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अहिल्या की कथा और उसके सत्य के रूप!

प्राचीन अहल्या महर्षि गौतम की पत्नी थीं. इनके पिता का नाम वृद्धाश्व था। अहिल्या अत्यंत रूपवती थी। देवराज इंद्र ने गौतम का रूप धार का इनका धर्म नष्ट करना चाहा। गौतम के शाप से इंद्रा नपुंसक हो गए थे, परंतु देवताओं ने बड़े परिश्रम से मेष का पुरुषत्व ले कर इंद्रा को प्रदान किया, तभी से इंद्र का एक नाम मेशवृषण हुआ। गौतम ने अहिल्या को भी श्राप दिया। गौतम के श्राप से अहिल्या निराहार केवल वायु के आधार पर रहने लगी, सर्वदा वह पश्चात्ताप करती रहती थीं, उसका शरीर भस्म से पूर्ण था और वह समस्त प्राणियों से अदृश्य हो गयी।

 “वातभक्षा निराहारा, तपंती भस्मशायिनी। अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि।।” (रामायण)

पुनः अहल्या के प्रार्थना करने पर गौतम प्रसन्न होकर बोले, “हमारा शाप व्यर्थ नहीं हो सकता, किन्तु विष्णुरूपी रामचंद्र जब इस आश्रम में आवेंगे, तब तुम उनके चरण वंदन कर, मुक्त हो सकोगी।” विश्वामित्र के साथ जब रामचंद्र आये, तब उन लोगों ने भी अहल्या को तपस्विनी के रूप में देखा था। राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने अहल्या को प्रणाम किया था और अहल्या ने भी अपने पति गौतम का वचन स्मरण कर के रामचंद्रजी का चरण वंदन किया।

“राघवौ तु तदा तस्या: पादौ जागृहतुर्मुदा। स्मरन्ती गौतमवच: प्रतिजग्राह सा हि ” (रामायण)

पद्मपुराण में लिखा है की गौतम के श्राप से अहल्या पत्थर हो गयी थीं और इंद्रा के शरीर में अनंत भाग के चिह्न हो गए थे। कुमारिल भट्ट के मत से अहल्या और इंद्रा विषयक उपाख्यान केवल रूपक हैं। अहल्या शब्द का अर्थ रात्रि हैं और इंद्र का अर्थ है सूर्य। दिन में सूर्योदय होने से रात्रि नष्ट होती है इसी घटना को ले कर उक्त उपाख्यान कल्पित हुआ है।

आज के समय में अधिकतर लोगों को जिस रूप में ये कथा या घटना ज्ञात है, वह अहल्या के पत्थर (एक वास्तविक पत्थर की शिला) होने की है। मेरी अपनी अनुभूति यह कहती है कि इसी तरह की क्षति पुराणों ने हमारे इतिहास को अनजाने में पहुँचाई है। अलंकारों व अतिशियोक्ति भरी भाषा का प्रयोग करके! पुराणों की रचना जनमानस तक ज्ञान को सुलभ रूप से पहुँचाने के लिए करी गयी थी, उसका अक्षरशः अर्थ बहुत हानि करता है।

आज जब information overload के समय में पुराण की कथा को केवल पढ़ा जाता है, उसके अर्थ, उसकी सत्यता को पूर्ण रूप से आत्मसात करने का अवकाश किसी के पास नहीं है, तो इतिहास का ऐसा ही हश्र होता है। इसका दोष क्या हम रोमिला थापर को दे सकते हैं ?

मेरी अनुभूति और समझ से अहल्या की कथा का पहला रूप या पक्ष :

जैसा की रामायण के श्लोकों से भी स्पस्ट है, अहल्या जड़ (पत्थर) नहीं हुयी थीं, वह केवल वायु के आधार पर रहने लगी थीं (पत्थर या खनिज की भाँति)। उनका शरीर भस्म से परिपूर्ण था और वह सदा पश्चाताप करती रहती थीं, तपस्विनी हो गयी थीं अर्थात संसार से पूर्णतया विमुख साधनावत् जीवन जीने लगी थीं। ये उस परिस्थिति में जब वह गौतम मुनि के गुरुकुल की गुरुमाँ थीं और उनके अचार्यपत्नी के रूप में कई दायित्व थे, जिन्हें प्रायः उन्होंने त्याग दिया था अतः वह उपस्थित सभी प्राणियों से अदृश्य हो गयी थीं। अथवा तप/योग की शक्ति से उन्होंने या गौतम मुनि ने उनके रूप का आभामंडल ऐसा कर दिया कि उनकी उपस्थिति की अनुभूति किसी को नहीं होती थी। राम-लक्ष्मण के आने पर उन्हें सुध आयी (क्योंकि वह ईश्वर का अवतार थे), गौतम मुनि आदि के साथ विमर्श हुआ और अहल्या पूर्ववत् हो गयीं।

मेरी अनुभूति और समझ से अहल्या की कथा का दूसरा पक्ष :

गौतम मुनि भारतीय न्याय शास्त्र के सर्जक हैं। वह चिंतन में इतने अधिक मग्न रहते थे कि चलते चलते गिर पड़ते थे। उनके शिष्यों की प्रार्थना पर महादेव शिव ने गौतम ऋषि के पैर में एक नेत्र दे दिया, जिसे अपने कार्य के लिए मन (इन्द्रिय संचालक) की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए उनका एक नाम अक्षपाद भी है।

अब इतने मग्न रहने वाले ऋषि ने जब इंद्र को अपनी पत्नी के साथ देखा तो क्या ये संभव नहीं की उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया की इंद्र मुनि रूप धर जल-पान के लिए बैठे थे अथवा उनकी पत्नी पर उनका ही रूप धरकर चेष्टाएँ कर रहे थे। न्याय शास्त्र के द्वारा सृष्टि के सूक्ष्मतम तत्वों को परिभाषित व विस्तृत करने वाले मुनि अपनी पत्नी को एक सती और पवित्र नारी के रूप में नहीं जानते होंगे?

अपने महान दार्शनिक ऋषि पति से ऐसे वचन सुनकर अहल्या जड़वत हो गयी, जबकि वह ऐसा कोई आचरण कर भी नहीं रहीं थीं। अतः उन्हें अपने ऋषि पति के शब्दों (श्राप, कठोर वचन) से इतना आघात पहुँचा कि वह फिर शिला समान हो गयीं। कुछ खाती पीती नहीं थीं। अंतःपुर में ही वास करती थीं इसलिए प्राणियों के लिए अदृश्य हो गयीं थीं। गुरुमाँ के अपने सभी धर्म और कर्म व दायित्व त्याग दिए क्योंकि वह इतनी आहत हो गयीं के एकांतवास में चली गयीं। गुरुकुल में शिष्यों की शिक्षा जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े इसलिए गौतम मुनि ने हिमालय में आश्रम स्थानांतरित कर लिया। यह कहकर की अब तो ईश्वर ही आकर अहल्या का उद्धार करेंगे। अंतर्मुखी अहल्या की तपस्या व साधना जारी रही। अंततः जब राम-लक्ष्मण वहाँ आये तो अहल्या ने उनका सावधानीपूर्वक (?) सत्कार किया, ज्ञान का आदान-प्रदान हुआ जिससे सब संतुष्ट हुये। जिसके पश्चात अहल्या अपने पूर्ववत जीवन में आयीं, गौतम मुनि ने भी इसी आश्रम में पुनः गुरुकुल स्थापित कर आगे का जीवन व्यतीत किया। 

स्मरण रहे, अहल्या के स्थान पर आने से कुछ समय पहले ही विश्वामित्र के अयोध्या आगमन पर श्रीराम के साथ वसिष्ठ व विश्वामित्र जी का जीवन विज्ञान व दर्शन का इतना विकसित प्रश्नोत्तर हुआ था की योग-वशिष्ठ की रचना हुई, जिसे महारामायण कहा जाता है। राम की जीवन दर्शन की दृष्टि अति सूक्ष्म थी।

महाभारत शांतिपर्व, अध्याय 265 में भी गौतम के पत्नी के मर्यादा-अतिक्रमण का विचार कर उस समय से तपस्या में अवस्थित होने का विवरण है। उसके पश्चात न्याय शास्त्र की रचना हुई (मेधातिथि = गौतम)

“ मेधातिथिमहाप्राज्ञो गोतमस्तपसि स्थितः। विमृश्य तेन कालेन पत्नया: सस्थाव्यतिक्रमम्।।”  

इस प्रसंग के उपरांत तपस्यारत दोनों पति-पत्नी हुये थे, किन्तु अलग अलग स्थानों पर और प्रायः भिन्न कारणों के लिए! 

कुछ विचारणीय बिंदु:

इंद्र देवों के प्रतिनिधि और वेदों में एक प्रमुख आराध्य शक्ति हैं (या कहें थे ?)। इंद्र एक पद है, एक व्यक्ति नहीं। सूक्ष्म योनि के देवों के प्रतिनिधि की अधिकतर पौराणिक कथाएँ उन्हें शक्ति भीरु (highly insecure), स्त्री लोलुप और व्याभिचारी ही प्रदर्शित करती हैं। कृष्ण ने इंद्र की अति स्तुति और उनकी निर्भरता को कम करने के लिए गोवर्धन पर्वत उठाने की लीला करी। परंतु उत्तरोत्तर इंद्र का रूप चित्रण सदैव पदच्युत ही दिखता है। क्या कालांतर में इस पद की अवमानना आरंभ हुई?

अहल्या को पंच कन्या (उदाहरणीय पवित्र नारियाँ) में माना जाता है –

 “अहल्या द्रौपदी सीता तारा मन्दोदरी तथा । पंचकन्या स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ॥”

इतनी पवित्र नारी क्या जानते बूझते व्याभिचार करेगी ? उन्हें रामायण के श्लोक के अनुवाद में दुर्बुद्धि नारि और गौतम ऋषि द्वारा दुराचारिणी कहा गया लिखा जाता है, जबकि मूल श्लोक में ये शब्द नहीं प्रतीत होते। और वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 49वाँ सर्ग के 4-5 श्लोक ऐसे हैं जिन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ने पर कई सूत्र अपने आप खुल जाते हैं।

 परंतु निम्न श्लोक ( बालकाण्ड। 49।19)

“मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन। मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्।।”

इसमें ‘मतिं चकार दुर्मेधा’  का वास्तविक अर्थ क्या है ? 

इंद्र का नाम सहस्त्राक्ष (हज़ार आँखों वाला) तब पड़ा बताया जाता है जब उन्होंने तिलोत्तमा को नृत्य करते देखा, उनकी दृष्टि इतनी कामप्रभावित थी के उनके सारे शरीर पर आँखें उग आयीं। इस श्लोक में उसका प्रयोग प्रसंग की दृष्टि से उपयुक्त लगता है। परंतु इसी प्रसंग में गौतम मुनि के श्राप के कारण इंद्र के अंडकोषों की कथा कुछ अविश्वसनीय सी लगती है, क्या मूल रामायण में यह किसी तरह का कालांतर में किया गया दूषण तो नहीं?

यहाँ अहल्या की कथा तथा इसके दो प्रकार के पक्षों को प्रस्तुत करने का तात्पर्य था कि किसी भी पक्ष में और वाल्मीकि रामायण के श्लोकों में अहल्या पत्थर की शिला नहीं हुई थीं, शिलावत हो गयी थीं।

स्वयं विचार करिये, पौराणिक कथाओं ने क्या कुछ क्षति करी है ?

यात्रा जारी है….

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