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मेरा गीता पथ
गीता विश्व की सर्वाधिक अनुवादित पुस्तक है। गीता प्रेस, गोरखपुर का गीता की प्रतियाँ छापने का विश्व रिकॉर्ड है। सबसे प्रिय व प्रचलित ग्रंथों में से एक है भगवद्गीता! आज गीता-जयंती है, मोक्षा एकादशी – मार्ग शीष शुक्ल एकादशी!
अनेक गहन लेख, विश्लेषण आज देखने और पढ़ने को मिले।
दो वर्ष पहले तक मुझे कुछ नहीं पता था गीता जयंती के बारे में और गीता की बारे में केवल जानकारी थी। कितने योग हैं, प्रत्येक का क्या संदेश है, भीम के शंख का नाम क्या है, ईश्वर को कौन प्रिय है, निष्काम कर्म के सोपान क्या हैं – कुछ नहीं पता था।
घर में चार या पाँच गीता, अलग अलग रूपों में होने पर भी, पूरी एक बार भी पढ़ी नहीं थी। अनुवाद तो बाद की बात है, मूल संस्कृत के श्लोक भी गिने-चुने थे जो पता थे या कंठस्थ थे ( बी आर चोपड़ा का धन्यवाद)। जर्मनी, ब्लैक फारेस्ट घूमने गयी थी और वहां के एक छोटे से गाँव जैसी जगह में मुझे एक इस्कॉन के जर्मन व्यक्ति ने भगवद्गीता की अंग्रेजी अनुवाद की प्रति पकड़ाई थी और कहा था कि वह वृंदावन जाने के लिए प्रतीक्षारत है। उस दिन अपने आप को पहली बार गीता न पढ़ी होने के लिए धिक्कारा था।
उसके बाद घर आ कर कितनी बार नियम बनाने का प्रयत्न किया कि नित्य एक श्लोक पढ़ने से तो आरम्भ करें पर हुआ ही नहीं। बस एक इंग्लिश अनुवाद वाली और एक गीता प्रेस की छोटी गुटका living room में रखी रहती थीं। उसे पूजा के समय नित्य पढ़ने का प्रयास किया, ‘कॉफ़ी टेबल बुक’ की तरह पढ़ने का प्रयास किया, ऑफिस आते-जाते पढ़ने का नियम बनाने का प्रयास किया पर प्रथम अध्याय के 8-10 श्लोकों से आगे किसी अवस्था में आगे नहीं बढ़ पाई। फिर सोचा पहले अच्छे से संस्कृत का पुनरावर्तन (revision) कर लूँ फिर गति से और सरलता से पढ़ ली जाएगी। पुस्तक से स्वयं पढ़ना आरम्भ किया क्योंकि लगता था दसवीं तक पढ़ी है तो उतना तक पहुँचे आगे की पास की एक वेद शाला में पढ़ लेंगे (पुणे में घर के पास मठ है वहाँ वेद शाला चलती है)। स्कूल वाला पुनरावर्तन भी न हो पाया, वेद शाला तो क्या ही जाते। इन सब में कुछ दो साल निकल गये।
पिछले वर्ष मैं गुरकुल में अंतः वासी बनने के बाद से चौथा गेयर लग गया! प्रतिदिन पहले शिक्षा सत्र में बच्चे गीता के दो अध्याय अवश्य पढ़ते हैं और एक संध्या समय। जिस समय मैं आयी तो तीसरा और पंद्रहवाँ प्रातः और पहला अध्याय संध्या समय चल रहा था। इतनी संस्कृत तो पढ़नी आती थी कि क्या लिखा है पढ़ लेते थे और बच्चों के साथ साथ गुरूमाँ से सुनकर उच्चारण की अशुद्धियाँ भी ठीक कर लीं। आते जाते गुरु जी कुछ त्रुटि ठीक कराते रहते थे। एक मास में बच्चों को तो तीनों पाठ कंठस्थ हो गए और मुझे त्रुटि रहित पढ़ने का अभ्यास हो गया। मोबाइल से अधिक गीता कहाँ रखी है इसका ध्यान होता था (सबकी अपनी अपनी प्रति है यहाँ)। अनुभव तो कर लिया पर एक बार किसी अतिथि से गुरुमाँ को कहते सुना तो आभास हुआ की गीता तो गुरुकुल में एक विषय है, नियम से नित्य व पूरी गंभीरता से पढ़ा जाने वाला और जीवन शैली भी।
गुरु माँ को 13 वर्ष की आयु से पूरी गीता कंठस्थ है। किसी भी अध्याय से कोई भी श्लोक, उसका कोई भी पद (एक अनुष्टुप छंद श्लोक में चार पद होते हैं) कभी भी पूछ लीजिये। उससे भी अधिक उसका दिनचर्या में कभी भी प्रयोग दृष्टांत के रूप में, कभी बच्चों से उनकी स्मृति परखने के बहाने, जो बच्चों ने याद कर लिया है उसमें से, कुछ भी पूछ लेना – बहुत सहजता से आता है उनके व्यक्तित्व में। उन्हें याद कराने के लिए तरह तरह से श्लोकों को लिखने का ग्रह कार्य मिलता है, जैसे प्रत्येक अध्याय का तीसरा श्लोक लिखो। मैंने भी बच्चों के साथ ऐसा करना आरम्भ कर दिया। फिर कभी शाम को हमने गाँव वाली गीता सुनी। गाँव की गुजराती में सुनाई गीता (कुछ ही श्लोक) सुनकर, उसकी शैली और शब्द चुनाव से हँस हँस के पेट में दर्द हो गया। सच में ROFL, साँस अटकने तक हँसे थे। संजय – हनजड़ेया, धृतराष्ट्र – धरतड़या और कृष्ण – कनहड़िया थे उसमें। ये भी गुरुमाँ ने सुनाया और कुछ महीनों में जैसे जैसे समय मिला उन्होंने गीता के प्रत्येक श्लोक पर एक गुजराती गीत लिखा, बात करते करते लिखती रहती थीं वो! 700 श्लोक हैं गीता में!
गुरुजी तो गीता-दर्शन के विशारद हैं। यहाँ उनसे गीता पढ़ने कितने लोग आते हैं, सभी वर्गों से। कई जैन गुरु मुनि आदि भी आते हैं उनसे गीता व दर्शन के विशेष प्रश्नों के लिए। तब मैंने जाना कि कितने लोग कितने स्तर पर गीता को अपने जीवन से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं। गीता के लिए क्या-2 करते हैं। अविश्वसनीय सा था।
अब गीता नित्य जीवन में है। प्रतिदिन एक अध्याय का सस्वर वाचन करना अत्यंत सहज है अब। कितने वर्तन पूरे हो चुकें हैं एक साल में। बच्चों के साथ बदल बदलकर नित्य के तीन अध्याय पढ़ते हुए; उच्चारण की अशुद्धि सुधारते हुए; कभी शब्दों से, कभी अंतः प्रेरणा से, कभी अनुभव कर, कभी गुरुजी को सुनकर श्लोकों को समझते हुए, कब भगवद्गीता जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई है, पता नहीं चला।
पहला पड़ाव
पिछले वर्ष गीता जयंती पर युवाओं (कॉलेज के बच्चों) के लिए आयोजित गीता निबंध प्रतियोगिता के आयोजको में सम्मिलित हुई तो वो भी अविश्वसनीय सा ही था कि एक वर्ष पहले तक गीता जयंती का ही पता नहीं था और अगले वर्ष में गीता निबंध प्रतियोगिता के निबंध जांच रही थी। 800-900 निबंध आये थे और मुझे इंग्लिश के और कुछ हिंदी के निबंध जांचने थे। संस्कृत में केवल एक निबंध आया था। बच्चे अंक तालिका बनाते थे। गुजराती निबंधों की वर्तनी त्रुटि और व्याकरण त्रुटि पर दबे दबे हँसते थे कि कॉलेज के भैया-दीदी इतनी ग़लतियाँ करते हैं। पहली परीक्षा थी मेरी, गुरुजी से मैंने कहा कि मुझे तो गीता का कुछ ज्ञान नहीं है, मैं कैसे जाँच सकूँगी? वे बोले थे- “मुझे पता है आपको सही संदेश ही समझेंगे, गीता को समझने के लिए उसके एक एक श्लोक का ज्ञात होना आवश्यक नहीं है।” तार्किक बुद्धि से सोचें तो ऐसे में मुझे अहंकार आना चाहिए था, पर नहीं आया, कृतज्ञता का भाव आया। ये मेरे लिए विलक्षण अनुभव था। आत्म शुद्धि आरम्भ हो गयी थी, भगवद्गीता के कारण!
हर वर्ष यह प्रतियोगिता आयोजित करना गुरुकुल की एक परंपरा सी है। युवा गीता पढ़ें, गीता से जुड़ें इसलिए आयोजित करी जाती है। इसी बहाने हाथ में तो उठाएंगे, कुछ पृष्ठ तो पलटेंगे। 900 में से 10 तो गीता को लेकर जिज्ञासु बनेंगे। निष्काम कर्म का बहुत ही सुंदर प्रत्यक्ष उदाहरण देखा। और बच्चों ने जो लिखा था वो एक अलग ही लघु यात्रा थी, विषय था – ‘अपने अपने जीवन में गीता के कौन से संदेश, उसके किन सिद्धान्तों का पालन उन्हें सफलता दिलाएगा और कैसे’। मेरा उन सब में से प्रिय वाक्य था – “गीता मा तो बद्धू खुल्लु छे!”-गीता में तो सब कुछ खुला है :)। उस किशोरी के कहने का अर्थ था कि सभी रहस्य ईश्वर ने सरलता से उजागर कर दिए हैं गीता में।
(बड़े गुरुजी पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी ने गुरुजी मेहुलभाई आचार्य को भी गीता निबंध प्रतियोगिता द्वारा ही प्राप्त किया था। उस समय डाक से भेजे गए उनके निबंध को पढ़कर फ़ोन कर बड़े गुरुजी ने गुरुजी के पिताजी से उन्हें लेकर वाराणसी आने को कहा था और उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया था। कोई निवेदन नहीं, कोई एडमिशन की प्रक्रिया नहीं, कोई बैकग्राउंड चेक नहीं, कोई आधुनिक स्कूलों के प्रपंच नहीं! बड़े गुरुजी के बाद मेहुलभाई आचार्य अब गुरुकुल के मुख्य आचार्य हैं, विषय विशारद है। गीता, आयुर्वेद, दर्शन के सभी मुख्य ग्रंथ, उपनिषद आदि उन्हें कंठस्थ हैं और सही समय और अवसर पर उसका उपयोग व उद्धरण बहुत ही सहज है उनके लिए। केवल कंठस्थ ही नहीं, आत्मसात हैं ,उसमें से सब कुछ प्रत्येक बिंदु वह समझा सकते हैं फिर भी बहुत कुछ पढ़ते रहते हैं। गुरुकुल में (दो तीन स्थानों में विभक्त) 30,000 पुस्तकें/ग्रंथ शोध पत्रादि हैं। )
दूसरा पड़ाव
चार महीने पहले, अचेत अम्मा को उनके अंतिम क्षणों में पंद्रहवाँ अध्याय जब पढ़ कर सुना रही थी तो वह सुन रही थीं। ICU में तीन पेशेंट चिंताजनक स्थिति में थे परंतु डॉक्टर ने अंदर रहकर अम्मा को गीता सुनाने की अनुमति दे दी थी। अम्मा के साथ साथ वो तीनों भी पूरी सभानता से सुन रहे थे। सभी नर्सिंग स्टाफ भी काम करते हुये सुन रहा था, दोनों सीनियर डॉक्टर भी। दूसरी बार बिना एक-एक श्लोक का अर्थ जाने अनुभव हुआ कर्मयोगी की परिभाषा का। अम्मा के साथ वाले बेड पर से मुझे निर्निमेष देखती और सुनती एक युवती के आर्त भाव से रहित उसकी विवश स्थिति में श्रवण क्षमता का – जैसे गुडाकेश की रही होगी कदाचित! और अम्मा के जीवन भर के सकाम और निष्काम कर्म का आभास और उसके अंतर का विवेक अपने आप प्रकट हुआ मन में। उस दिन तीन जीवों ने ICU में देह छोड़ा था। अम्मा की स्मृति के साथ एक श्लोक अब अंकित है मानस पटल पर:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
गीता कंठस्थ अभी भी नहीं है क्योंकि स्मृति की दृढ़ता बहुत क्षीर्ण है, उसका पिछले बीस साल में बहुत ह्रास किया है। जीवन शैली, दूषित भोजन, दवाओं का प्रयोग, रोग, बहुत सारे कारण हैं। श्लोकों का शब्दार्थ से भावार्थ व अंत में निहित अर्थ और उसकी आत्मिक धारणा अभी तक पूरी नहीं है, बल्कि लगता है अभी भी शून्य ही है। किन्तु गीता की पूर्ण अनुपस्थिति से सदैव उपस्थिति में ये स्थानांतरण कैसे हुआ, सच में पता नहीं चला। और यात्रा….जारी है।