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राष्ट्रवादी उपभोक्ता बनेंगे ?
आपने शायद वो विडिओ देखा होगा चीन का मनी ट्रैप – यानि उसके पैसे के जाल के बारे में। कैसे चीन पहले सहायता के लिये लोन देता है और देशों के वापस ना चुकाने पर धीरे धीरे उस देश के संसाधनों और स्थानों तक पर अपना कानूनी रूप से वैध अधिकार कर लेता है। धीरे-धीरे कई देशों में ऐसा कर रहा है और अपने सिल्क-रूट पर कार्य कर रहा है। हम ये सोच कर खुश हो जाते हैं कि भारत की ऐसी स्थिति नहीं है तो हम सुरक्षित हैं । क्योंकि मोदी जी अन्य देशों के साथ सफल सामरिक व कूटनैतिक संबंधों के द्वारा सिल्क-रूट के षड्यन्त्र से भली-भाँति निबट रहे हैं, हम सुरक्षित हैं । बड़े बड़े सुरक्षा और आधारभूत इन्फ्रस्ट्रक्चर की वस्तुओं के भारत में निर्माण से हमें बल मिलता है, उसकी ओर सकारात्मक कदम बढ़ रहे हैं, इसलिए हम सुरक्षित हैं।
केवल इतना ही सोचकर निश्चिंत ना हो जाईये ! हम में से प्रत्येक का जो दायित्व है, राष्ट्रधर्म है उसका हम सबको अपने अपने स्तर पर ही पालन करना है। आप और हम उसमें कहाँ आते हैं, ये समझना चाहिए।
क्योंकि भारत बाकी देशों जैसा नहीं है, इसीलिए भारत के लिये चीन की रणनीति भी बाकी देशों जैसी नहीं है । उसका एक पक्ष ये है कि उसे भारत का आर्थिक नियंत्रण नहीं प्राप्त करना बल्कि उसे आर्थिक रूप से दुर्बल करना है, अस्थिर करना है, आर्थिक अराजकता फैलानी है।
यहाँ आर्थिक निर्भरता बनाने के लिये उसकी भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या पर निवेश का रास्ता लिया है। भारत के बाजार कर दोधारी निशाना है – एक फुटकर बाजार जिसे आप और हम प्रतिदिन प्रयोग करते हैं और दूसरा स्टार्ट-अप में निवेश । दोनों जगह दृष्टि में आए ऐसे बड़े बड़े नाम उसका लक्ष्य नहीं है, अपितु उसका लक्ष्य है साधारण उपभोक्ता-आप और हम! उपभोक्ता बाजार में ‘मेड इन चाइना’ को तो हम जानते ही हैं। बीच-बीच में ‘स्वदेशी ही लो’ की हवा चलती है किन्तु अंततः साधारण भारतीय उपभोक्ता सस्ता होने के कारण और सुलभता से उपलब्ध होने के कारण अभी भी अधिकतर चीन का बना सामान ही प्रयोग कर रहा है। ट्विटर की जागरूकता बहुत ही छोटे स्तर की होती है, उसे पूरे भारत का व्यवहार और उत्तर समझने की भूल हम ना करें तो अच्छा। फुटकर व्यापारी चीन के बने उत्पाद बहुत सरलता से, अत्यधिक उधार पर प्राप्त कर सकते हैं अतः धीरे-धीरे गोली-टॉफी तक यहाँ बनाना छोड़कर वही से आयात करने लगे हैं । हम सबको अपने परफेक्ट घर के परफेक्ट मंदिर में परफेक्ट मूर्ति चाहिए तो दीपावली पर एकदम समकोणीय सुंदर दिखने वाली लक्ष्मी-गणेश ही आते हैं जो पास के बाजार में मिल जाए। ट्विटर के फोटो-ओप में मिट्टी का सामान बनाने वाले या बेचने वाले से ही अंततः विसर्जन करने के लिये लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाएं लेने के आह्वान सीमित होते हैं; व्यापक स्तर पर बाजार में क्या उपलब्ध है और लोग क्या ले रहे हैं, एक दृष्टि डालने पर दिख जाता है। ये तो हमारी संस्कृति के सबसे बड़े उत्सव की बात है, साधारण जीवन की मूल आवश्यकताओं के साधनों और उत्पादों के तो असंख्य उदाहरण हैं।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार-नियमों के चलते सरकार एक सीमा के बाद इस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती, लेकिन चीन को रोकने की पूरी आशा हम केवल सरकार/शासन से रखते हैं । फुटकर व्यापारी थोक विक्रेता का ग्राहक है और थोक विक्रेता चीन की महा-थोक, सस्ती और निरंतर आपूर्ति का। फुटकर और थोक व्यापारी की अधिक से अधिक लाभ कमाने की मूलभूल अपेक्षा है। वो अपना लाभ की मात्रा में कोई कमी नहीं चाहते और उपभोक्ता के रूप में हमें सबसे सस्ता और घर के बगल वाली दुकान में मिलने वाला सामान ही चाहिए।
उसी प्रकार वैसे तो स्टार्ट-अप के जगत में बहुत सारा विदेशी निवेश लगता है और चीन के निवेश की पूँजी छोटी लगती है – कुछ ६-७ बिलियन अमरीकी डॉलर ! कहा जाता है कि सरकार के लगाए प्रतिबंधों के बाद तो इस निवेश में और भी कमी आई है क्योंकि स्टार्ट-अप अन्य विदेशी निवेशकों से और भारत में से ही बहुत धन इकट्ठा कर ले रहे हैं। केवल बड़े-बड़े कुछ स्टार्ट-अप में चीन का पैसा लगा है (2020 में भारत के 24 में से 17 यूनीकॉर्न्स में चीन का प्रत्यक्ष निवेश था जिसमें अलीबाबा और टेनसेंट मुख्य थे, एन्ट फाइनैन्शल अलीबाबा की ही सहबद्ध कंपनी है)। आज byju, zomato जैसे कुछ का उदाहरण दे कर बताया जाता है कि चीन का निवेश भ्रम है, इन्होंने कितनी तेजी से चीन के निवेश से अपनी निर्भरता हटा ली और हम मान लेते हैं कि ऐसा ही है । जिन जिन प्रकाशन समूहों में ये बताते हुए आलेख-आर्टिकल आते हैं उनके नाम देखिएगा कभी। भारत के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भ्रष्टाचार से ग्रसित है, ये हम केवल राजनैतिक चर्चाएं करते समय ध्यान में रखते हैं लेकिन ऐसे बिजनस आर्टिकल पढ़ते समय भूल जाते हैं। लेकिन छोटे-छोटे कितने ही स्टार्ट-अप की निवेश की पहली पसंद या विकल्प कोई चीनी निवेशक या निवेश कंपनी ही होती है। बहुत से ऐसे लोगों को निजी रूप से जानती हूँ।
परोक्ष रूप से चीन क्या कर रहा है और किस प्रकार अमेरिका में वेन्चर केपिटल कंपनियाँ बना के छद्म वेश में निवेश कर रहा है, ये भी कम ही लोग जानते हैं। ट्रम्प के शासन तंत्र ने बहुत सी ऐसी कंपनियों को बंद किया, उन के दाँत कुंद किये, तो व्यापार जगत ने बहुत भर्त्सना करी (र.र. शब्द का प्रयोग करने का बड़ा मन है यहाँ!) । वहाँ भी ‘करेला, वो भी नीम चढ़ा’ तब हो जाता है जब सारी व्यापारी दुनिया कहती है (भारत की विशेष रूप से) कि राजनीति और व्यापार को अलग रखना चाहिए। कदाचित उसका निहित आर्थिक स्वार्थ इतना अधिक है कि ये समझ नहीं पाती कि चीन का हर कदम वैश्विक राजनीति से प्रेरित है। जैक मा (की कंपनी अलीबाबा) ने भारत में निवेश को केवल व्यापारिक दृष्टि से नाप-तोल कर विवेकपूर्ण व्यवहार करना शुरू किया और अपने देश में भी शासन से अलग आर्थिक स्वावलंबन की राह पर चलने का प्रयास किया तो, एक दृष्टि से विश्व की सबसे बड़ी कंपनी को रातों-रात क्या बना दिया गया !और जैक मा ऐसे अंतर्ध्यान हुये कि कभी-कभी ही कहीं-कहीं ही दिखते हैं अब!
पेटीएम का उदाहरण देखिए। एक भारतीय के विचार और प्रयास पर चीन ने भरपूर पैसा लगाया । सबसे अधिक प्रचलित हुआ, उपभोक्ता ने हाथोंहाथ लिया । सरकार ने भी विमुद्रीकरण लागू होने पर उसका लाभ लिया और जनता ने भी । धीरे-धीरे प्रकल्प सफेद हाथी बन गया । अब चंद्रशेखर जी का राष्ट्रीय स्वावलंबन जागा या आत्मनिर्भरता का भाव अथवा कोश के खाली होने और निवेशकों के हाथ खींचने की स्थिति बन गई – जिस भी वजह से, आईपीओ आया… और लगभग मुँह के बल ही गिरा। भारत के फुटकर उपभोक्ता ने जरूरत के समय उसका बहुत लाभ लिया पर जब निवेशक के रूप में आया तो बोला “ नहीं भाई, ओवरप्राइस्ड है, कोई फायदा नहीं, मत-लो/बेचो !” भारत में ही बने, भारतीयों के लिये ही बने एक उत्पाद को बनाए रखने के लिये भी राष्ट्रीयता नहीं, निजी लाभ ही मुख्य बन गया । ये केवल एक उदाहरण दिया यहाँ !
ऐसे ही अवसर चीन पूरी मेहनत से, समय लगा के, बुन-बुनकर आपके सामने परोसता रहा है और रहेगा। और हम जब तक हमारी अपनी निजता को बहुत छोटा और प्रभावहीन मानते हुए, अपने नित्य जीवन और राष्ट्रीयता को दो अलग अलग पदार्थ मानते रहेंगे, सुख और हित में से सुख को चुनते रहेंगे, तब तक ठगे जाते रहेंगे और राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिये अपने हिस्से का योगदान देने में असमर्थ रहेंगे।