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सुता चली ससुराल!
शादी करके लड़कियों को ही पति के घर क्यों जाना होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास..
जिस वैदिक समाज की आदिम वैवाहिक कल्पना ‘सूर्या’ के रूप में ऋग्वेद में प्रस्तुत की है, उसकी कल्पना न जाने कितनी शत-सहस्त्राब्दियों के बाद भी समाज में यथावत देखी जा सकती है। ऋषिका सूर्या का ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सूक्त है:
सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवा भव। ननांदरी सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधिदेवेषु । ।
अर्थात, हे वधु, तू ससुराल जाकर (अपने सदाचरण और सबके साथ अच्छे बर्ताव से) सास ससुर नंद के ऊपर अधिपत्य जमाकर सर्वत्र महारानी होकर रह!
कारण अवलोकन :
(1) ये परंपरा यानि कन्या का विवाह कर के अपने वर/पति के घर जाना ऋग्वैदिक काल से है और थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अभी तक समाज में यथावत है। कोई व्यवस्था यदि सर्वहितकारी नहीं होती तो इतने लंबे समय तक टिक नहीं पाती। तो पहली बात ये इतनी प्राचीन है। पुराणों के काल से भी पहले की प्रथा, अतः परंपरा। पुराणों की बात इसलिए कि कई प्रकार का दूषण उसके बाद से आना आरम्भ हुआ जब गूढ़ ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक सरलता से समझाने के लिए लाक्षणिक भाषा में कथाओं और पात्रों की रचना हुई, जिसका अक्षरशः और स्थूल अर्थ लेकर के भ्रांतियों या ऐसी मान्यताओं का प्रसार हुआ जो तार्किक नहीं लगतीं।
एक तर्क जो इस प्रथा के बदलाव के पक्ष में दिया जाता है कि सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ भी बंद हुईं और यह इस बात का द्योतक है कि निरंतर परिवर्तनशीलता व ‘सुधार’ हमारे धर्म का, सनातन का परिचायक है इसलिए इस प्रथा (विवाह कर के कन्या का ससुराल जाना) को भी क्यों न बदलें! तो पहली बात यह कुप्रथा नहीं प्रथा है। प्रथा केवल इसलिए बदलनी चाहिए क्योंकि वह पुरानी है, कुछ उचित तर्क नहीं लगता। दूसरा, सती भी प्रथा नहीं थी। आपने और हमने जो देखा सुना है वह अधिकतर ताज़े लिखे इतिहास में पढ़ा है और राजा राममोहन राय जैसे समाज ‘सुधारकों’ के जीवन चरित्र के माध्यम से जानते हैं। पहले तो उसकी तह तक जाकर देखिए की क्या यह प्रथा थी? – देशव्यापि और चिरकालीन? अथवा क्षेत्र विशेष में कुछ समय के लिए आयी विसंगति! दूसरा, राजपूतों के रण पश्चात होने वाले जौहर को यदि हम सती-प्रथा मानते हैं तो ये ठीक नहीं। ऐसा ही कुछ बाल-विवाह के साथ है। बाल-विवाह को चिर कालिक प्रथा मानते हों तो खोजें-पढ़ें कि लड़कियों की शिक्षा 16-17 वर्ष की आयु तक होती थी और लड़कों की 25 वर्ष तक। इस आयु में विवाह होने को बाल-विवाह कहा जाएगा ? तो इस विसंगति के आरम्भ होने का काल ढूंढें और कारण भी। तो पहला बिंदु यह है कि यह प्रथा वैदिक काल से ही स्थापित है। ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित व्यवस्थाएँ बहुत सूक्ष्म, गहन चिंतन व परीक्षण के बाद स्थापित करीं गयीं थीं,जो बहुत लचीली हैं, यानी परिवर्तनशील होते हुए भी सशक्त सिद्धान्तों पर आधारित हैं जो पूर्णतया व्यावहारिक हैं। इसलिए इतने समय तक चल पा रहे हैं।
एक किसी ने इस प्रश्न पर मत प्रकट किया था कि इसे बदलना समाज को तोड़ने या राष्ट्र को नष्ट करने की ओर एक कदम होगा, तो उसका बहुत उपहास व तिरस्कार किया गया। किसी भी एक ओर के अंतिम ध्रुव पर अपना विचार बाँधने की बजाय एक मूल बात मैं ये समझती हूँ कि पूर्वजों के अतीत को जानने की उत्कंठा व अभिलाषा हर मनुष्य की होती है। जब अपने ही जीवन की अतीत कालिक स्मृतियों को वह परम् समान व स्नेह की दृष्टि से देखते है भले ही वह सुख की हों या दुख की, ऐसे ही अपने प्राचीन ज्ञान व परम्परा भी हमारे राष्ट्र की स्मृतियाँ हैं, उन्हें खो देने पर हम राष्ट्र का अस्तित्व भी खोते जाते हैं।
ऐसे में एक रोचक सत्य ये भी है दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों में, जहाँ मातृ-प्रधान समाज का रूप है, वहाँ लड़के विवाह करके लड़की के घर जाते हैं, गोत्रादि बदलते हैं, वंशवृक्ष मातृपक्ष (माता की सत्ता से, पिता की नहीं) से चलते हैं। इसका मूल वैदिक-प्रथाओं से ये अपभ्रंश क्यों और कैसे हुआ, यह जानना रोचक होगा। ऐसा सीमित क्षेत्रों व कुलों में ही होता है, सर्वव्यापि नहीं है।
(2) नर और नारी की रचना में अंतर है। मानव शरीर सत, रज और तम, इन तीन गुणों से बनता है, उसमें ये तीन गुण होते हैं। नर सत प्रधान है और नारी रज प्रधान है।
ईश्वर के अहंकार ने, सत से सृष्टि की रचना की प्रेरणा करी और प्रकृति ने रज से सृष्टि की रचना करी। स्त्री को प्रकृति ने जीवन सृजन का गुण व लक्षण दिया है। पतञ्जलि के अनुसार स्त्री का अर्थ है – ‘स्त्यापति अस्यां गर्भ इति स्त्री’ – नारी को स्त्री इस लिए कहते हैं कि गर्भ की स्थिति उसके भीतर होती है। रजोधर्म, गर्भधारण व स्तन्य (breast milk) स्त्री की योग्यता है। न्याय बताता है ‘गर्भधारण योगत्वं’ – गर्भधारण की योग्यता उसका लक्षण! मनुष्य होते हुए भी जिसमें स्तन्य योग्यत्व हो वह स्त्री है। इन लक्षणों का उद्देश्य फल या उपस्थिति का कारण है संतान उत्पत्ति (संतति अथवा प्रजा की वृद्धि) अर्थात मातृत्व की प्राप्ति।
नर में केवल पुरुषत्व होता है और नारी में स्त्रीत्व और कन्यात्व दोनों होते हैं। वस्तुतः जब एक पिता विवाह संस्कार के समय पुत्री का हाथ जामाता के हाथ में देता है तो केवल उसके कन्यात्व का दान करता है, उसके स्त्रीत्व का नहीं। पाणिग्रहण संस्कार में उसके कन्यात्व अर्थात भोग्यत्व की योग्यता (उसके द्वारा सर्जन करे जाने की योग्यता) का अमूल्य दान कन्या का पिता वर को देकर उसके संरक्षण व पोषण का दायित्व वर को देता है (वर के परिवार को नहीं)। अपने ही घर में परिपक्व स्त्री होने पर भी वह संतान की छाया से बाहर नहीं आ पाती। जब तक स्त्री स्वयं संतान की भूमिका व भाव में रहेगी तो माँ होने के भाव का दमन रहेगा। उसका पूर्ण उत्तरदायित्व लेने का भाव सीमित रूप में जागृत रहेगा क्योंकि वह स्वयं अपना उत्तरदायित्व अपने माता-पिता पर छोड़े है।
(3) स्त्री रजप्रधान है और पुरुष (नर) सत प्रधान है। रज कामना का, इच्छा का द्योतक है। रज प्रधान होने के कारण उसमें लालसा, इच्छा, चाह प्रबल होती है, अतः स्त्री का एक नाम (विशेषण रूपी) ‘ललना’ है। इसी रज गुण के कारण स्त्री प्रेम-प्रधान है (और सत गुण के कारण पुरुष तर्क-प्रधान), लज्जाशीलता उसकी सहज-प्रेरणा है, प्राकृतिक लक्षण है। जैसे छुई-मुई के पौधे का छूते ही सिकुड़ जाना उसका प्राकृतिक लक्षण है। प्रकृति ने इन्हें ऐसा बनाया है तो ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’ का विचार तर्क की परिधि से बाहर है। इन गुणों के कारण स्त्री की कोमलता को लता स्वरूप बताया जाता है जिसे बढ़ने के लिए आधार-आश्रय की आवश्यकता होती है। इसी लिए उसके कन्यात्व को वर को सौंपते हुए कन्या का पिता उसके संरक्षण व पोषण का दायित्व वर को देता है। वर अथवा पुरुष उसका संरक्षक व पोषक होता है, स्वामी नहीं, उसका अधिकार नहीं होता स्त्री पर क्योंकि स्त्रीत्व का तो दान ही नहीं दिया गया, केवल कन्यात्व का दिया गया है। जब संरक्षण व पोषण का दायित्व वर को सौंप दिया तो पिता के घर न रह कर स्त्री वर के घर जाती है क्योंकि वर अपने उत्तरदायित्व का वहन अपनी अनुकूल व प्रभावी परिस्थितियों में अधिक अच्छी प्रकार कर पायेगा। इसे लता के रूपक से समझते हैं कि लता बिना किसी सहारे के, भूमि पर पड़ी-पड़ी भी बढ़ सकती है, परंतु जब उसे उचित आश्रय मिलता है तब उसके गुण, शक्ति व फल-फूल पूर्ण व उत्तम रूप से आते हैं। जब उस लता रूपी स्त्री का दायित्व वर को सौंप दिया तो पोषक का दायित्व स्थानांतरित हो गया। वर का कन्या के घर आ जाना एक ही घर में दो संरक्षक/ पोषक की स्थिति उत्पन्न करता है। सोचिये इसमें सामंजस्य कब तक शान्तिपूर्वक रहेगा?
(4)स्त्री के प्रेम प्रधानता के दो स्वरूप होते हैं – भावुक या आश्रित (emotional or dependant)। किसी भी स्त्री पर ध्यान देंगे तो दोनों में एक स्वरूप स्पष्ट दिखेगा। पुरुष तर्क प्रधान है, उसके भी दो स्वरूप होते हैं – तार्किक या जड़। दोनों प्रकार के पुरुष का बाहरी स्वरूप एक ही होता है। जहाँ भावुकता की, प्रेम की आवश्यकता हो वहाँ पुरुष को पुरुषार्थ करना पड़ेगा और स्त्री में स्वाभाविक है। ऐसे ही यदि स्त्री को तार्किक बुद्धि विकसित करनी है तो उसे पुरुषार्थ करना पड़ेगा। अब तुलना करिए, कौन नई परिस्थितियों में प्रसन्नतापूर्वक व सुलभता से रह पायेगा, – जड़ या भावुक, तार्किक या आश्रित?
(5) नर बीज का दाता है (giver) और स्त्री बीज की पात्र है, ग्रहीता है (receiver)। प्रकृति ने बीज को पोषित कर उससे फल बनाने का दायित्व स्त्री को दिया है, प्रकृति दायित्व लेने वाले (receiver) को देती है, देने वाले (giver) को नहीं। देने और लेने वाले समानांतर कब होंगे?,जब देने वाले को भी कुछ उत्तरदायित्व हो। इसलिए ग्रहीता के संरक्षण व पोषण का, माता की देखभाल का उत्तरदायित्व नर अथवा वर को देने की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक व्यवस्था का सृजन हुआ। यदि उस स्थिति में बेटी पिता के ही घर पर है तो वर पूर्ण उत्तरदायित्व नहीं ले इसकी गहन संभावना सदैव रहेगी।
‘स्थिरत्व’ स्त्री का प्राकृतिक गुण है (रज प्रधानता के कारण)। वह एक स्थिति या परिस्थिति में लंबे समय तक रह सकती है। पुरुष का प्राकृतिक गुण महत्वाकांक्षा है (सत गुण, अहंकार प्रधान होने के कारण), इस कारण वह एक स्थिति या परिस्थिति में अधिक समय तक नहीं रह सकता। ऐसे में पूर्णतया अनुकूल न होने पर भी नए स्थान पर रह पाना स्त्री के लिए सहज है, पुरुष के लिए कठिन है। एक पुरुष (पिता) की इच्छा (उसकी जड़ता) के लिए दूसरा पुरुष लंबे समय तक अनुकूल न होने पर अथवा निज जड़ता के कारण, लंबे समय तक उस स्थिति में सहजता से नहीं रह पायेगा। जबकि स्त्री दूसरी (वरिष्ठ) स्त्री के उपस्थिति व सत्ता में अपने भावुकता, आश्रितता व स्थिरत्व के प्राकृतिक गुण के कारण लंबे समय तक पूर्णतया अनुकूल न होने पर भी उस स्थिति में रह पाएगी। स्थिरत्व के गुण के अभाव के कारण पुरुष पारिवारिक संरचना में आत्म-वश्य, संचालनीय (self-manageable) बहुत कम होता है, ऐसे में स्त्री का उसके परिवार के संचालन के लिए उसके घर आना प्रायोगिक, वांछनीय है। स्थिरत्व, बुद्धि-बल (युक्ति-बल, काल-बल, व सहज-बल) के जो अवयव व्यवहार बल कहलाते हैं उसकी मात्रा स्त्री में कहीं अधिक है। गृह व्यवस्था का निर्वहन स्त्री सुलभ है। उस गृह की स्वामिनी होने का भाव उसके लिए आवश्यक है। अपने पिता के घर में गृहस्वामिनी का भाव आने की संभावना नहीं या अति क्षीण है।
एक जगह पढ़ा तो बात तर्कसंगत लगी कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी स्त्री (अपनी पत्नी) के परिग्रह में रहने पर उन्हें कटु वचन कहे और अपने चरित्र की विशुद्धि की सफाई सीता को देनी पड़ी। तो क्या एक सामान्य कलियुगी नर मानव से अपेक्षा करी जा सकती है कि वह अन्य घर में (अपने पिता के घर में) रहने वाली अपनी पत्नी पर किसी प्रकार का अनुचित लांछन नहीं लगाता रहेगा? गृहस्थी की शांति के लिए सामान्य अवस्था में भी स्त्री के अपने पति के घर में रहने की व्यवस्था की परंपरा ही चली और रही भी। स्त्री का एक नाम ‘योषा’ है अर्थात जो पुरुष को अपने साथ जुटाती है।
ऐसे ही स्त्री का एक नाम ‘मानिनी’ है। अर्थ विस्तृत है। स्त्री मानप्रिय है, रूठने पर मनाए जाने की आकांक्षा वाली है, दूसरे उसमें स्वाभिमान व आत्मसम्मान की भावना तीव्र होती है और साथ ही साथ अपनत्व की भावना भी।
समाज में पतनसूचक आये दो परिवर्तन इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य हैं। पहला – चार प्रकार के बल में पुरुष में अर्थ-बल और काम-बल( पौरुषत्व, कर्म को सिद्ध करने की शारीरिक क्षमता) स्त्री की अपेक्षा अधिक होने पर उसने संरक्षक व पोषक की भूमिका को अर्थ-बल के कारण अधिकार व स्वामित्व मान लेना आरम्भ किया और काम-बल का स्त्री के भावुक व आश्रित- सहज-प्रेरित/प्राकृतिक गुणों का दमन करने के लिए प्रयोग करना आरम्भ किया। फलस्वरूप अन्य दो बलों (बुद्धि-बल/व्यवहार-बल व प्रतिकार-बल) को हीन और अर्थ-बल व काम-बल को श्रेष्ठ मानने लगा। दूसरा- स्त्री की आश्रितता के मूलभूत गुण को ठेस लगने से और आत्मसम्मान व स्वाभिमान की भावना तीव्र होने से, उसने अपने को इन दोनों बलों अर्थात अर्थ-बल व काम-बल को विशेष पुरुषार्थ कर सशक्त करना आरम्भ कर दिया जिसका रूप हम आज के समय में जीविका-उपार्जन/धन-उपार्जन में कार्यरत स्त्रियों के रूप में देखते हैं। अपने काम-बल को अधिक दृढ़ करते-करते उसका पुरुषार्थ करते-करते आज वह हर उस क्षेत्र में कार्य करने को तुली है जहाँ स्वाभाविक शारीरिक बल ही अधिक चाहिए होता है और इसे जेंडर इक्वलिटी (gender equality) का सिद्धांत बना दिया गया है। इसका सीधा दुष्प्रभाव उसके आंतरिक अंगों और गृहस्थी पर पड़ता है।
विवाह होने पर स्त्री किसी की कन्या न होकर पत्नी हो जाती है (कन्यात्व का दान पाणिग्रहण के समय होता है)। पिता पुरुष है – तर्कप्रधान, जड़, भावुकता के अपेक्षाकृत अभाव वाला (यहाँ सबके प्रति सामान्यतः भावुकता की बात है केवल अपनी पुत्री के प्रति नहीं) और महत्वाकांक्षी! परिस्थिति का संतुलन, लचीलापन, कन्या से मातृत्व में परिवर्तन, गृहव्यवस्था में परिवर्तन, संतान से गृह स्वामिनी होने का भाव – यह सब पुत्री एक स्त्री होने के कारण बहुत सहजता से जी लेगी परंतु पिता और पति इतने सारे परिवर्तन पुरुष होने के कारण इतनी सहजता से नहीं जी पाएंगे।
परिवार, पीढ़ी और अंततः संस्कृति सहज और सुचारू रूप से कैसे चले, ये ही विचार कर हमारे अति ज्ञानी पूर्वज ऋषि-मुनियों ने ऐसी कालातीत (timeless) परम्पराएँ स्थापित करी हैं जो अत्यंत दूरगामी परिणाम देने वाली, सशक्त और समाज को सदैव विकास की ओर अग्रसर रखने वाली हैं। आजकल के हम सभों की समस्या यह लगती है की एक तो हम ऋषि-मुनियों को अपने से कुछ ही बेहतर (marginally better) समझते हैं, उनकी पारगामी बुद्धि की योग्यता का आकलन अपनी सीमित बुद्धि से करते हैं इसलिए स्वीकार नहीं कर पाते की मानव जीवन, समाज व राष्ट्र के विचार से गहन चिंतन, अनुभव व प्रयासों के बाद उन्होंने परम्पराएँ व व्यवस्थाएँ स्थापित करी हैं जो कालातीत होने में सक्षम हैं। हमें सब कुछ अविश्वास व प्रश्नवाचक दृष्टि से ही देखना है और मूल व दूषित में अंतर करने के विवेक को विकसित करने का प्रयास नहीं करना है।
दूसरा, समय के साथ योजयनद्ध तरीके से हमारे दृष्टिकोण व सोच में जो पतित परिवर्तन लाया गया है, उसके चलते हम अपने संस्कार, परंपरा, व्यवस्था या जीवन-शैली को अति सरल होने के कारण उसे प्रभावी स्वीकार नहीं करते। उसे रूढ़ीवादी, अपूर्ण, अप्रासंगिक होने की दृष्टि से अधिक देखते हैं। चैतन्य को प्राप्त हमारे पूर्वज जिस स्तर पर चिंतन व मनन करते थे वह हमें उपलब्ध नहीं। उसके फलस्वरूप हमें सूत्रबद्ध ज्ञान, विज्ञान, विद्याएँ, कालजयी व्यवस्थाएँ प्राप्त हुई हैं। प्रभावी को जटिल (complex) होना आवश्यक नहीं, ये हमारी बहुत सारी परम्पराएँ सिद्ध करती हैं।
घर के भीतर स्त्री समस्त व्यापार का केंद्र होती है। गृह व्यवस्था का निर्वहन (उसमें केवल भोजन पकाना कपड़े धोना नहीं, सब कुछ है), परिस्थिति संतुलन, स्थिरत्व उसे सुलभ व सहज है। विभिन्न वय एवं श्रेणी के पुरुषों से अलग न रहकर वह उनकी चर्चाओं, क्रियाओं और विचारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। क्या एक पिता जिसने उसे जन्म दिया, उसके ऐसा करने पर उसे इस परिपक्व दायित्व के अयोग्य समझें (कन्या संतान भाव के बने रहने के कारण), इसकी संभावना नहीं? गृहस्थी का मूल भार्या है, जो गृहस्वामिनी होने पर स्त्री का परिवर्तित रूप है। वैदिक समाज की जो वैवाहिक कल्पना, कन्या की कल्पना ‘सूर्या’ के रूप में ऋग्वेद में प्रस्तुत करी है, वह यौवन के लक्षणों सहित हुई है और उसे स्वतः पति की कामना करने वाली सूचित किया है। अपने जीवन-संगी निर्वाचित करने की स्वाधीनता रखने वाली ये कुमारिकाएँ आधुनिक नहीं, ठेठ वैदिक काल की हैं। नारी की यह प्रतिष्ठा, अविवाहितावस्था का स्वातंत्र्य, गृहव्यवस्था की स्वामिनी रूप में परिवर्तन, धर्म व्यवस्था शिक्षा का संतान को परंपरागत रूप में हस्तांतरण, पुरुष को संरक्षण व पोषण के लिए दिया जाने वाला दायित्व और ज्ञान-विज्ञान जैसे गंभीर विषय पर प्रभुत्व – पश्चिम के प्रकाश में सुधार की धूसित धारणा रखने वाले लोगों विशेषकर देवियों को अब भी पथ-प्रदर्शन के लिए पर्याप्त है।
हमारी भारतीय व्यवस्थाओं और पद्धति ने समाज के मनोनुकूल सुविधा प्रदान करके भी पवित्र परंपरा का जो अंकुश रखा है, उसकी कल्पना भी आधुनिक सुधारकों को मुश्किल ही छू सकी है। ये सामाजिक आधार की दूरदर्शी सुविधाएँ, हमारी पुरातन सभ्यता के मूल – निरंतर प्रगतिशीलता – पर ही टिकी हैं। प्रगतिशीलता व प्रगति को शुद्ध व विवेकी बुद्धि से समझना आवश्यक है। क्योंकि प्रगतिशील संस्कृति के सुदृढ़ सिद्धांत पर समाश्रित होने वाले समाज का अस्तित्व ही सदा अविचल रहता है।