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शरद पूर्णिमा का वैदिक विज्ञान

शरद ऋतु में, आश्विन महीने में आने वाली पूर्णिमा शरद पूर्णिमाके नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है। ये हम उसके आकार से भी देख सकते हैं। इसलिए चंद्रमा का पृथ्वी पर सबसे अधिक प्रभाव शरद पूर्णिमा के दिन होता है और इसीलिए उस दिन चन्द्र (अर्थात चन्द्र किरण) को ग्रहण करने के लिए बताया गया है।

ये दिन, या कहें रात्रि उत्सव का समय रहता है। परंपरागत रूप से हम इस दिन रात्रि जागरण करके एक तो चंद्रमा की किरणों का सीधा सेवन करते हैं, यानि सीधे चाँदनी में बैठते हैं, रात्रि जागरण करते हैं और दूसरा प्रसाद के रूप में पूरी रात चाँदनी में रखे दूध-पोहा या खीर खाते हैं।

इसके साथ ही शरद पूर्णिमा के दिन कृषि और स्वास्थ्य के लिए भी कुछ प्रयोग किए जाते हैं, जो किसी लोक-परंपरा के रूप में न बुने जाने के कारण, प्रचलित नहीं है पर मूल रूप से भारतीय खगोल और आयुर्वेद का भाग हैं।

सनातन की हमारी लगभग सभी परम्पराएं अपने पीछे एक वैज्ञानिक कारण रखती हैं। भारतीय विज्ञान बहुत गहरा, बहुत सूक्ष्म (यानि micro level तक जाने वाला), बहुत फैला हुआ और प्राचीन काल से प्रमाणित हैऔर अभी तक जारी है।

शरद पूर्णिमा के रात्रि जागरण और प्रसाद का भी एक वैज्ञानिक कारण है। इस दिन हम अधिकतर मनोरंजन के द्वारा रात्रि जागरण करते हैं। उसमें भी संगीत से सबसे अधिक मनोरंजन किया जाता है। मनोरंजन का अर्थ मन का रंजन, यानि मन को प्रसन्न करना या खुश करना। चंद्रमा और चंद्रमा की किरणों का सबसे अधिक प्रभाव हमारे मन पर यानि हमारे mind पर पड़ता है। और संगीत भी हमारे मन को ही सबसे अधिक प्रभावित करता है। चंद्रमा मन का स्वामी है इसलिए आज संगीत का विशेष महत्व है।

भारत विश्व की सबसे पुरानी, जीवित, अखंडित, वैज्ञानिक व आध्यात्मिक सभ्यता है। हमारी इस सभ्यता के कई महानायक हुए हैं। यहाँ हम अंग्रेजों से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की बात नहीं कर रहे हैं, हम उन नायकों की बात कर रहे हैं जिन्होंने हजारों-हजारों वर्षों से भारत को जन्म दिया है, भारत को पोषण दिया है, भारत को संभाला है।हमारे ऋषि-मुनि उनमें श्रेष्ठतम हैं जिन्होंने हमें कितने ही विज्ञान दिये हैं। उनमें से एक है हमारा मानस शास्त्र (Bhartiya psycology) और एक आयुर्वेद (the science of life)। इनके माध्यम से हमें मन, यानि माइन्ड से संबंधित सब कुछ जानने को मिलता है। इसे स्वस्थ कैसे रखना है, इसे प्रसन्न कैसे रखना है और इस पर नियंत्रण कैसे रखना है – ये सब बहुत विस्तार से पता चलता है।

इस दिन हम अधिकतर मनोरंजन के द्वारा रात्रि जागरण करते हैं। उसमें भी संगीत से सबसे अधिक मनोरंजन किया जाता है। मनोरंजन का अर्थ मन का रंजन। चंद्रमा और चंद्रमा की किरणों का सबसे अधिक प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। केवल मनुष्य ही नहीं, सभी प्राणियों और वनस्पतियों पर भी पड़ता है।

यह भगवद्गीता के पुरुषोत्तम योग नामक पंद्रहवें अध्याय में भगवान द्वारा बताया गया है, “पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः”॥ अर्थात्  “मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणियों का पोषण करता हूँ”। ईश्वर कहते हैं कि मैं ही औषधियों को चन्द्र के द्वारा पुष्ट करता हूँ।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल का सूक्त 90, पुरुषसूक्त में सृष्टि की रचना के समय सोम अर्थात चंद्रमा की उत्पत्ति के उपलक्ष में बताया गया है, “चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत”। अर्थात परम पुरुष, ब्रह्म का मन चन्द्रमा है।

भारत के खगोलशास्त्र में और वैज्ञानिक वराहमिहिर द्वारा ‘बृहतसंहिता’नामक ग्रंथ में चंद्रमा की किरणों का सृष्टि/वनस्पति औषधि पर प्रभाव का वर्णन किया है।

अन्न भी औषधि में आता है। ‘औषधा: फलपाकान्ता’ – जो फल आने के बाद, पकने के बाद अंत हो जाये, उसे भी औषधि भी कहा गया है, इस प्रकार अन्न भी औषधि है। अन्न को कैसे पुष्ट करते हैं? अधिकतर जो हम अन्न या धान्य खाते हैं या जो बीज बोते हैं उसमें सबसे अधिक भागीदारी किसी की होती है तो वो चन्द्रमा की किरणों की होती है। सूर्य से भी अधिक भागीदारी चन्द्रमा की होती है। चन्द्रमा अन्न को पुष्ट करता है।

फसल के रूप में आने वाले अन्न और अग्नि संस्कार से पके हुए अन्न (खीर, दूध-पोहा) – इन दोनों प्रकार की औषधि के लिए शरद पूर्णिमा के दो विशेष प्रयोग हैं जो संस्कृति आर्य गुरुकुलम् समाज में पुनर्स्थापित कर रहा है।

वैदिक कृषि प्रयोग

शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा से अमृत वर्षा होती है तो कौन सी फसल सबसे अच्छी होती है, यह पता लगाया जा सकता है। फसल का पूर्वानुमान किया जा सकता है। इस बार का वातावरण किस फसल के सर्वाधिक अनुरूप होगा, ये पता लगाया जा सकता है।

खगोलशास्त्र (Astronomy&Geography) और आयुर्वेद के इसअद्भुत प्रयोग को संस्कृति आर्य गुरुकुलम् के संस्थापक पूज्य विश्वनाथ गुरु जी ने समाज के लिए पुनर्जीवित किया। वर्तमान में मेहुलभाई आचार्य जी इसे ‘शरद पूर्णिमा के वैदिक कृषि के बीज प्रयोग’ के रूप में सब तक और विशेष रूप से किसानों तक प्रसारित करते हैं।

इस दिन, प्रकृति आने वाली ऋतु में वातावरण की अवस्था के अनुसार फसल के बारे में जो संकेत देती है, उसको आब्ज़र्वैशन कर के ये जाना जाता है कि इस बार कौन सी फसल सबसे अच्छी होगी। हर क्षेत्र में ये फसल अलग होती है, हो सकती है। कई वर्षों से संस्कृति आर्य गुरुकुलम् ने इसके कई प्रयोग कर कितने की किसानों को लाभ पहुँचाया है और जिसे ‘बम्पर फसल’ कहते हैं,किसानोंने वो प्राप्त की है। जो भी एक बार इसका प्रयोग कर के इससे होने वाले आर्थिक लाभ का अनुभव ले लेता है, वो फिर इसी विधि से आगे हमेशा फसल उगाता है।

इस प्रयोग को कैसे करें:

  1. जो भी फसलें इस समय, ठंड की ऋतु में बोई जाती हैं, या आपके प्रदेश में होती हैं, उनके अच्छे गुणवत्ता वाले बीज, 10-10 ग्राम या 20-20 ग्राम बराबर माप से ले लें। यानि सभी बीज एक बराबर तोल लें और अलग अलग कटोरी या पात्र में रख लें।
  2. रात 12 बजे चंद्रमा के प्रकाश के नीच रखें। जहाँ सीधा चंद्रमा की किरणों का प्रकाश आ रहा है, वहाँ रखें।
  3. 12 से 4 बजे तक उन्हें चंद्रमा के प्रकाश में रखें।
  4. 4 बजे अर्थात ब्रह्म मुहूर्त के समय उसे उठा लें। उस समय से ओस (dew/मॉइस्चर) पड़नी आरंभ होती है, उस ओर पड़ने से पहले ही अलग-अलग रखे बीजों को उठा लें।
  5. चंद्रमा के प्रकाश से उठाने के तुरंत बाद उन बीजों को अलग-अलग तोलें।
  6. जिस भी बीज का वजन सबसे अधिक बढ़ा है, वो आने वाली ठंड में उस प्रदेश उस स्थान की सबसे अच्छी फसल होगी। जैसे गेहूँ का वजन 23 ग्राम हो गया, चने का 27 ग्राम हो गया और मूँगफली का 25 ग्राम हो गया तो, उस स्थान पर इस वर्ष चने की फसल सबसे अच्छी होगी। स्थान के वातावरण के अनुकूल अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग फसल के अच्छे होने के संकेत होंगे।

जिसका वजन सबसे अधिक बढ़ा, वो आने वाली ठंड में उस प्रदेश, उस स्थान की सबसे अधिक अच्छी फसल रहेगी।

 

शरद पूर्णिमा के चन्द्र का प्रभाव जिन जिन औषधियों और वनस्पतियों पर सबसे अधिक होता है, हमें उसका अधिक से अधिक लाभ मिले, इसके लिए आयुर्वेद ने बहुत से प्रयोग बताये हैं जिससे स्वास्थ्य अच्छा हो और रोग दूर हों।

श्वास के रोगों के लिए पीपल की अंतर्छाल का प्रयोग

पीपल के वृक्ष को अश्वत्थ कहते हैं। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि पीपल मेरी विभूति है, क्योंकि पीपल का वृक्ष इतना अद्भुत है वो 24 घंटे प्राणवायु (आक्सिजन) देता हैऔर उसमें सबसे अधिक प्रमाण में आक्सिजन पाया जाता है। पीपल की छाल में वात के रोगों को ठीक करने की अद्भुत शक्ति होती है। और ये शक्ति उसमें पूर्णिमा के दिन सबसे अधिक होती है।

इस प्रयोग को कैसे करें:

  1. 3-4 दिन पहले पीपल के वृक्ष की छाल (bark) को वृक्ष से ले लें।
  2. उसे छाया में सुखा लें। वो सूखी हुई होनी चाहिये, उसमें जल का अंश (मॉइस्चर) नहीं होना चाहिये।
  3. उस पूरी तरह सूखी छाल का चूर्ण कर लें या बहुत छोटे-छोटे टुकड़े कर लें। उसे जला का भस्म रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं।
  4. रात को 10 बजे उसे चन्द्रमा की किरण जहाँ आ रही हों,जैसे आँगन में, छत पर, टेरेस पर, वहाँ पर 2 घंटे के लिए रख दें।
  5. वह चूर्ण चन्द्र की शीतल किरणों की पूरी शक्ति को सोखेगा।
  6. चावल और गाय के दूध की खीर बनानी है (खीर शाम को भी बना के रख सकते हैं)।
  7. खीर में 2 घंटे चाँदनी में रखा चूर्ण मिला देना है और रात को ले लेना है।
  8. एक कप खीर में एक चम्मच पीपल की छाल का चूर्ण मिला कर लेना है।
  9. जिसे भी श्वास की समस्या हो, एसथमा या दमा हो, ब्रांगकाइटिस की समस्या हो, श्वसन तंत्र की समस्या हो, उसमें 70 से 80% लाभ मिलता है।

ये प्रयोग संस्कृति आर्य गुरुकुलम् में हर वर्ष कई श्वास के रोगी करते हैं और बहुत लाभ होता है।

यहाँ एक ध्यान देने योग्य बात ये है कि भारतीय विज्ञान और आयुर्वेद की सिद्धांतों की संकल्पना यानि कान्सेप्ट, भाषा और उनकी शब्दों की उत्पत्ति (एटिमालॉजी) आधुनिक विज्ञान की भाषा से शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद करने से इसका अर्थ समझ नहीं आता है। अतः भारतीय विज्ञान को भारतीय विज्ञान की भाषा और शब्द-अर्थ के साथ अध्ययन करने से ही उसमें दिया ज्ञान मिल पाता है।

तो इस शरद पूर्णिमा, अपने भारतीय विज्ञान का प्रयोग कीजिये और अपने स्वास्थ्य और कृषि को अधिक से अधिक लाभ दीजिए।

 


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