पंचकोष विज्ञान और पंचकोष आधारित विकास

मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है ? जीवन की सार्थकता कहाँ पर है ? विकास का परमोच्च शिखर क्या है ? तृप्ति और आनंद की प्राप्ति किस बिन्दु पर है? इन सब प्रश्नों के जवाब तब मिलते हैं इसकी अनुभूति तब होती है जब हम पंचकोश को जानते हैं। पंचकोश का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है । आयुर्वेद के ग्रंथों मे, अध्यात्म के ग्रंथों मे, उपनिषदों में पंचकोश का विस्तृत वर्णन किया गया है । भारतीय शिक्षा का तो फलितार्थ ही पंचकोश के विकास को बताया गया है ।

मानव अस्तित्व के पाँच तत्व माने गये हैं – शरीर ( इंद्रिय), प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा । इन पांचों का समन्वय होकर पूरा शरीर बनता है, जब तक ये न हो तब तक शरीर पूर्ण नहीं माना जाता है अर्थात क्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। इस अधिष्ठान को समझना प्राथमिकता है। इस शरीर को समझना प्रथम सोपान है  अर्थात अन्नमय कोश, शरीर के अंदर की शक्ति को समझना द्वितीय है अर्थात प्राणमय कोश, क्रिया के प्रेरक विचार या मन को समझना तृतीय है अर्थात मनोमय कोश, विचार की प्रेरक बुद्धि को समझना चौथा सोपान है अर्थात विज्ञानमय कोश और इन सब से भी ऊपर, बुद्धि से पर वह तत्व जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको समझना अंतिम सोपान है अर्थात आनंदमय कोश । आत्मा के ऊपर जो पांच परते हैं वो पांच कोष (sheaths) हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश। पांचों कोष उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। अन्नमय से सूक्ष्म प्राणमय, प्राणमय से सूक्ष्म मनोमय, मनोमय से सूक्ष्म विज्ञानमय और विज्ञानमय से आनंदमय कोष (चित्त) है जो सूक्ष्मतम है। 

विकास को बाहर से नहीं लाया जा सकता।  शरीर बाहर से नहीं बढ़ता अपितु अंदर कुछ ऐसी प्रक्रिया होती है कि शरीर अंदर से बढ़ता जाता है । कोश यह समझाता है कि जितनी भी प्रक्रिया होगी वह अंदर होगी और विकास अंदर से बाहर की ओर होता है। शरीर के भीतर से कुछ होगा वह कोशों की परत दर परत बाहर आएगा। 

यही जानकर ऋषि-मुनियों ने किस परत पर कार्य करना चाहिए उसका विज्ञान समझाया, वह कैसे करना है ये समझाया, क्या कार्य है, वह कैसे होता है और इसका परिणाम क्या है वह सब समझाया उसे ही पंचकोश का पूरा विज्ञान कहते हैं । यह कोश का विज्ञान है कि किस परत पर कार्य होता है। पंचकोश विज्ञान को जब हम जानते हैं तो उसमे क्रियाकारिता नहीं है, केवल समझना है । पंचकोश विकास को जब जानते हैं तो उसमें क्रियाकारिता है, कर्तव्य का बोध है कि क्या करना है उसके विज्ञान को समझना पंचकोश के विकास को समझना है।पंचकोश का विकास जब कहा जाता है तब विकास में कर्तव्य का बोध है कि क्या कार्य होता है।

संस्कृति आर्य गुरुकुलम् , पंचकोश आधारित विकास के सिद्धांत द्वारा विधिवत शिक्षा व जीवन के विकास का अविरत कार्य आदर्श समाज के निर्माण के लिये कर रहा है। पंचकोश विकास का मार्गदर्शन संस्कृति आर्य गुरुकुलम के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य मेहुलभाई सत्रों, शिविरों तथा अध्ययन विषयवस्तु के माध्यम से देते हैं।

Why is vedic education system relevant today

Family, health and education are the 3 foundational pillars of a society – this has been long understood and clearly narrated by our vedic era scholars. Modern day societies( largely grouped as countries run by governments, constitutions and law) agree and follow the same belief. Schemes, policies and systems in all modern day developed countries are centred around these three foundational pillars. 

Then

Indian society had successfully managed itself and flourished for thousands of years primarily due to all its practices, culture, knowledge and societal guidelines knitted to preserve and balance these three pillars of Family – the ashram and varna system; Health – Ayurved, developed and practiced as the science of health (physical, mental and intellectual) and life, which is pro-active, preventive and routine oriented instead of being reactive, corrective and need based; Education – which meant physical and intellectual knowledge to enable one to make the right decisions, strengthen the mind, excel in various skills and arts, to know one’s strengths and weaknesses and accordingly shape the future course for livelihood, society and country.

Now

The modern education system, in the last 100-200 years, has been unsuccessful in bringing about all this. There are a lot of shortcomings in this human psychology based modern education system (introduced by Macaulay)  and it is mandatory to improve this education system or to provide an alternative else the negative consequences of this otherwise improper education system will affect all the other streams and systems of the society and country. Education is the foundation of all other systems and thus it being right or wrong affects other systems deeply.

Its result is a deteriorated education system which focuses on literacy and rote memory more than knowledge. Educationalists, education policy experts, psychologists and employers – all are pointing to huge gaps of this system as lack of value education, shallow or incorrect understanding of concepts and subjects, multiple personality-character issues and mostly unemployable adults.

The new National Education Policy 2020 seems to be promising to address a lot of modern education system’s shortcomings. The key, however lies in implementation and how effectively is the system able to upskill and improve the teachers

Here is what our vedic education directs the student or the disciple to do. The focus is on making a learned and noble human being, who is respectful, capable, skillful and doesn’t shy away citing lazyness:

शिष्यानुशासनम् वेदमनूच्याचार्योन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ॥

vedam anucya ācāryaḥ antevasinam anuśāsti | satyaṁ vada | dharmaṁ cara | svādhyāyānmā pramadaḥ| ācāryāya priyaṁ dhanamāhṛtya prajātantuṁ mā vyavacchetsīḥ |satyānna pramaditavyam | dharmānna pramaditavyam kuśalānna pramaditavyam | bhūtyai na pramaditavyam |svādhyāyapravacanābhyāṁ na pramaditavyam|

तैत्तिरीयोपनिषत्

The journey continues…..

दर्शन क्या है?

दर्शन क्या है?
आधुनिक पाश्चात्य संसार में जो ‘philosophy’ शब्द है , वह दर्शन के लिये प्रयोग होता है। जिसे philosophy कहते हैं , वह दर्शन नहीं है। दर्शन उससे बहुत आगे है, बहुत विस्तृत है।

आदरणीय गुरुजी श्री मेहुलभाई आचार्य द्वारा दिया गया दर्शन का परिचय!

दर्शन का पहला रूप हम समझते हैं देखना। हम विग्रह का, भगवान की मूर्ति का दर्शन करते हैं,उसे देखते हैं। कभी किसी व्यक्ति को भी कहते हैं,”आपके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं” (दर्शन दुर्लभ हो गये, जबसे दिया उधार!) अर्थात् कोई व्यक्ति अब दिखता नहीं।  

जब भारतीय ‘दर्शन’ की बात करी जाती है तो वह है संस्कृत की ‘दृश’ धातु से बना, उससे निष्पन्न हुआ शब्द -दर्शन! 

आधुनिक पाश्चात्य संसार में जो ‘philosophy’ शब्द है , वह दर्शन के लिये प्रयोग होता है। जिसे philosophy कहते हैं , वह दर्शन नहीं है। दर्शन उससे बहुत आगे है, बहुत विस्तृत है। 

अनुमान से कुछ बताने, या सोचने, विचार करने, बहुत विचार करने को फिलोसॉफी कहते हैं। फिलोसॉफी विचार का शास्त्र है। 

फिलोसॉफी में सोचा जाता है, दर्शन में देखा जाता है।दर्शन निर्विचार की भूमिका में देखा जाता है। दर्शन प्रत्यक्ष है।

ज्ञान प्राप्त करने की, साधना की भारतीय विज्ञान में सीढ़ी है – श्रवण, मनन और निधि ध्यासन। श्रवण माने सुनना; मनन माने सुने हुए तथा स्वाध्याय द्वारा जाने गये ज्ञान को पुनः स्मरण करना, उसका संकलन करना तथा निधि-ध्यासन माने मनन किये हुए ज्ञान को स्तिथप्रज्ञ होकर उसका परीक्षण करना, उसे धारण करना व आत्मसात करना।  

हमारे ऋषि-मुनियों ने इस निधि ध्यासन की प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी बातें देखीं, अनुभव करीं और उनका साक्षात्कार किया। वो सोचीं नहीं, विचार नहीं किया, संशोधन नहीं किया; उन्होंने साक्षात्कार किया। साक्षात्कार होने के बाद कुछ रहस्य ऐसे पता चले जो हम इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते। वह, जिसका अनुभव इन्द्रियों रूपी साधन द्वारा नहीं हो सकता, उन्हें इन्द्रियातीत कहते हैं। ऐसे अनुभव को किसी साधन से नहीं जाना जा सकता, साधना से जाना जा सकता है। ऐसे ही कुछ इन्द्रियातीत अनुभव ऋषि-मुनियों को हुए। वह पता चला जो सृष्टि के पार है। 

इसीलिए तो ‘रिष’ धातु से ऋषि शब्द बना – ऋषति संसारस्य पारं दर्शयति, इति ऋषि:। ऋषि का अर्थ है, जो संसार से पर की बात बता सके, जो संसार के पार की बात को जान लेते हैं।

अतः निधि ध्यासन की प्रक्रिया में, ऋषि मुनियों के मन में प्रश्न उठे। प्रश्न उठने के पश्चात उन्होंने साधना करी। साधना के पश्चात उसके उत्तर मिले। उन्होंने इन्द्रियातीत अनुभवों से अपने मन में उठे प्रश्नों के उत्तर को जाना – ये शरीर कैसे चलता है ; मन कहाँ से आया है ; [केन: सितं प्रेषितं मन:, केन: प्राण:] कौन प्राण को भेजता है ; मरने के बाद क्या होता है ; आत्मा कहाँ चला जाता है और क्या-क्या जाता है ; सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ; क्यों उत्पन्न हुई ; ये सब क्यों हुआ ; मैं संसार में क्यों आया ; मुझे कौन चला रहा है ; मैं कहाँ जाऊँगा ; मैं क्या कर रहा हूँ ; यह सब क्या है ; ये सभी रचना और इसकी विधि क्या है?

वह उत्तर अनुभूति के स्तर पर मिले, शब्द के स्तर पर नहीं! उन्होंने उन उत्तरों को देखा और उसको कहा – दर्शन! 

उसके ऊपर शास्त्र लिखे गये। विभिन्न ऋषियों ने विभिन्न शास्त्र लिखे। 

मनुष्य के लिए साधना के कई  मार्ग हैं, प्राप्तव्य एक है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं : गणित में दो और दो चार होते हैं, एक और तीन भी चार होते हैं तथा आठ में से चार जाएँ, तो भी चार होते हैं। चार तक पहुँचना महत्वपूर्ण है और चार तक बहुत तरह से पहुँचा जा सकता है। ऐसी ही यदि 100 की संख्या पर पहुँचना हो तो कई मार्ग हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि केवल कोई एक मार्ग ही सही है। ऐसा नहीं है कि केवल दो और दो चार ही उचित है अथवा शुद्ध है, तीन और एक नहीं। यदि कोई ऐसा कहता है तो कहने वाला गणितज्ञ नहीं हो सकता!

ऐसे ही मुक्ति का यही एक मार्ग है और कोई मार्ग नहीं हो सकता, ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं है। 

ऋषि-मुनियों ने जाना कि परमात्मा की ओर जाने वाले कितने मार्ग हैं और भटकाने वाले कितने मार्ग  हैं। परमात्मा तक ले जाने वाले मार्गों की पूरी प्रक्रिया दी। सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ; हम कहाँ से आये; जन्म कैसे होता है; जन्म के समय पर गर्भ में हम कैसे आ जाते हैं; वहीं क्यों आते हैं; पूर्व जन्म कैसे होता है; पुनर्जन्म कैसे होता है – ऐसी बहुत सारी बातें लिखीं और उनका नाम बताया गया दर्शन शास्त्र!

हमारे ऐसे छह दर्शन मुख्य हैं:

  1. न्याय, (2) वैशेषिक, (3) सांख्य, (4) योग, (5) पूर्व मीमांसा (मीमांसा शास्त्र) तथा (6) उत्तर मीमांसा (वेदांत)।

इन छह दर्शनों के शास्त्र भिन्न ऋषियों ने लिखे हैं। वेदों को आधार मानकर, वेदों के वाक्यों को आधार मानकर लिखे गये ये छह दर्शन वैदिक दर्शन कहलाते हैं। 

अन्य तीन दर्शन हैं :

(7) जैन दर्शन, (8) बौद्ध दर्शन और (9) चार्वाक दर्शन

यह अवैदिक दर्शन कहलाते हैं क्योंकि वो वेदों को प्रमाण नहीं मानते हैं। इनमें दो दर्शन ऐसे हैं जो पूर्व व पुनर्जन्म को मानते हैं, सृष्टि के रहस्य को मानते हैं – जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन। ये दोनों दर्शन हैं। सृष्टि की, पूर्वजन्म की, पुनर्जन्म की पूर्ण  प्रक्रिया बताते हैं।  परंतु ये वेदों के वाक्यों को प्रमाणभूत नहीं मानते। वह मानते हैं कि वेद वाक्य प्रमाण हो भी सकता हैं और नहीं भी हो सकता है। 

नौंवा और अंतिम दर्शन है चार्वाक दर्शन। चार्वाक दर्शन रहस्य को नहीं मानता है। वह भोगों को मानता है:

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। 

अर्थात् जब तक जीवन है, सुख से जियो, भोग-आनंद करो। यह देह भस्मीभूत होने के बाद कहाँ पुनः आना है।  

चार्वाक दर्शन कहता है कि सब कुछ यहीं, इसी संसार में है, इसीलिए सब भोग लो क्योंकि उसके बाद जन्म ही नहीं है। इस संसार से बाहर कुछ होता तो जन्म होता। कुछ नहीं है इसीलिए जन्म भी नहीं है। आत्मा, परमात्मा, सत्संग – यह सब कुछ नहीं होता, इसका कोई लाभ नहीं। इस दर्शन के अनुसार: 

त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः। बुद्धि पौरुष हीनानां जीविका धातु निर्मिता।। 

अर्थात् बुद्धि और पौरुष बिना के लोग ऐसी लोक-परलोक की बातें करते रहते हैं। 

इन सबका उत्तर वैदिक दर्शन में, न्याय व वैशेषिक आदि में बहुत  विस्तारपूर्वक दिया गया है। यदि एकाग्रचित्त होकर पढ़ेंगे तो संपूर्ण दर्शन समझ में आ जाएगा। 

इस तरह से नास्तिक दर्शन और आस्तिक दर्शन, दोनों दर्शन हैं। पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष दोनों हैं। प्रत्येक तथ्य यहाँ तर्क से स्पष्ट किया गया है।  दर्शन शास्त्र में कुछ भी तर्क अथवा अर्थ के परे नहीं है। बुद्धि के साक्षात्कार की भूमिका पर आकर जो लिखा गया वो दर्शन शास्त्र है। 

इसके लिए गीता में स्वयं कृष्ण ने ही ‘ज्ञान क्या है’ ये बताया है:

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥

अध्यात्मज्ञान में स्थित होना और तत्वज्ञान के अर्थ में परमात्मा को ही देखना (जो दर्शन शास्त्र बताता है),वही ज्ञान है। तत्वज्ञान कराने वाला जो दर्शनशास्त्र है, वह मेरे मत में ज्ञान है, और अन्य सब अज्ञान है। 

तो दर्शन शास्त्र क्या है? ऋषि-मुनियों ने जो अलग-अलग मार्गों से अनुभूति करी – सृष्टि कैसे बनी, कौन चलाता है, कैसे चलती है, आदि, उस अनुभूति से जो भिन्न-भिन्न वाक्य निकले, जिनकी दिशा भिन्न हैं, कहने की विधि भिन्न है, लेकिन पहुँचना एक ही स्थान/लक्ष्य पर है- मुक्ति! मोक्ष!; इन अनुभवों का, देखी हुई अनुभूतियों का नाम दर्शन है। 

वैदिक ज्ञान की सूक्ष्म समझ का उदाहरण: न्याय दर्शन अथवा भारतीय भौतिक शास्त्र/भौतिकी (Indian Physics)

आधुनिक विज्ञान ने लगभग 1800 ई. में परमाणु (atom) की व्याख्या करी तथा उस पर शोध आरम्भ किया। 

न्याय दर्शन, जिसे Indian physics कहा जाता है, उसके रचयिता गौतम मुनि ने परमाणु के बारे में लिखा है। परमाणु शब्द, आज जिसे हम atom कहते हैं, वो वेदों के बाद,पहली बार गौतम मुनि ने बताया है। परमाणु की व्यवस्थित व्याख्या; परमाणु क्या होता है; इतना सूक्ष्म होता है कि दिखता नहीं है, तो भी वह होता है; उसका यथार्थ माप, परिमाण; उसकी शक्ति; यह पूर्ण विवरण गौतम मुनि ने लिखित किया।  जिस समय यूरोप ने परमाणु की कल्पना भी नहीं करी थी, तब परमाणु का पूरा विवरण गौतम मुनि ने लिखा था। 

जालान्तर्गते भानौ यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य षष्ठतमो भागः परमाणुः स उच्यते ।।

वातायन के जाल से (खिड़की से) अंदर आती सूर्य की किरणों में जो अति लघु कण दिखते हैं, उसके छठे भाग को परमाणु कहते हैं। 

यह उदाहरण दर्शाता है की न तो वैदिक ज्ञान लुप्तप्रयोग अथवा अप्रचलित (obsolete) है तथा न ही ये व्यर्थ अथवा अप्रासंगिक (irrelevant) है। आधुनिक विज्ञान के तीनों भागों – भौतिक शास्त्र (physics), रसायन शास्त्र (chemistry) और जीव शास्त्र (biology, zoology) का उद्भव इसी भारतीय दर्शन से हुआ है। इसके सभी मूलभूत सिद्धांतों को जानना, वैदिक विद्या को पढना व सीखना, आज के समय में प्रखरतम, तेजस्वी व रचनात्मक वैज्ञानिक व दार्शनिक दोनों बना सकता है। 

इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: । मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: ।।

भगवद्गीता 3.42

इंद्रियों के परे मन है, मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है ।

यात्रा जारी है….

गुरुकुल

‘गुरुकुल’ शब्द से साक्षात्कार होते ही सबसे पहले आपके मन में क्या आता है? कदाचित पहला तो अंतर्जाल पर सर्वाधिक प्रचलित वो चित्र जिस में एक बरगद के वृक्ष के नीचे एक दाढ़ी वाले वृद्ध आचार्य बैठे हैं और उनके सामने दो शिखाधारी ब्रह्मचारी शिष्य बैठे हैं(इस चित्र के कुछ परिष्कृत रूप भी हो सकते हैं)। दूसरा ये विचार की गुरुकुल एक ऐसा स्थान है जहाँ वेद-वेदांगों का पठन-पाठन होता है (उपर्युक्त चित्र के पात्रों द्वारा), बहुत सारी गायें होती हैं, वो वन क्षेत्र में स्थित होता है और सन्यासी लोग शिक्षण का कार्य करते हैं।

आपने जो जाना-सुना है उसके आधार पर यह भी हो सकता है कि आप सोचते हैं – गुरुकुल अर्थात एक कोई बहुत बड़े प्रचारक या सम्प्रदाय प्रमुख का स्थान! जहाँ कई अन्य धार्मिक, आध्यात्मिक कार्य होते हैं, और वहाँ बच्चे (मुख्यतः कुमार बालक) भी पढ़ते हैं, जो उन प्रमुख या धर्मगुरु की परंपरा अथवा ‘गद्दी’ का कदाचित कालांतर में निर्वहन करेंगे। ये सभी रूप सत्य हैं। किन्तु केवल ये ही गुरुकुल हैं और यही पूर्णरूप है, ऐसा भी नहीं है।

आजकल बहुत लोग गुरुकुल की ओर आकर्षित हो रहे हैं और खोज-खोज के उसके बारे में पढ़ रहे हैं, लिख रहे हैं। इस आकर्षण के कई कारण हैं –

  • एक बड़ा कारण है (भारत में) की लोगों को मैकॉले द्वारा स्थापित और आज भी चलती शिक्षा व्यवस्था के तामसिक उद्देश्य का पता चल रहा है। इसके लिए षड्यंत्र शब्द का प्रयोग भी किया जाता है।
  • वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की अपूर्णता दिख रही है (भई  कुछ भी कहो,स्थापित तो मैकॉले ने ही करी थी), उसके परिणाम दिख रहे हैं । तो उसका हल खोजने के लिए अपनी प्राचीनतम शिक्षा व्यवस्था का आकलन करना अथवा उसकी ओर जाना स्वाभाविक ही है। 
  • लोग अपनी संस्कृति, धरोहर और ज्ञान को बचाने के लिए या उसके पुनरुत्थान की प्रेरणा से उसके बारे में जानना चाहते हैं, उससे जुड़ना चाहते हैं।
  • आधुनिक समय लोगों के किसी न किसी विषय का विशेषज्ञ बनने का है अर्थात उसकी विस्तृत जानकारी लेने का है, तो गुरुकुल व्यवस्था के बारे में जानकर उसके छोटे छोटे अंशों को एक चूल अथवा प्लग-इन की तरह प्रयोग करके आधुनिक व्यवस्था को कैसे परिष्कृत किया जा सकता है, ये उत्तर मिलने की अपेक्षा है।
  • और आजकल गुरुकुल शब्द तथा विचार चर्चा में है तो इसके बारे में थोड़ा बहुत जानकर कुछ की अपने चने भुनाने की इच्छा है।

अन्य कारण भी हैं, परंतु मुख्यतः यही दृष्टिगोचर हैं। जब किसी भी कारणवश लोग इसकी ओर आकर्षित होते हैं तो दो-तीन मूल प्रश्न होते हैं, सबके मन में :

  • गुरुकुल क्या होता है? चलता कैसे है?
  • ये किस प्रकार की व्यवस्था है? (गुरु-शिष्य परंपरा का विवरण क्या है)
  • गुरुकुल में पढ़ के बच्चे आगे जाकर क्या बनते हैं? शिक्षा की मुख्यधारा में कैसे मिलते हैं? उन्हें नौकरी मिलती है?
  • बच्चे पढ़ते कैसे हैं गुरुकुल में?

जो लोग केवल विषय के तरह गुरुकुल का अध्ययन करने के इच्छुक होते हैं, उनके प्रश्न होते हैं:

  • गुरुकुल व्यवस्था कैसे चलती है? इसके घटक क्या हैं?
  • वैदिक शिक्षा पद्धति क्या है? इसका क्या विस्तार है?
  • ये आधुनिक व्यवस्था से भिन्न कैसे हैं?

इन सभी प्रश्नों के तकनीकी उत्तरों की चर्चा भी किसी अन्य ब्लॉग पोस्ट में करूँगी। वैसे तो कई सामान्य और गण्यमान्य व्यक्ति इस पर बहुत कुछ कहते दिखाई देते हैं, किन्तु गुरुकुलों की संख्या बढ़ाने के लिए उनमें से कितने धरा पर कार्य कर रहे हैं, उसका शुद्ध अनुमान नहीं हो पाया है मुझे!

 आज आपको अपने गुरुकुल (sanskrutigurukulam.com) के एक सामान्य दिवस के बारे में बताती हूँ। स्वयं जानिए तथा विचार करिए की क्या क्या भिन्न अथवा नवीन है आपके लिए !

सूचना : गुरुकुल में विद्यार्थी (कन्या व कुमार), गुरुजी (आचार्य जी, आयुर्वेदाचार्य, दर्शन शास्त्री, गीता दर्शन विशेषज्ञ), गुरुमाता (गुरुपत्नी, वैद्या, शिक्षिका) तथा शिक्षक – सभी अंतःवासी हैं, अर्थात सभी गुरुकुल परिसर में ही रहते हैं। कन्याएँ और शिक्षिकाएँ एक कक्ष में निवास करती हैं। इसी तरह शिक्षक और कुमार एक कक्ष में निवास करते हैं। सबकी अपनी-अपनी शैय्या है और एक तीन भाग वाला कपाट! व्यक्तिगत कहलाने योग्य जो कुछ है वो उसमें रहता है, मुख्यतः वस्त्र । पुस्तिकाएँ आदि अध्ययन कक्ष में रहती हैं तथा पुस्तकें सब साझा करते हैं तो वो पुस्तकालय में रहती हैं। दिवस का आरम्भ सूर्योदय से एक घड़ी पहले (लगभग 45 मिनट) या कहें 5 बजे के लगभग होता है ।


दिवस प्रारंभ:

 किसी को विशेष यत्न से नहीं उठाना पड़ा, स्वयं अथवा एक नम्र पुकार से उठ गये हैं । उठते ही अपने अपने करों में प्रातः मंत्र पढ़ा । [नित्य कर्म स्नानादि के पश्चात लगभग छह बजे प्रार्थना सत्र होता है] सत्र से पहले छात्रों (अर्थ छात्र-छात्राएँ  दोनों) को सभा कक्ष का मार्जन (साफ-सफाई) करना है, धूप-दीप और अग्निहोत्र के कुंड आदि सब व्यवस्थित करना है। तीन छात्र ये सब करने दौड़ गए हैं। [यह करने के लिए आचार्य जी ने अथवा शिक्षकों ने कोई नियम नहीं बाँधे हैं। एक बार सिखा कर सबको कहा गया की छात्रों को ही सब नियोजित/व्यवस्थित करना है। आपस में परामर्श करके उन सबने अपने कार्य बाँट लिए हैं] एक छात्र प्रार्थना आरम्भ होने तक कक्ष में नहीं पहुँच पाया तो उसने स्वेच्छा से उस दिन का अल्पाहार (नाश्ता) त्याग दिया है। [ये बाध्य नियम नहीं है। तदापि यदि किसी कारणवश विलंब हुआ तो वो छात्र स्वेच्छा से अल्पाहार का त्याग करे, ऐसा उन्हें सुझाया गया है।] वास्तव में उस छात्र को एक अन्य छात्र के अधिक समय तक स्नानघर में रहने के कारण अपना स्नान करने में विलंब हुआ तो उस कारण छात्र ने भी मन ही मन निश्चित किया को वो भी आज अल्पाहार नहीं लेगा। [ये सब आपस में कह-सुन लेते हैं छात्र, शिक्षकों को इसकी कोई जानकारी नहीं होती]

प्रार्थना में सरस्वती वंदना के साथ वेद-उपनिषद-संहिता आदि के कुछ मंत्र सभी सस्वर गा रहे हैं। एक शिक्षक मंजीरे बजा रहा है, इससे सबका संगीत लय का अभ्यास भी साथ-साथ हो रहा है । ठीक सूर्योदय के समय अग्निहोत्र हवन हो गया (जो 5 मिनट से अधिक का समय नहीं लेता) । फिर एकाग्रता के अभ्यास के लिये तथा अग्निहोत्र की अग्नि के लाभ व धूम्र के सेवन करने के लिए, कुछ देर सब ध्यान में बैठे हैं। आज के ध्यान का संचालन एक छात्र कर रहा है।  कल वो प्रार्थना मंत्र बोलने के समय शांत बैठा था, इसलिए उसे आज ध्यान सत्र का संचालन करने को कहा गया है । वर्तमान मास में श्री सूक्त का पाठ चल रहा है, एक-दो छात्रों के उच्चारण में कुछ त्रुटि अभी शेष रह गयी है, अधिकतर का उच्चारण व स्वर शुद्ध है। आज श्री सूक्त का पाठ करते 25 दिन हो गए हैं, सभी छात्रों को कंठस्थ हो गया है, किसी को पुस्तिका में देखने की आवश्यकता नहीं पड़ रही । पाठ के पश्चात सभी ने सूर्य नमस्कार के 1 मंत्र पे एक आवर्तन की गणना से 12 आवर्तन किये तथा एक अतिरिक्त सूर्य नमस्कार अपने माता-पिता के चरणों में नमन करते हुए किया । प्रार्थना सत्र सम्पन्न हुआ । कुछ छात्र सभा कक्ष को व्यवस्थित करने में लग गए हैं और जिनका क्रम था वो गैया दुहने की तैयारी करने चले गए हैं । वो गौशाला का (जिसमें एक गाय पुष्या तथा एक उसकी बछिया सुरभि है) मार्जन करेंगे, उसके भोजन की व्यवस्था करेंगे, दूध दोहेंगे और जो छात्र अभी 1 मास पहले आया है आज उसे दूध दोहना सिखाना आरम्भ करेंगे।

अल्पाहार से पहले झटपट कक्ष का मार्जन करके, कपड़े धो के सब रसोई घर में आ जुटे हैं । मार्जन करके आसान बिछा के, अपनी अपनी थाली और चषक (गिलास) लेकर बैठ गए हैं। [लगभग 8 बजे अल्पाहार का समय होता है। रसोई घर में भोजन बनता है और एक साथ पंगत में बैठकर खाया जाता है। परोसने का कार्य करने वाला उस समय सबके साथ नहीं खाता है, सबके उपरांत खाता है] आज अल्पाहार में अपनी गैया का उसी प्रहर का दूध (इलायची केसर डाल कर) मुरमुरे और एक छात्र के घर से आयी मिठाई है [किसी के घर से मिठाई आती है तो सबके लिए आती है, केवल उस छात्र के लिए नहीं तथा मिठाई अनिवार्य रूप से घर की बनी होती है। बाहर की/हलवाई की बनाई मिठाई बच्चों के लिए लाने की अनुमति नहीं है]। नए छात्र को अभी सुबह अपने आप च्यवनप्राश खाने का तथा त्रिफला से नेत्र प्रक्षालन का अभ्यास नहीं है, कभी कभी भूल जाता है, आज भी भूल गया ।

सबका अल्पाहार थाली में आ जाने के बाद सबके भोजन मंत्र बोला [4 मंत्रों का समूह है भोजन मंत्र यहाँ] और आनंद से अपना अपना अल्पाहार ग्रहण किया । सभी के लिए पर्याप्त है ये देख लेने के पश्चात! गुरु माँ सुभाषित से उद्धृत करके कहती हैं कि भोजन करते समय सदैव दूसरों की सोचो और मरते समय सदैव अपनी सोचो!

अल्पाहार के पश्चात सब अपनी पुस्तकें आदि देखने में व्यस्त हैं क्योंकि 9 बजे से पुनरावर्तन सत्र आरम्भ हो जाएगा । सभी शिक्षक, गुरुजी अपने अपने अध्यनन में व्यस्त हैं। गुरुमाता पाकगृह का दैनिक नियोजन देख रहीं हैं । 9 बजे अध्ययन कक्ष में सत्र आरम्भ हो गया है, पहले गीता के 2 अध्याय, तत्पश्चात शब्दरूप (तथा गुरुजी ने लोट लकार के 25 धातु रूप भी कंठस्थ करने को कहा है), योगसूत्र का द्वितीय पाद तथा अष्टाध्यायी का प्रथम अध्याय करते करते एक घंटा हो गया। क्योंकि इस सत्र में कोई शिक्षक नहीं होता तो आज सस्वर पुनरावर्तन करते करते सबने प्रतियोगिता भी कर ली की कौन सबसे उच्च स्वर में पूरे समय गा लेता है।

दूसरे कक्ष में जहाँ गुरु जी सभी शिक्षकों के साथ सत्र में थे, वहाँ से गुरुमाता अपना सत्र लेने के लिए आती दिख रहीं हैं। सब बच्चे दौड़ गए हैं, किसी की निवास कक्ष में पुस्तिका छूट गयी है, किसी के वस्त्र सुखाने रह गए हैं, एक को पानी पीना है तो एक शीघ्रता से सुरभि को सुप्रभात कहने गया है। सबके पुनः आगमन के पश्चात गुरुमाता ने आज ज्योतिष का सत्र लेना आरम्भ कर दिया है। बाहर ही ले रहीं हैं आज का सत्र!

आज उन्होंने तीन पाद (45 मिनट) का सत्र लेने का सोचा है, ज्योतिष-भूगोल का प्रारंभिक परिचय इतने समय में हो जाएगा (उधर दो शिक्षक जो गुरुजी से पढ़ते भी हैं, उनका सत्र चल रहा है)। कक्षा में किसी छात्र ने नक्षत्रों की बात सुनते सुनते ध्रुव तारे की पहचान करने के लिए कुछ प्रश्न पूछ लिया तो महान बालक ध्रुव के चरित्र की भी चर्चा आरम्भ हो गयी।  सप्तऋषि की कथा भी गुरुमाता ने सबको विस्तार से बताई। इतने सब में 11:45 हो गए हैं । कुछ गृह कार्य देकर गुरुमाता भोजन बनाने वाली हमारी अन्नपूर्णा, वैशाली बहन (और उनकी काकी) की सहायता को आ गयी हैं।

दूसरा सत्र के लिए अंशु दीदी ने हिंदी का संज्ञा से विशेषण बनाने का सत्र लेना निश्चित किया था, किन्तु अब भोजन में अधिक अवकाश शेष न होने के कारण उन्होंने विषय परिवर्तन कर लिया है । वो सब छात्रों के साथ पृथ्वी का गोलक (ग्लोब) लेकर बैठ गयी हैं । कौन कौन से महाद्वीप हैं, कहाँ हैं, वो  दिखा रही हैं, भारत के मानचित्र की भी पहचान करा रही हैं । साथ के साथ संगणक (कंप्यूटर) पर गूगल मानचित्र खोलकर महाद्वीप से देश, देश से राज्य, राज्य से नगर और नगर से अपने गुरुकुल का स्थान भी दिखा दिया है । अक्षांश और देशांतर (latitude and longitude) भी बताये हैं । एक विद्यार्थी ने अपनी पुस्तिका में गूगल में दिख रहे अपने गुरुकुल के अक्षांश और देशांतर अपनी पुस्तिका में लिख लिए हैं (इस बुधवार जब अपने अभिभावकों से बात करेगी तो उन्हें बताएगी की गुरुकुल का भूगोलीय स्थान क्या है)। सब विद्यार्थियों को गृहकार्य मिला है सभी महाद्वीपों के नाम कंठस्थ करने का तथा अगले दिन उन्हें गोलक पे खोज कर दिखाने का! गोलक पे पृथ्वी का भ्रमण कर के छात्रों ने अंशु दीदी से वचन ले लिया है की आज भोजन और संध्या वंदन के पश्चात वो उन्हें अपनी न्यूज़ीलैंड यात्रा का वृतांत सुनाएँगी।

भोजन का समय हो गया है, वैशाली दीदी ने सबको भोजन के लिए पुकारा है। सब लोग रसोईघर में आ गए हैं, दो छात्रों ने सबके लिए आसन बिछा दिए हैं। एक छात्रा हाथ धोने गयी तो उसे भमरी (ततैया) ने काट लिया है। उसने किसी को नहीं पुकारा, तुलसी के पौधे की जड़ से मिट्टी ली और काटे स्थान पे लगा ली है और आ कर अपने भोजन आसन पर बैठ गयी है। आज गुरुजी से मिलने कोई अतिथि आये हुए हैं, वो भी साथ भोजन के लिए बैठे हैं। परोसने के पश्चात भोजन मंत्र बोल कर सब भोजन कर रहे हैं। बच्चे छिपी दृष्टि से अतिथि को देख रहे हैं क्योंकि वो खाते हुए दोनों हाथों का प्रयोग कर रहे हैं । छोटी आयु वाले छात्र अपनी स्मित छिपा नहीं पा रहे हैं । वैशाली दीदी ने आँखों ही आँखोँ में उन्हें ऐसा करने से मना किया तो गंभीर होने का प्रयत्न कर रहे हैं । भोजन के साथ आम अथवा छाछ में से एक को चुनना है, अधिकतर विधार्थियों ने आम और कुछ ने छाछ को चुना है । अतिथि ने दोनों के लिए हाँ कही तो बच्चे पुनः चकित हैं – ये तो विरुद्धाहार भी करते हैं ! अपनी अपनी गति से भोजन के पश्चात सबने अपने बर्तन धो कर यथास्थान रख दिए हैं। अब विश्राम का  समय है, लगभग 4 बजे तक का समय अपनी अपनी रीत से व्यतीत करने की अनुमति है (बस सोना नहीं है)।

यदि इस समय आप को अदृश्य रूप से परिसर में भ्रमण करने को मिले तो दिखेगा कि कोई अपना चित्र पूरा कर रहा है । एक छात्र ‘आंनद मठ’ पढ़ रहा है क्योंकि उसके साप्ताहिक कार्य में उसे ये उपन्यास पढ़ के इसकी कथा संक्षिप्त रूप में गोष्ठी में सुनानी है । एक अन्य विद्यार्थी  बछड़ी को आम के पेड़ से बांध, वहीं खाट बिछाकर विश्राम कर रहा है । उसे पता है उसने अभी तक रविवार को आने वाले गणित के गुरुजी का गृहकार्य पूर्ण नहीं किया है परंतु इस समय वो मोरों के खेत से चले जाने की राह देख रहा है क्योंकि उसे उनके पंख बटोरने हैं । दूसरी ओर, गौशाला के समीप बड़ के पेड़ के नीचे दो विद्यार्थी आज का गृहकार्य कर रहे हैं । वरिष्ठ विद्यार्थी कनिष्ठ विद्यार्थी को आज के सत्र के कुछ अंश विस्तार से बता रहा है। एक और निवास कक्ष में दो मिल के एक के साथ शतरंज खेल रहे हैं। एक विद्यार्थी पृथ्वी के गोलक के समीप बैठा विचार में है। वहाँ से जाते शिक्षक को देखकर पूछ रहा है यदि हम धरती को अपनी माता कहते हैं तो उस पर पग रख कर चलते हुए तो हम उसका अपमान कर रहे हैं, हम अपनी माता को कहाँ कभी पग लगाते हैं? शिक्षक (मन में उसके इस सुंदर प्रश्न पर प्रसन्न होते हुए) उसे बता रहे हैं कि इसीलिए तो हम प्रातः उठते ही भूमि पर पग धरने से पहले उससे क्षमा माँगते हैं (समुद्रे वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते । विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।) । उधर वो छोटा वाला बड़े भैया को ‘आनंद मठ’ पढ़ते देख कुछ गुरु पढना चाहता है, तो खोज कर पुस्तक मेले से स्वयं चुन के लाई पुस्तक ‘1965 के युद्ध की शौर्य गाथाएँ’ निकाल रहा है।

कितने समय में वो गृह कार्य पूर्ण करेगा, कितने समय खेलेगा और किस समय पुस्तक पढना आरम्भ करेगा, ये सब मानसिक योजना उसने बना ली है । गुरुमाता के कक्ष की ओर जाएँ तो वो कुछ लिख रही हैं (कुछ दिन से उन्होंने गीता के प्रत्येक श्लोक पे एक गीत लिखने का क्रम आरम्भ किया है, कदाचित छठे अध्याय पे हैं वो आजकल)। गुरुजी संगणक कक्ष में अपने यूट्यूब के सीधे प्रसारित सत्र में व्यस्त हैं ।

मोरों की वाणी से संध्या के आने की सूचना मिल गयी है और विद्यार्थियों का कलरव सुनाई दे रहा है । कोई पौधों में पानी दे रहा है, दो गैया के दुहने के कार्य में रत हैं, दो चिड़ी-छक्का (badminton) खेल रहे हैं। कुछ विष-अमृत खेल रहे हैं । 1-2 घंटे के समय में ये सब कुछ करने के पश्चात संध्या के भोजन की पुकार आ गयी है। सभी छात्र रसोईघर की ओर जाते हुए सोच रहे हैं की आज क्या होगा भोजन में – खिचड़ी कढ़ी, छुंके हुए चावल, जौ की भाकरी और शाक, पोहे, मुठिया अथवा अन्य कुछ ? पहुँचे तो पता चला कि आज दाल ढोकली और गेहूँ की भाकरी है । अतिथि सांयकाल के भोजन में भी साथ हैं और दोपहर के भोजन की प्रशंसा करते नहीं थक रहे हैं कि सात्विक भोजन भी इतना स्वादिष्ट हो सकता है उन्हें कोई कहता तो विश्वास नहीं करते परंतु अब तो स्वयं अनुभव किया है इसलिए अत्यंत आनंदित हैं। भोजन के पश्चात इतने प्रेम से भोजन खिलाने के लिए गुरुमाता और वैशाली बहन को उन्होंने बहुत धन्यवाद दिया है।

सभी छात्र संध्या वंदन के लिए एकत्रित हो गए हैं। एक छात्र की प्रतीक्षा है, वो सदैव अपनी ‘गीता’ कहीं भी रख के भूल जाता है और समय पर सबको प्रतीक्षा करवाता है। उसके आ जाने पर संध्या धूप-दीप के पश्चात गीता के सत्रहवें अध्याय का परायण करने बैठ गए हैं।

अतिथि के आया होने के कारण आज सांयकाल का गुरुजी का संस्कृत का सत्र नहीं हो रहा तो सब हारमोनियम पर आ जुटे हैं । संगीत के गुरुजी शनिवार को आते हैं, इस शनिवार उन्हें 6 अलंकार बजा के दिखाने हैं पर उसे छोड़ के आज एक गुजराती भजन (जो किसी पुरानी पुस्तिका में स्वरों के साथ लिखा मिल गया है) को हिंदी में अनुवाद कर के उसे बजाने और गाने का भरपूर प्रयास हो रहा है। तभी सबको याद आया की आज तो अंशु दीदी से न्यूज़ीलैंड की यात्रा का वृतांत सुनना था, तो सभी संगणक कक्ष में एकत्रित हो गए हैं  केवल वो ‘आनंद मठ’ पढने वाले बड़े भैया को छोड़कर, वो तो आज उस भजन को साधकर ही रहेंगे । उनका अभ्यास पंचम स्वर में चल रहा है, गीत के मुखड़े में इतनी बार भगवान से वरदान माँगा है कि आज तो वो साक्षात प्रकट हो कर दे ही देंगे, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

उधर अंशु दीदी ने प्रयत्न किया की वो वृतांत सुनाना अभी टाल दें, छात्रों से कह रही हैं कि शुक्रवार के स्थान पर आज ही संगणक (computer) का सत्र कर लेते हैं क्योंकि गुरुजी आज व्यस्त हैं, परंतु ये युक्ति चलती नहीं दिख रही। अंततः उन्होंने अपना लैपटॉप बंद किया और न्यूज़ीलैंड के तूफान में फँसे अपने विमान का वृतांत सुना रहीं हैं, बच्चे पृथ्वी का गोलक भी उठा लाए हैं, देखने के लिए की वेलिंगटन से ऑकलैंड कितनी दूर है। अंशु दीदी ने वृतांत सुनाते सुनाते सभी महाद्वीपों के नाम भी पूछ लिए हैं (जो प्रातः सत्र में गृहकार्य था)। वृतांत का अंत आते आते 9:30 बज गए हैं।

सोने का प्रकरण आरम्भ हुआ है। हाथ-मुँह धोना, शैय्या लगाना, शेष गृह कार्य करना, दूध-औषधि लेना, शैय्या पे बैठकर पुस्तक पढना, सब चल रहा है। वो छोटा वाला बड़े रस से ‘1965 के युद्ध की शौर्य गाथाएँ” खोलकर कर पढ़ रहा है। 2-3 पृष्ठ पढ़ के अकस्मात अध्ययन कक्ष की ओर दौड़ गया है और गोलक पर कुछ देख कर वापस आ गया है। सोने के लिए शैय्या पे लेटकर कुछ मुस्कुरा रहा है। उसने महाद्वीपों और भारत के स्थान के साथ-साथ ये भी जान लिया है की पाकिस्तान और चीन भारत के दो सीमा लगते पड़ोसी देश हैं। अब कल वो गृहकार्य बताने के समय सबको ये अतिरिक्त जानकारी भी देगा (उसे आभास नहीं हो पाया है कि अंशु दीदी ने तो वृतांत सुनाते सुनाते गृहकार्य जाँच भी लिया है) । और एक प्रश्न भी पूछना है उसे । पुस्तक में समझ नहीं आया कि पाकिस्तान मानचित्र में भारत की तुलना में इतना छोटा से देश है, उसने भारत से युद्ध क्यों किया था ? कल ये प्रश्न पूछ लेगा ।

उधर कन्याओं के कक्ष में वो छात्रा जिसे भमरी ने काटा था, वो ‘रश्मिरथी’ की प्रसिद्ध ‘कृष्ण की चेतावनी’ से “हा हा दुर्योधन बाँध मुझे” शैय्या पे लेटकर शौर्य रस में गा रही है । अन्य कन्याओं के निवेदन पर उसने सबको अपने मौन से कृतार्थ किया है और नेत्र मूँद लिए हैं ।

ऐसी ही कुछ न कुछ सोचते, कहते सभी निद्रा देवी की शरण में चले गए हैं । गुरुजी अभी भी सभा कक्ष में अतिथि के साथ विमर्श कर रहे हैं। वो अतिथि किसी औषधि पर शोध कर रहें हैं कदाचित, गुरुजी से मार्ग दर्शन लेने आये हैं।


तो ये था गुरुकुल का एक दिवस !

आपको क्या लगता है ? बच्चों को मन उचाट होने का, मोबाइल पे आंखें गड़ा के खेल खेलने का, टी वी देखने का अथवा मन चुराने का, अवकाश है ?

क्या आपको आभास हुआ कि इस एक दिवस में शिक्षण की 26 में से 7 वैदिक पद्धतियों का सहज प्रयोग हुआ ?

क्या आप जान पाए, कितने विषय पढ़ाये गये ?

आचार्यात् पादं धत्ते पादं एकं स्वमेधया ।

पादं एकं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालेन पच्यते ॥

¼ आचार्य से सीखा जाता है, ¼ स्वध्ययन से, ¼ सहपाठियों के साथ तथा ¼ (ज्ञान) समय के साथ पचता है।

यात्रा जारी है.……

Why this blog?

Here is why I have started writing this blog called ‘Journey to Brahm Varchas’.

Through this blog, I want to share my journey of a beautiful lifelong saadhana that I have started to connect to Bharat’s very strong and evolved vedic foundations that can shape the current India !

Time is always in motion in form of Kaalchakra. Life would have changed a lot in the last 5 years for many. My life has changed a lot as well – from what I used to be to what I am now – personally, professionally, mentally and spiritually – and is still changing, progressing.

What I used to be..

What I am now..

A lot of people I know, find these changes somewhat unbelievable, bold, daring, unrealistic, motivating…I can add on a lot to this list 🙂 Whatever might be their observation, one thing that all of them say unequivocally is that I should share these experiences, the changes, various learnings and the uniqueness (they see it as so!) in my perspective.

While my perspective may or may not be unique, but as someone who now has seen both ways of life – the modern world way of life and the vedic-satvic way of life – I can now see and understand a lot of what is truly different, what surprises and difficulties one faces if adapting to a vedic lifestyle. Thus, I draw very different observations and sometimes even conclusions from the same situation that I used to ascertain differently earlier. And I am here to share them with you. I would try to write both in Hindi and English languages.

There isn’t going to be any chronology in which I knit and share my experiences and learnings, so enjoy the waves as they come!

~ Anshu