से संबंध का विज्ञान उद्‌घाटित होगा। कदाचित् मन्त्र साधना का ग्रहण के समय सहस्र गुना अधिक प्रभाव का कारण भी उद्‌घाटित हो जाए। 🙂

मन्त्र प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण किसी अन्य अवसर पर प्रस्तुत करेंगे।

(ऊपर प्रस्तुत विवरण मेहुलभाई आचार्य जी से प्राप्त है )

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥

यात्रा जारी है..

वर्षा ऋतु में आहार-विहार

जो व्यक्ति ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।

वर्षा ऋतु का आगमन हो चुका है। आषाढ़  और सावन मास में वर्षा ऋतु का काल होता है। प्रत्येक ऋतु का काल अलग होता है, उस समय वातावरण की स्थिति अलग होती है और उसी प्रकार हमारे शरीर में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त-कफ की स्थिति भी ऋतु के साथ बदलती है।  भाव प्रकाश में भाव मिश्र बताते हैं: 

क्षयकोपशमा यस्मिन्दोशाणां संभवन्ति हि । ऋतुशट्कं तदाख्यातं रवे राशिषु संक्रमात् ।।

 – जिस समय दोषों की वृद्धि, कोप तथा शमन हुआ करता है, उस समय को ऋतु कहते हैं।

ऐसे में  सामान्य  प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि इस ऋतु में  आहार विहार कैसा होना चाहिए? 

वर्षा ऋतु वात यानि वायु के प्रकोप का काल है। इस ऋतु में मंद अग्नि होती है जिसका हमारी पाचन क्रिया पर सीधा असर पड़ता है। यह ऋतु प्रजनन प्रक्रिया के आरंभ होने का भी काल है। जीवाणु, कीट सृष्टि की उत्पत्ति का काल है। यह एकमुख्य कारण है कि इस ऋतु में भारत में लोकाचार और परम्पराएं भी इस प्रकार से रची हैं कि सब ऋतु अनुकुल आहार विहार करें। जैसे –

मांस का सेवन करना – मांस के सेवन के लिए किसी पशु -पक्षी के जीवन का अंत किया जायेगा। क्योंकि प्राकृतिक रूप से यह पशु- सृष्टि की प्रजनन प्रक्रिया का काल है तो शिकार/आखेट से इस प्रक्रिया में, सृष्टि की उन्नति के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है, अतः इस कार्य को ही इस ऋतु में निषिद्ध कर दिया जाता है।

हरी सब्जी, प्याज, फल विशेष का त्याग – वर्षा ऋतु में इनमें कीट-जीवाणु की उत्पत्ति अधिक होती है। ऐसा मुख्यतः वातावरण में अधिक नमी होने के कारण होता है। इन्हें त्यागने से इन्हें खाने की तथा इनके माध्यम से कीट-विषाणु खा लिए जाने की संभावना समाप्त हो जाती है तथा रोग होने से बच जाते हैं।

यात्रा करना और ग्रंथ अध्ययन करना – वर्षा होने के कारण और अधिकतर जगहों पर कच्चा जल उपलब्ध होने के कारण प्रवास यात्रा में कठिनाई होती है और जल के कारण उदर रोगों की संभावना बहुत बढ़ जाती है, अतः एक ही स्थान पर रहने का प्रावधान किया जाता है और समय का सदुपयोग हो इसलिए सम्यक वातावरण के तापमान में ग्रंथ अध्ययन का विधान रहता है।

इस ऋतु में कैसा आहार विहार करना चाहिए ?

नमकीन, खट्टा/अम्ल रस वाला , चिकना, हल्का और मधुर आहार लें। कब्ज़ न होने दें। जठराग्नि का विशेष ध्यान रखें। नया पानी और नए साकभाजी त्याग दें और साधारण श्रम करें। संयमी रहें, विशेष व्यायाम न करें। वायुकारी आहार न लें।

गुरुजी (आचार्य मेहुल भाई) वर्षा ऋतु में आहार -विहार के  प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते हैं:

शरीर व आत्मा दोनों का आरोग्य अच्छा रहना चाहिए। दोनों की पुष्टि हो, शरीर आत्मा को ना भूले और आत्मा शरीर को ना भूले यानी ऐसे में हम शरीर व आत्मा दोनों का विचार करें। संस्कृति आर्य गुरुकुलम् एकमात्र ऐसी संस्था है जो दोनों को साथ में रखकर चलती है। यह एकमात्र ऐसा गुरुकुल है जिसने आयुर्वेद तथा आध्यात्म – दोनों क्षेत्रों में अग्रगण्य प्रदान किया है। वर्षा ऋतु में आहार इसके दूसरे छोर यानी शरीर के विषय का प्रश्न है।  आयुर्वेद आषाढ़ व श्रावण मास में विशेष जिन वस्तु के सेवन करने की बात बताता है वह इस प्रकार है :

) अदरक : आषाढ़ मास में अग्नि मंद होती है या मन्दाग्नि होती है। यानि मेटाबॉलिज्म तथा डाइजेस्टिव एसिड्स निम्न होते हैं। अदरक अग्नि को प्रदीप्त करता है इसलिए भोजन से पहले से अदरक खाने से मंद अग्नि बढ़ती है। अतः पूरे आषाढ़ में और सावन में अदरक का सेवन करें। यदि किसी प्रकार का धार्मिक परहेज है तो सौंठ का भी सेवन पर सकते हैं।

लाभ :

अदरक खाने से अग्नि मंद नहीं होगी,  प्रदीप्त रहेगी जिसके फलस्वरूप अच्छा पाचन होगा, भूख लगेगी।

वायु का अनुलोमन होगा। वायु का अनुलोमन करने से शरीर में वायु नहीं बढ़ेगा। वात संबंधी रोग नहीं होंगे।

अदरक पुराने आम यानी कच्चे रस का पाचन करता है।

अदरक या सौंठ सुबह या शाम, किसी भी समय ले सकते हैं।अदरक के टुकडे पानी में भिगो कर या नमक के साथ सेवन करें। यदि सोंठ ले रहे हैं तो आधा चम्मच सुबह या शाम किसी भी समय ले सकते हैं। 

२) एरंड का तेल ( कैस्टर ऑयल) : एरंड के तेल से वायु का अनुलोमन होता है और स्वास्थ्य अच्छा होता है।

३) तिल तेल: विशेषकर इस ऋतु में लोकाचार में बहुत तली चीजें खाने का प्रचलन है, जैसे पकोड़े भज्जी आदि। इस ऋतु में आप यदि तले पदार्थ खाते हैं तो अच्छा लगता है क्योंकि वर्षा के कारण शरीर रुक्ष हो जाता है और तेल खाने से शरीर को स्निग्धता मिलती है। इस ऋतु में वात बढ़ जाता है जिससे रुक्षता बढ़ जाती है। यदि आप तेल के व्यंजन खाते हैं तो याद रखें इस समय सबसे अच्छा तेल है तिल तेल! चरक सूत्र में बताया गया है “तिल तैलं स्थावरजातानां स्नेहानाम्”, सभी प्रकार के स्थावर स्नेह हैं, उनमें तिल तेल सबसे अच्छा है । अर्थात इस समय जो पूरे शरीर में स्नेहन या ऑइलिंग होनी चाहिए, वह तिल का तेल कर देगा। तो तिल के तेल में बनाई वस्तुओं का सेवन करें।

४) भारी वस्तुएं ना खाएं।

५) दूध का सेवन कम करें।

६)  सादा आहार करें।

७) बासी भोजन बिल्कुल ना करें। रात का सुबह दोपहर का रात को ना खाएं इससे पाचन शक्ति मंद हो जाएगी, अग्नि मंद हो जाएगी, ऐसा ना करें।

ऐसा करने से आपका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।

मानसिक स्वास्थ्य के लिए, अध्यात्म की साधना के लिए यह दो महीने बहुत ही अच्छे हैं। इस समय में एक ही स्थान पर रहे अर्थात् भ्रमण यात्रा ना करें।  सामान्य रूप से आहार-विहार करें और चिंतन, मनन, ग्रंथ-अध्ययन अधिक से अधिक करें। चातुर्मास आरंभ हो गया है, उसका पूरा लाभ उठाएं और अपना ध्यान रखें।

ऋतुसम्यक आहार-विहार

ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन का आदी होने को ऋतुसात्मय कहते हैं । यदि कोई बाहरी वातावरण में परिवर्तन के अनुसार आहार और जीवन शैली या गतिविधियों को संशोधित (adjust or modify) कर सकता है, तो वह अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण प्राप्त कर सकता है – ऐसा चरक बताते हैं ।

तस्याशिताद्यादाहाराद्बलं वर्णश्च वर्धते| यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम्||

जो व्यक्ति ऋतुसात्मय को, ऋतुओं के अनुसार आहार और व्यवहार में परिवर्तन के आदी होने के बारे में जानता है, ऐसी आदतों का समय पर अभ्यास करता है, और जिसके आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, उसका बल और ऊर्जा-आभा बढ़ जाती है, और वह एक स्वस्थ, लंबा जीवन जीता है।

आयुर्वेद के उद्गम व लौकिक यात्रा की कथा!

आज आपको आयुर्वेद की भारत की वैदिक ऋषि परंपरा द्वारा जन-मानस तक लाने की कथा बताते हैं। क्योंकि आयुर्वेद की गंगा को उद्गम् से यहाँ तक लाने में बहुत ऋषियों का श्रम है, तप है। आयुर्वेद की गंगा जिसने असंख्य लोगों को जीवन दिया, वो कहाँ से आरम्भ हुई, कैसे आगे चली, ये जानकारी अधिक प्रचलित नहीं है।

धन्वंतरि समारम्भां, जीवकाचार्य मध्यमाम् । अस्मद् आचार्यपर्यन्ताम् , वन्दे गुरु परम्पराम् ॥

विभिन्न संहिताओं, ऐतिहासिक ग्रंथों, संस्कृत के ग्रंथों में आयुर्वेदिक की उत्पत्ति का विवरण उपलब्ध है। आज आपको आयुर्वेद की भारत की वैदिक ऋषि परंपरा द्वारा जन-मानस तक लाने की कथा बताते हैं। क्योंकि आयुर्वेद की गंगा को उद्गम् से यहाँ तक लाने में बहुत ऋषियों का श्रम है, तप है। आयुर्वेद की गंगा जिसने असंख्य लोगों को जीवन दिया, वो कहाँ से आरम्भ हुई, कैसे आगे चली, ये जानकारी अधिक प्रचलित नहीं है।चरक मुनि ने ‘आयुर्वेदो अमृतानाम्’ कहकर आयुर्वेद को शाश्वत बताया है। आयुर्वेद अविरत चलायमान है और इसकी रक्षा अविरत होती रहती है।

 संहिताओं में निहित ज्ञान के आधार पर सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने करी। सहस्त्रों-सहस्त्रों वर्षों पहले सृष्टि की उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद व अथर्वेद में उसका वर्णन है। विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद में बताया गया है:

“तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: संभूत: | आकाशाद्वायु:| वायोरग्नि: | अग्नेराप: |अद्भ्य: पृथिवी | पृथिव्या औषधय: | औषदिभ्यो S न्नम् | अन्नात्पुरुष: ||

उस एक तत्व से आकाश की उत्पत्ति हुई, उसके बाद पंचभूतों की और फिर अनेक प्रकार के महाभूतों की क्रम से उत्पत्ति हुई, अंत में अन्न से मनुष्य की उत्पत्ति हुई। समस्त ब्रह्मांड की रचना की बात बहुत जगह पर आयी है। उन सबके पश्चात एक शास्त्र की रचना हुई।

जैसे कोई व्यक्ति एक यंत्र बनाता है, तो उसे बनाने के बाद उसकी एक अनुदेश पुस्तिका (user manual) निर्मित होती है, जिसमें उससे संबंधित सभी दिशा निर्देश होते हैं, बताया जाता है की उसकी विशेषता क्या है, उसे किस तरह से उपयोग करें, किस तरह से उपयोग न करें – यह सब संकलित कर वह निर्देश पुस्तिका यंत्र के साथ दी जाती है।  सृष्टि के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसकी रचना के बाद एक शास्त्र की रचना हुई जो मानव जीवन की एक प्रकार की निर्देश पुस्तिका है। इस शास्त्र को केवल मानव जीवन का नहीं, सर्व भूतों के जीवन की निर्देश पुस्तिका कहा जा सकता है। 

जिस शास्त्र की रचना हुई वह जीवन से जुड़ा हुआ था, इसीलिए उसका नाम आयुर्वेद रखा गया। आयु अर्थात जीवन, वेद अर्थात ज्ञान। जबसे सृष्टि का आरम्भ हुआ, तबसे अनेक प्रकार की बाधाओं से बचने के लिए, मनुष्य के शरीर को, मन को, आत्मा को, बुद्धि को, व्यवहार को समझने के लिए आयुर्वेद की रचना करी गयी। कोई भी परंपरा इतनी पुरानी नहीं होगी, जितना पुराना आयुर्वेद है। 

आयुर्वेद के सबसे पहले उपदेशक ब्रह्मा थे। वहाँ से आयुर्वेद की परंपरा का आरम्भ हुआ। ब्रह्मा अर्थात सर्जक! जो व्यक्ति सर्जन करता है वह उस कोटि का व्यक्ति है जो ईश्वरीय रूप है, जो पूर्णता की ओर है। वह ईश्वर वो नहीं जिसे हम मानते हैं, परंतु ईश्वरीय अर्थात जिसकी चेतना पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध है, ऐसे ब्रह्मा हैं। दो प्रकार की परम्पराओं का वर्णन, चरक संहिता में व सुश्रुत संहिता में आता है, दोनों ने ब्रह्मा जी को आयुर्वेद का प्रथम सर्जक बताया गया है। 

ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया। दक्ष प्रजापति अर्थात जो दक्ष है, कार्यकुशल है तथा प्रजापति अर्थात जो प्रजा को पालने वाले हैं, प्रजा की रक्षण की जिसकी बुद्धि है। ये नाम गुण को परिभाषित करता है, इन गुणों से युक्त व्यक्ति दक्ष प्रजापति है।  जो बौद्धिक हो और भौतिक न हो, अर्थात अंदर से तो वह बुद्धता को, आत्मा की चेतना को प्राप्त हो, परंतु बाहर से (प्रजा के)शरीर की रक्षा को प्रतिबद्ध हो। क्योंकि वह जानता है कि आत्मा तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम जो सीढ़ी है वो शरीर से आरम्भ होती है। इसलिए ये चिकित्सा के उद्भव का श्रेय ब्रह्मा, उसके बाद दक्ष प्रजापति को जाता है।

दक्ष प्रजापति से ये ज्ञान अश्विनी कुमार को मिला है। अश्विनी कुमार दो हैं। हमारे यहां 33 कोटि (यानी प्रकार) के देवी देवता हैं। उन 33 में से यह दो अश्विनी कुमार युग्म के रूप में मिलते हैं [अश्विनी कुमारों के बारे में बहुत सारी लक्षणा है, इतिहास है, सत्य है, तथ्य है जिनकी चर्चा किसी अन्य अवसर पर करी जाएगी ]।  देवों के वैद्य के रूप में जो ख्यात हैं, वह  दक्ष प्रजापति से ज्ञान प्राप्त अश्विनी कुमार हैं। 

अश्विनी कुमारों से यह ज्ञान देवराज इंद्र ने लिया। देवराज इंद्र एक ऐतिहासिक व पौराणिक पात्र हैं। मनुष्यलोक के सामान एक देवलोक है, देव सृष्टि है  जिसके प्रतिनिधि इंद्र हैं। 

पशुओं की और मनुष्यों की भिन्न सृष्टि है और न दिखने वाली भी पशु सृष्टि हैं – एक वायरस (विषाणु) की सृष्टि है, एक बैक्टीरिया (कीट) की सृष्टि है। ये सूक्ष्म ऊत सृष्टि धीरे धीरे आज भैतिक साधनों के कारण ज्ञात होती जा रही है, दिखाई देती जा रही है। आज सूक्ष्मतम यंत्र से सूक्ष्मतम जीवाणु दिखाई देते हैं। साधन की सहायता से उसका अनुभव किया जा सकता है। किंतु आत्मा की चेतना जब ऊपर जाती है, तो वो कोई साधन की सहायता से नहीं, अपितु साधना के बल पर जाती है, ऐसी ही उत्तम चेतना से परिपूर्ण देवलोक की पूरी सृष्टि है। जैसे एक वायरस की या बैक्टीरिया की अज्ञात सृष्टि है, उसी तरह देवलोक की भी एक अज्ञात सृष्टि है। वो भी दिखाई पड़ती है, उसका भी अनुभव होता है। उसके लिए आत्मा की चेतना की अवस्था उत्तम होनी चाहिए। 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥  

ब्रह्मा ने ऐसा कल्प के आदि में उत्पन्न प्रजाओं से कहा। इसलिए देवराज इंद्र, जो देव सृष्टि के प्रतिनिधि हैं, उन्हें आयुर्वेद का ज्ञान मिला।  यहाँ तक आयुर्वेद की अलौकिक परंपरा पूरी होती है। जहाँ पर देव सृष्टि है – जहाँ पर चेतना को उपलब्ध हुए जीवों को जो अनुभव होता है, उसे अलौकिक परंपरा कहते हैं जिसमें सर्वप्रथम ब्रह्मा हैं और अंत में इंद्र हैं। इसके बाद लौकिक परंपरा आरंभ होती है। 

देवों को जब कुछ परिवर्तन करना होता है, कुछ परिणत करना होता है तो वह मनुष्यों को खोजते हैं।  जिसके पास उत्तम वस्तुएँ होंगी और वह व्यक्ति यदि उत्तम चेतना वाला होगा – मनुष्य जीवन में देखें तो सात्विक चेतना वाला होगा – तो देव उसे उत्तर में अधिकारी के रूप में देखेंगे। देव सबसे योग्य व्यक्ति को ढूँढता ही रहता है। इंद्र ने भी आयुर्वेद के लिए ऐसा व्यक्ति खोजा और उन्हें वह भारद्वाज ऋषि के रूप में मिल गया।

इंद्र ने एक परंपरा के अनुसार आयुर्वेद का ज्ञान ऋषि भारद्वाज को दिया। यहाँ से आयुर्वेद की लौकिक परंपरा आरम्भ हुई। ‘इमं द्विज भार’ ऐसा भारद्वाज शब्द की व्युत्पत्ति बताई है। जिसे संभालने की बुद्धि है, वह भारद्वाज, उन्हें इंद्र ने आयुर्वेद का ज्ञान दिया।

इंद्र से आयुर्वेद का ज्ञान मिलने के बाद भारद्वाज ने ऋषि परिषद करी [पहले के ऋषि-मुनि उत्तम चेतना को उपलब्ध थे इसलिए जो ज्ञान मिला उसे वो वितरित करना चाहते थे। ज्ञान की ऐसी अदभुत परंपरा रही जिसमें न कोई प्रमाण पत्र देना था, न ही कोई पैसा लेना था और न ही अन्य कोई बातें थीं]। उस ऋषि परिषद में अत्रि मुनि ने भी भाग लिया। अत्रि मुनि का बहुत जगह पर वेदों में भी वर्णन है। ‘त्रिगुणात अतीत: अति अत्रि’, अर्थात  तीनों गुणों से पर जो व्यक्ति हो गया वह अत्रि। 

उस ऋषि परिषद के पश्चात आयुर्वेद के ज्ञान की परंपरा को अत्रि मुनि ने आगे बढ़ाया। अत्रि मुनि से आयुर्वेद की वास्तविक परंपरा आरम्भ होती है। अत्रि तक ये आयुर्वेद ज्ञान परंपरा श्रुति रूप में थी। 

अत्रि ने इस आयुर्वेद की परंपरा का अपने शिष्य व पुत्र आत्रेय को ज्ञान दिया। अब तक ये उपदेश मौखिक थे। क्योंकि पहले की वैदिक परंपरा श्रुत परंपरा थी यानी सुना हुआ याद रखना। इसलिए वेद भी श्रुति कहे जाते हैं। क्योंकि सुना हुआ बहुत महत्व का होता है। संस्कृत में विद्वान को ‘well read’ नहीं कहते, ‘बहु श्रुत’ कहते हैं। सुना हुआ, पढ़े हुए से बहुत गहरा होता है। 

पुनर्वसु आत्रेय का उपदेश, चरक संहिता ग्रंथ में पाया जाता है। चतकर्ण, पाराशर, भेल इन ऋषि मुनियों का भी वर्णन चरक संहिता में दिया गया है। 

आत्रेय ने आयुर्वेद के ज्ञान से आगे छह शिष्यों को तैयार किया, उनमें से एक अग्निवेश थे। अग्निवेश, भेल, चतकर्ण, पाराशर, क्षिप्रणि, हर्षता वह छह शिष्य थे। अनेक लोगों की संहिताएँ हैं, इन सभी ऋषियों के नाम से भी संहिता लिखी गयी हैं। ये छह शिष्य श्रोता थे। उन्होंने पुनर्वसु आत्रेय के उपदेश को ग्रहण किया। उसके बाद अग्निवेश के पारगामी बुध्दि रचित तंत्र की रचना हुई [तंत्र की शास्त्रीय, दार्शनिक परिभाषा, संहिता की रचना किस प्रकार होती है, आदि किसी अन्य समय। यह एक कोर्स बनाने जितना सरल नहीं है], जो सबसे बड़ा कार्य हुआ। अग्निवेश के बाद ये तंत्र कालक्रम से चलता रहा। मूल उपदेश का तंत्र बनाया गया था, उसमें कालानुक्रम में कुछ मिश्रित होता गया और कुछ निकलता गया।  मूल आयुर्वेद के उपदेश से कुछ न कुछ अलग होता गया, कुछ दूषित भी हुआ।

चाणक्य ने बताया है कि अन्य किसी क्षेत्र में भ्रष्टाचार सह्य हो सकता है परंतु चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में, उनकी व्यवस्था में लेश मात्र भी यदि भ्रष्टाचार हो तो कोई भी व्यवस्था सही नहीं बचेगी और समाज की बहुत हानि होगी। चिकित्सा के क्षेत्र में यदि भ्रष्टाचार हुआ तो वह कभी सह्य नहीं होगा, ये चुकाना पड़ेगा। आयुर्वेद में लोभ एक तरह से वर्जित है, अगले जन्म में, इस जन्म में बहुत भोगना पड़ता है। कुवैद्य की निंदा करी गयी है और सुवैद्य की प्रशंसा करी गयी है। 

अग्निवेश के तंत्र के बाद एक ऋषि आये जिन्हें हम चरक कहते हैं। चरक पारगामी बुद्धि के ऋषि थे, उन्होंने अग्निवेश तंत्र का परिमार्जन, पुनर्गठन किया। उन्होंने देखा की अग्निवेश तंत्र में क्या दूषित हुआ है और उसके लिये क्या किया जा सकता है, ये उन्होंने एक बहुत बड़ी क्रांति रूपक बात आरम्भ करी और चरक संहिता की रचना करी।  इसलिए कहा जाता है की अग्निवेश ने तंत्र लिखा, उसका प्रतिसंस्कार चरक ने किया। वह संहिता इतनी ख्यात हुई की चरक को ‘father of indian medicine’ कहा जाता है। 

चरक दो प्रकार के हैं: एक परंपरा का नाम है चरक (जैसे शंकराचार्य एक परंपरा का भी नाम है जो उनकी पीठ से चलता है और समकालीन शंकराचार्य गुरु व्यक्ति रूप भी हैं)और दूसरा ऋषि प्रकति का, उत्तम ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति भी चरक है । उन्होंने प्रज्ञा व्यक्तियों का एक बहुत बड़ा संगठन खड़ा किया, उसका भी नाम चरक हो गया। क्योंकि ‘चरैवेति चरैवेति’, वे अनेक स्थानों पर जाते थे, सदा चलायमान रहते थे इसलिए उनका नाम चरक पड़ा। कई जगह वर्णन है की चरक और पतंजलि, दोनों एक ही हैं। जिन्होंने योगसूत्र लिखा है, उन्होंने ही अपना एक उपनाम चरक रखा है। चरक संहिता में उनके व्यक्ति विशेष पहचान के लिए कुछ नहीं मिलता है। किन्तु  इतिहास के अनेक ग्रंथ देखे जाएँ तो ये भी पता चलता है कि वह राजा तनिष्क के यहां राजवैद्य थे। 

चरक मुनि ने अग्निवेश तंत्र का सुव्यवस्थित रूप से गठन किया। वो गठन करने के बाद, जिसे आज हम संपादन (compilation) कहते हैं, उससे भी बड़ा काम चरक मुनि ने किया। चरक संहिता कोई छोटी मोटी संहिता नहीं है, आठ स्थान में विभक्त है जिसमें 140 अध्याय हैं। यह सब उस समय किया गया जब कागज़, कलम नहीं थे और बहुत सारी टेक्नोलॉजी नहीं थी। उस समय उन्होंने बहुत ही मेहनत से इस ग्रंथ को बनाया। 

परंपरा को बचाने के लक्ष्य को निर्धारित करके उन्होंने एकनिष्ठ होकर यह कार्य किया जिसमें किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं था। और उन्होंने इतने विषय चरक संहिता में ले लिए कि कहा जाता है, जो यहाँ मिलेगा, वह दूसरे स्थान में होगा, ऐसा नहीं कह सकते, किन्तु दूसरे स्थान में होगा तो चरक संहिता में होगा ही!

युग व प्रमुख वैद्य

काल के अनुसार आयुर्वेद के अनेक ऋषियों की महत्ता बतायी गयी है। उसके अनुसार अत्रि की कृतयुग/सतयुग में बहुत महत्ता है। सतयुग के वैद्य के रूप में अत्रि प्रमुख हैं। अत्रि ने अपनी स्मृति में सात्विक लोगों की चिकित्सा कैसे करी जाए, उसपर कार्य किया। उस युग में सत्त्वप्रधान व्यक्ति हुआ करते थे तो रोग भी उस प्रकार के होते थे, चिकित्सा भी उसी प्रकार की करनी होती थी। सतयुग के रोग ऐसे थे की अधिक तप करने से, अधिक सहन करने से, अधिक शरीर को कष्ट देने से होते थे तो उसी प्रकार की चिकित्सा अत्रि मुनि ने स्थापित करी।

द्वापर युग में बहुत युद्ध घटित हुये, सुश्रुत द्वापर के वैद्य थे। द्वापर में युद्ध बहुत हुये, उसके लिए शल्य की आवश्यकता रही। ऋषि-मुनि परंपरा से बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति को समाज कल्याण की चिंता रहती ही है, इसलिए सुश्रुत( जो विश्वामित्र के पुत्र थे) के रूप में वह दिवोदास धन्वंतरि की परंपरा में आये। धन्वंतरि की परंपरा में आकर उन्होंने सुश्रुत संहिता लिखी, उन्हें शल्य चिकित्सा (surgery) का जनक माना जाता है। 

कलियुग में वाग्भट्ट प्रमुख वैद्य हुये। कलियुग में सत्व के लिए अधिक तप के कारण, शरीर के कष्टों के कारण रोग नहीं होते, युद्ध के कारण भी नहीं होते, अपितु अधिकतर आहार विहार के नियमों का पालन न करने के कारण होते हैं, इसलिए वाग्भट्ट का नाम कलियुग में गौरवपूर्ण हुआ, क्योंकि उन्होंने आहार-विहार से संबंधित अति विस्तृत चिकित्सा स्थापित करी (अष्टांग हृदय, अष्टांग संग्रह ग्रंथ)। 

चरक संहिता की रचना के 1000 साल बाद, दृढ़वल ने उसका प्रतिसंस्कार किया, उसमें 141 अध्याय किये। आधुनिक समय में भी बहुत विद्वानों ने चरक पर काम किया है, जैसे चरक विन्यास, जल कल्पतरु, चक्रपाणि आदि के व्याख्याएँ चरक पर मिलती हैं। प्राय: 44 व्याख्याओं का वर्णन चरक के ऊपर प्राप्त हैं।

आधुनिक चिकित्सा जगत की बात करें तो एलोपैथी के लिए हैप्पोक्रिटिस का नाम आता है, होमियोपैथी को देखें तो  हैनिमैन, सुशलर  का नाम आता है, ऐसे ही अन्य पथियों के लिए विभिन्न चिकित्सकों का, लेखकों का नाम आता है, जिन्होंने वो पद्धति/पथी आरम्भ करी। आयुर्वेद को किसी व्यक्ति विशेष ने आरम्भ नहीं किया। ये ज्ञान अनादि से प्रवाहित है। 

 ‘आयुर्वेद: पंचमो वेद:’ आयुर्वेद को पाँचवे वेद का स्थान दिया गया है। आयुर्वेद एक काढ़ा,दवाई अथवा केवल वटी-गुटी का शास्त्र नहीं है। ये जीवन से जुड़ा हुआ, सूक्ष्मतम ज्ञान से निहित शास्त्र है। इसमें जीवन की प्रत्येक पक्ष को सूक्ष्मता से देखा गया है, प्रत्येक व्याधि का समाधान दिया गया है। चाहे प्रमाणिकता हो, चाहे जीवन के अछूते पक्ष हों, सबकी बात आयुर्वेद में करी गयी है, इसीलिए चरक मुनि ने कहा है ‘आयुर्वेदो अमृतानाम्’ |

शायद ही किसी अन्य चिकित्सा पथी की पुस्तकें पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद कही गयीं। इसलिए आयुर्वेद में बताया :

‘न कामर्थं न अर्थार्थं, अथ भूत दयां प्रति’ ये शास्त्र भूतानुकंपया है, ये शास्त्र धन कमाने के लिए नहीं है, किसी कामार्थ नहीं है, ये पेट भरने के लिए भी नहीं है। इसका हेतु है कि ये अनेक प्रकार के जीव जंतु का कल्याण हो जाए, मनुष्य स्वस्थ रह सके, रोगों से बच सके और जो रोग हो गए हैं उनका निदान कर सके। इसलिए रोगों से बचने के लिए क्या क्या आवश्यक है, ये सारा ज्ञान आयुर्वेद में हैं, इसलिए उसकी रचना हुई। 

आयुर्वेद में चरक संहिता को पवित्र ग्रंथ व अति वंदनीय माना जाता है। वैद्य उसकी उसकी परंपरा के पालन का जतन करते हैं। 

सुश्रुतो न श्रुतो येन, वाग्भटो येन वाग्भट: | नाधितश्च चरक येन, स वैद्यो यम किंकर:||

सुश्रुत जिसने सुना नहीं, वाग्भट्ट जिसको वाग्भट्ट (कंठस्थ) नहीं, चरक का जिसने चिकित्सा उपक्रम पढ़ा नहीं, वो वैद्य वैद्य नहीं, यम का दूत है।

यात्रा जारी है……