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मन ही सार है..

Home [gtranslate] पंचकोष विज्ञान और पंचकोष आधारित विकास Anshu Dubey March 10, 2023 No Comments मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है ? जीवन की सार्थकता कहाँ पर है ? विकास का परमोच्च शिखर क्या है ? तृप्ति और आनंद की प्राप्ति किस बिन्दु पर है? इन सब प्रश्नों के जवाब तब मिलते हैं इसकी अनुभूति तब होती है जब हम पंचकोश को जानते हैं। पंचकोश का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है । आयुर्वेद के ग्रंथों मे, अध्यात्म के ग्रंथों मे, उपनिषदों में पंचकोश का विस्तृत वर्णन किया गया है । भारतीय शिक्षा का तो फलितार्थ ही पंचकोश के विकास को बताया गया है । मानव अस्तित्व के पाँच तत्व माने गये हैं – शरीर ( इंद्रिय), प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा । इन पांचों का समन्वय होकर पूरा शरीर बनता है, जब तक ये न हो तब तक शरीर पूर्ण नहीं माना जाता है अर्थात क्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। इस अधिष्ठान को समझना प्राथमिकता है। इस शरीर को समझना प्रथम सोपान है  अर्थात अन्नमय कोश, शरीर के अंदर की शक्ति को समझना द्वितीय है अर्थात प्राणमय कोश, क्रिया के प्रेरक विचार या मन को समझना तृतीय है अर्थात मनोमय कोश, विचार की प्रेरक बुद्धि को समझना चौथा सोपान है अर्थात विज्ञानमय कोश और इन सब से भी ऊपर, बुद्धि से पर वह तत्व जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको समझना अंतिम सोपान है अर्थात आनंदमय कोश । आत्मा के ऊपर जो पांच परते हैं वो पांच कोष (sheaths) हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश। पांचों कोष उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। अन्नमय से सूक्ष्म प्राणमय, प्राणमय से सूक्ष्म मनोमय, मनोमय से सूक्ष्म विज्ञानमय और विज्ञानमय से आनंदमय कोष (चित्त) है जो सूक्ष्मतम है।  विकास को बाहर से नहीं लाया जा सकता।  शरीर बाहर से नहीं बढ़ता अपितु अंदर कुछ ऐसी प्रक्रिया होती है कि शरीर अंदर से बढ़ता जाता है । कोश यह समझाता है कि जितनी भी प्रक्रिया होगी वह अंदर होगी और विकास अंदर से बाहर की ओर होता है। शरीर के भीतर से कुछ होगा वह कोशों की परत दर परत बाहर आएगा।  यही जानकर ऋषि-मुनियों ने किस परत पर कार्य करना चाहिए उसका विज्ञान समझाया, वह कैसे करना है ये समझाया, क्या कार्य है, वह कैसे होता है और इसका परिणाम क्या है वह सब समझाया उसे ही पंचकोश का पूरा विज्ञान कहते हैं । यह कोश का विज्ञान है कि किस परत पर कार्य होता है। पंचकोश विज्ञान को जब हम जानते हैं तो उसमे क्रियाकारिता नहीं है, केवल समझना है । पंचकोश विकास को जब जानते हैं तो उसमें क्रियाकारिता है, कर्तव्य का बोध है कि क्या करना है उसके विज्ञान को समझना पंचकोश के विकास को समझना है।पंचकोश का विकास जब कहा जाता है तब विकास में कर्तव्य का बोध है कि क्या कार्य होता है। संस्कृति आर्य गुरुकुलम् , पंचकोश आधारित विकास के सिद्धांत द्वारा विधिवत शिक्षा व जीवन के विकास का अविरत कार्य आदर्श समाज के निर्माण के लिये कर रहा है। पंचकोश विकास का मार्गदर्शन संस्कृति आर्य गुरुकुलम के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य मेहुलभाई सत्रों, शिविरों तथा अध्ययन विषयवस्तु के माध्यम से देते हैं।

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पंचकोष विज्ञान और पंचकोष आधारित विकास

Home [gtranslate] पंचकोष विज्ञान और पंचकोष आधारित विकास Anshu Dubey January 11, 2023 No Comments मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है ? जीवन की सार्थकता कहाँ पर है ? विकास का परमोच्च शिखर क्या है ? तृप्ति और आनंद की प्राप्ति किस बिन्दु पर है? इन सब प्रश्नों के जवाब तब मिलते हैं इसकी अनुभूति तब होती है जब हम पंचकोश को जानते हैं। पंचकोश का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है । आयुर्वेद के ग्रंथों मे, अध्यात्म के ग्रंथों मे, उपनिषदों में पंचकोश का विस्तृत वर्णन किया गया है । भारतीय शिक्षा का तो फलितार्थ ही पंचकोश के विकास को बताया गया है । मानव अस्तित्व के पाँच तत्व माने गये हैं – शरीर ( इंद्रिय), प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा । इन पांचों का समन्वय होकर पूरा शरीर बनता है, जब तक ये न हो तब तक शरीर पूर्ण नहीं माना जाता है अर्थात क्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। इस अधिष्ठान को समझना प्राथमिकता है। इस शरीर को समझना प्रथम सोपान है  अर्थात अन्नमय कोश, शरीर के अंदर की शक्ति को समझना द्वितीय है अर्थात प्राणमय कोश, क्रिया के प्रेरक विचार या मन को समझना तृतीय है अर्थात मनोमय कोश, विचार की प्रेरक बुद्धि को समझना चौथा सोपान है अर्थात विज्ञानमय कोश और इन सब से भी ऊपर, बुद्धि से पर वह तत्व जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको समझना अंतिम सोपान है अर्थात आनंदमय कोश । आत्मा के ऊपर जो पांच परते हैं वो पांच कोष (sheaths) हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश। पांचों कोष उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। अन्नमय से सूक्ष्म प्राणमय, प्राणमय से सूक्ष्म मनोमय, मनोमय से सूक्ष्म विज्ञानमय और विज्ञानमय से आनंदमय कोष (चित्त) है जो सूक्ष्मतम है।  विकास को बाहर से नहीं लाया जा सकता।  शरीर बाहर से नहीं बढ़ता अपितु अंदर कुछ ऐसी प्रक्रिया होती है कि शरीर अंदर से बढ़ता जाता है । कोश यह समझाता है कि जितनी भी प्रक्रिया होगी वह अंदर होगी और विकास अंदर से बाहर की ओर होता है। शरीर के भीतर से कुछ होगा वह कोशों की परत दर परत बाहर आएगा।  यही जानकर ऋषि-मुनियों ने किस परत पर कार्य करना चाहिए उसका विज्ञान समझाया, वह कैसे करना है ये समझाया, क्या कार्य है, वह कैसे होता है और इसका परिणाम क्या है वह सब समझाया उसे ही पंचकोश का पूरा विज्ञान कहते हैं । यह कोश का विज्ञान है कि किस परत पर कार्य होता है। पंचकोश विज्ञान को जब हम जानते हैं तो उसमे क्रियाकारिता नहीं है, केवल समझना है । पंचकोश विकास को जब जानते हैं तो उसमें क्रियाकारिता है, कर्तव्य का बोध है कि क्या करना है उसके विज्ञान को समझना पंचकोश के विकास को समझना है।पंचकोश का विकास जब कहा जाता है तब विकास में कर्तव्य का बोध है कि क्या कार्य होता है। संस्कृति आर्य गुरुकुलम् , पंचकोश आधारित विकास के सिद्धांत द्वारा विधिवत शिक्षा व जीवन के विकास का अविरत कार्य आदर्श समाज के निर्माण के लिये कर रहा है। पंचकोश विकास का मार्गदर्शन संस्कृति आर्य गुरुकुलम के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य मेहुलभाई सत्रों, शिविरों तथा अध्ययन विषयवस्तु के माध्यम से देते हैं।

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वरदराज पेरूमाल कोविल मंदिर, काँचीपुरम, तमिलनाडु

Home [gtranslate] वरदराज पेरूमाल कोविल मंदिर, काँचीपुरम, तमिलनाडु Anshu Dubey August 12, 2022 No Comments

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‘रामात् नास्ति श्रेष्ठ:’ ‘शक्तिक्रीडा जगत सर्वम्’ – संस्कृत भाषा का आध्यात्मिक संबंध

Home [gtranslate] ‘रामात् नास्ति श्रेष्ठ:’ ‘शक्तिक्रीडा जगत सर्वम्’ – संस्कृत भाषा का आध्यात्मिक संबंध Anshu Dubey July 5, 2022 No Comments (सूचना: विचारों का तंतुजाल जटिल हो सकता है, किंतु इसे सरल शब्दों में परिवर्तित करने की कोई मंशा नहीं है ☺️।) ‘रामात् नास्ति श्रेष्ठ:’ तथा ‘शक्तिक्रीडा जगत सर्वम्’ इन दोनों वाक्यों का संस्कृत भाषा के सन्दर्भ मे एक विशेष आध्यात्मिक संबंध है। संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है, ये तो हमने कई बार सुना है। इसका बंधारण (व्याकरण) विश्व में सर्वश्रेष्ठ है, जिस कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के क्षेत्र में इसका जड़ों के स्तर पर प्रयोग हो रहा है। किन्तु इस वैज्ञानिकता के साथ-साथ संस्कृत के बंधारण में आध्यात्म और सृष्टि की रचना के चक्र का जो रहस्य बुना है, वह जैसे प्रकट हुआ मन में! उसे ही मैंने शब्द देने का प्रयास किया है। संस्कृत की वैज्ञानिकता क्या है ? पहला तो यह शब्दों या मंत्र के रूप में, ध्वनि तरंगों के द्वारा हमारे स्थूल शरीर में जैविक और रासायनिक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है, जो हमारे स्वास्थ्य से और मस्तिष्क की गतिविधि से सीधा सीधा संबंध रखती है। और दूसरा इस के पदों के अर्थ को समझकर उससे, मन में प्रस्तुत-परंतु-प्रायः-सुषुप्त अध्यात्म का विकास भी होता है। संस्कृत मनुष्य को अध्यात्म की ओर उसके जीवन चक्र के लक्ष्य की ओर ले जाती है। संस्कृत की वैज्ञानिकता में अध्यात्म कैसे बुना है? “रामात् नास्ति श्रेष्ठ:” इस वाक्य का प्रयोग तीन विषयों में उपमा-संकेत के लिए किया जाता है : १) मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र और उनके कुशल राजतंत्र (रामराज्य) के कारण २) आर्युवेद के अध्ययन मे ३) संस्कृत भाषा के अध्ययन , पाठन में तकनीकी विश्लेषण: संस्कृत में राम शब्द का परिचय “अकारांत पुल्लिंग राम शब्द” इस प्रकार से दिया जाता है। राम शब्द रम् धातु से बना है। रम् धातु का अर्थ है क्रीडा करना, उसमें घञ् प्रत्यय, उपधावृद्धि होकर- राम- यह कृदंत शब्द सिद्ध हुआ और कृदंत होने से प्रातिपदिक हुआ, अर्थात् अर्थवान हुआ, सार्थक हुआ। सुप् और तिङ् प्रत्याहार में आने वाले प्रत्ययों को विभक्ति कहते हैं। प्रातिपदिक (सार्थक शब्द) को विभक्ति की प्राप्ति होती है, इन दोनों के संयोग से जो परिणाम प्राप्त हुआ उसे पद कहते हैं। विभक्तियाँ सात होती हैं जिन्हें हम क्रमशः प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी (तथा संबोधन) कहते हैं। इनके नाम क्रमशः कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध अधिकरण तथा संबोधन हैं। आध्यात्मिक विश्लेषण: राम का अर्थ है “रमन्ते योगिनोऽस्मिन्” – योगी जिसने रमण करते हैं, यानि परम तत्व या ईश्वर। ‘शक्ति क्रीडा जगत् सर्वम्’ का अर्थ है यह सारा जगत शक्ति का खेल है अर्थात् माया चक्र है जिसमें सब जीव क्रीडा का भाग हैं। राम प्रातिपदिक अर्थात् सार्थक है, परम तत्व है जिसमें योगी रमण करते हैं। सार्थक को (परम तत्व को) शक्ति से विभक्ति की प्राप्ति हुई। विभक्ति अर्थात विभाजन। यह विभाजन शक्ति के द्वारा हुआ, शक्ति अर्थात् वह क्रीडा(माया) जिसमें योगी रमण करते हैं। तो राम शक्ति (प्रकृति) से विभक्त होकर सात रूपों में सिद्ध हैं, जो सात विभक्तियाँ हैं। राम ही कर्ता हैं; राम ही कर्म हैं; राम ही करण हैं साधन हैं, उनके ही द्वारा सब कुछ है; राम संप्रदान हैं अर्थात् सब कुछ राम के लिए है; राम से अलग होकर, अपादान कर; राम के ही सम्बन्ध से सब पुनः राम के अधिकरण में, उसके अधिकार में आ जाते हैं और शक्ति क्रीडा का चक्र पूर्ण होता है। जिस नाम को एक बार (एक वचन), एक बार और (द्विवचन), बहुत बार (बहुवचन) पुकारने की इच्छा होती है, संबोधन की विवक्षा होती है, वह है = राम! सार्थक प्रातिपदिक राम की अर्थात् परम अणु की, शक्ति से कई अणुओं में विभक्ति हुई, किंतु परमाणु फिर भी पूर्ण ही रहा। पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। यह, वह सब पूर्ण है, पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। पूर्ण में से पूर्ण लेकर भी पूर्ण ही शेष रहता है। और अंत में, रामरक्षा स्तोत्र के इस छंद में राम के सारे रूप (विभक्तियाँ) एक साथ उपस्थित हैं। विद्यार्थियों, विशेषकर बाल विद्यार्थियों के लिये एक साथ सरलता से सारी विभक्तियाँ स्मरण करने के लिये ये श्लोक स्मरण कर लेना सर्वोत्तम युक्ति है : “रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर॥” यात्रा जारी है….

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मास्टरस्ट्रोक ! पर किसका..?

Home [gtranslate] मास्टरस्ट्रोक ! पर किसका..? Anshu Dubey June 5, 2022 No Comments आज का मूडी जी का मास्टरस्ट्रोक : जागो हिन्दू जागो हैश्टैग “टेक द फ़ाइट टू द स्ट्रीट्स” 👆गहन चिंतन करें और समझें। आज की नूपुर शर्मा की घटना अप्रत्याशित है। क्षुब्ध नहीं हूँ क्योंकि एक सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को सनातन का न तो रक्षक मानती हूँ न ही तारनहार। किसी से उसकी क्षमता से अधिक आशा बांधेंगे तो ठेस अधिक लगेगी ही। सावधान ! कृपया पहचानें कि किसका मास्टरस्ट्रोक आज सोशल मीडिया पर बड़ी अच्छी तरह चल रहा है – जो सामान्य जन का एकजुट होना शुरू होता दिख रहा था (आभासी दुनिया में ही सही) वो आज ही छिन्न भिन्न हो रहा है। अधिकतर कह रहे हैं कि अपने आप और केवल अपने जीवन-जीविका पर ध्यान दो, हिंदू राष्ट्र के आशावाद ने अचानक मुँह फेर लिया आज। राष्ट्रत्व और अपने सामूहिक अस्तित्व के प्रति उदासीन और बँटा हुआ हिंदू ही उन राक्षसों को शक्ति है। इस एक ही पासे से लकड़ी खाने वाले मकड़े ने रत्ती रत्ती लकड़ा खाते हुए आज उस भाग को खा डाला जी जगह से एक सशक्त शाखा निकली हुई थी। इस गणित की पहेली जो आज की घटना के, हिन्दू राष्ट्र के संदर्भ में सुलझाइए और पहचानिये कि लकड़ी कौन है, मकड़ा कौन, रत्ती रत्ती खाई जाने वाला पदार्थ क्या है और कितने दिन लगेंगे लकड़े को समाप्त होने मेंः अस्सी मन का लकड़ा, उस पर बैठा मकड़ा, रत्ती रत्ती खाये तो कितने दिन में खाये।

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राष्ट्रवादी उपभोक्ता बनेंगे ?

Home [gtranslate] राष्ट्रवादी उपभोक्ता बनेंगे ? Anshu Dubey November 28, 2021 No Comments आपने शायद वो विडिओ देखा होगा चीन का मनी ट्रैप – यानि उसके पैसे के जाल के बारे में। कैसे चीन पहले सहायता के लिये लोन देता है और देशों के वापस ना चुकाने पर धीरे धीरे उस देश के संसाधनों और स्थानों तक पर अपना कानूनी रूप से वैध अधिकार कर लेता है। धीरे-धीरे कई देशों में ऐसा कर रहा है और अपने सिल्क-रूट पर कार्य कर रहा है। हम ये सोच कर खुश हो जाते हैं कि भारत की ऐसी स्थिति नहीं है तो हम सुरक्षित हैं । क्योंकि मोदी जी अन्य देशों के साथ सफल सामरिक व कूटनैतिक संबंधों के द्वारा सिल्क-रूट के षड्यन्त्र से भली-भाँति निबट रहे हैं, हम सुरक्षित हैं । बड़े बड़े सुरक्षा और आधारभूत इन्फ्रस्ट्रक्चर की वस्तुओं के भारत में निर्माण से हमें बल मिलता है, उसकी ओर सकारात्मक कदम बढ़ रहे हैं, इसलिए हम सुरक्षित हैं।केवल इतना ही सोचकर निश्चिंत ना हो जाईये ! हम में से प्रत्येक का जो दायित्व है, राष्ट्रधर्म है उसका हम सबको अपने अपने स्तर पर ही पालन करना है। आप और हम उसमें कहाँ आते हैं, ये समझना चाहिए।क्योंकि भारत बाकी देशों जैसा नहीं है, इसीलिए भारत के लिये चीन की रणनीति भी बाकी देशों जैसी नहीं है । उसका एक पक्ष ये है कि उसे भारत का आर्थिक नियंत्रण नहीं प्राप्त करना बल्कि उसे आर्थिक रूप से दुर्बल करना है, अस्थिर करना है, आर्थिक अराजकता फैलानी है।यहाँ आर्थिक निर्भरता बनाने के लिये उसकी भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या पर निवेश का रास्ता लिया है। भारत के बाजार कर दोधारी निशाना है – एक फुटकर बाजार जिसे आप और हम प्रतिदिन प्रयोग करते हैं और दूसरा स्टार्ट-अप में निवेश । दोनों जगह दृष्टि में आए ऐसे बड़े बड़े नाम उसका लक्ष्य नहीं है, अपितु उसका लक्ष्य है साधारण उपभोक्ता-आप और हम! उपभोक्ता बाजार में ‘मेड इन चाइना’ को तो हम जानते ही हैं। बीच-बीच में ‘स्वदेशी ही लो’ की हवा चलती है किन्तु अंततः साधारण भारतीय उपभोक्ता सस्ता होने के कारण और सुलभता से उपलब्ध होने के कारण अभी भी अधिकतर चीन का बना सामान ही प्रयोग कर रहा है। ट्विटर की जागरूकता बहुत ही छोटे स्तर की होती है, उसे पूरे भारत का व्यवहार और उत्तर समझने की भूल हम ना करें तो अच्छा। फुटकर व्यापारी चीन के बने उत्पाद बहुत सरलता से, अत्यधिक उधार पर प्राप्त कर सकते हैं अतः धीरे-धीरे गोली-टॉफी तक यहाँ बनाना छोड़कर वही से आयात करने लगे हैं । हम सबको अपने परफेक्ट घर के परफेक्ट मंदिर में परफेक्ट मूर्ति चाहिए तो दीपावली पर एकदम समकोणीय सुंदर दिखने वाली लक्ष्मी-गणेश ही आते हैं जो पास के बाजार में मिल जाए। ट्विटर के फोटो-ओप में मिट्टी का सामान बनाने वाले या बेचने वाले से ही अंततः विसर्जन करने के लिये लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाएं लेने के आह्वान सीमित होते हैं; व्यापक स्तर पर बाजार में क्या उपलब्ध है और लोग क्या ले रहे हैं, एक दृष्टि डालने पर दिख जाता है। ये तो हमारी संस्कृति के सबसे बड़े उत्सव की बात है, साधारण जीवन की मूल आवश्यकताओं के साधनों और उत्पादों के तो असंख्य उदाहरण हैं।अंतरराष्ट्रीय व्यापार-नियमों के चलते सरकार एक सीमा के बाद इस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती, लेकिन चीन को रोकने की पूरी आशा हम केवल सरकार/शासन से रखते हैं । फुटकर व्यापारी थोक विक्रेता का ग्राहक है और थोक विक्रेता चीन की महा-थोक, सस्ती और निरंतर आपूर्ति का। फुटकर और थोक व्यापारी की अधिक से अधिक लाभ कमाने की मूलभूल अपेक्षा है। वो अपना लाभ की मात्रा में कोई कमी नहीं चाहते और उपभोक्ता के रूप में हमें सबसे सस्ता और घर के बगल वाली दुकान में मिलने वाला सामान ही चाहिए।उसी प्रकार वैसे तो स्टार्ट-अप के जगत में बहुत सारा विदेशी निवेश लगता है और चीन के निवेश की पूँजी छोटी लगती है – कुछ ६-७ बिलियन अमरीकी डॉलर ! कहा जाता है कि सरकार के लगाए प्रतिबंधों के बाद तो इस निवेश में और भी कमी आई है क्योंकि स्टार्ट-अप अन्य विदेशी निवेशकों से और भारत में से ही बहुत धन इकट्ठा कर ले रहे हैं। केवल बड़े-बड़े कुछ स्टार्ट-अप में चीन का पैसा लगा है (2020 में भारत के 24 में से 17 यूनीकॉर्न्स में चीन का प्रत्यक्ष निवेश था जिसमें अलीबाबा और टेनसेंट मुख्य थे, एन्ट फाइनैन्शल अलीबाबा की ही सहबद्ध कंपनी है)। आज byju, zomato जैसे कुछ का उदाहरण दे कर बताया जाता है कि चीन का निवेश भ्रम है, इन्होंने कितनी तेजी से चीन के निवेश से अपनी निर्भरता हटा ली और हम मान लेते हैं कि ऐसा ही है । जिन जिन प्रकाशन समूहों में ये बताते हुए आलेख-आर्टिकल आते हैं उनके नाम देखिएगा कभी। भारत के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भ्रष्टाचार से ग्रसित है, ये हम केवल राजनैतिक चर्चाएं करते समय ध्यान में रखते हैं लेकिन ऐसे बिजनस आर्टिकल पढ़ते समय भूल जाते हैं। लेकिन छोटे-छोटे कितने ही स्टार्ट-अप की निवेश की पहली पसंद या विकल्प कोई चीनी निवेशक या निवेश कंपनी ही होती है। बहुत से ऐसे लोगों को निजी रूप से जानती हूँ।परोक्ष रूप से चीन क्या कर रहा है और किस प्रकार अमेरिका में वेन्चर केपिटल कंपनियाँ बना के छद्म वेश में निवेश कर रहा है, ये भी कम ही लोग जानते हैं। ट्रम्प के शासन तंत्र ने बहुत सी ऐसी कंपनियों को बंद किया, उन के दाँत कुंद किये, तो व्यापार जगत ने बहुत भर्त्सना करी (र.र. शब्द का प्रयोग करने का बड़ा मन है यहाँ!) । वहाँ भी ‘करेला, वो भी नीम चढ़ा’ तब हो जाता है जब सारी व्यापारी दुनिया कहती है (भारत की विशेष रूप से) कि राजनीति और व्यापार को अलग रखना चाहिए। कदाचित उसका निहित आर्थिक स्वार्थ इतना अधिक है कि ये समझ नहीं पाती कि चीन का हर कदम वैश्विक राजनीति से प्रेरित है। जैक मा (की कंपनी अलीबाबा) ने भारत में निवेश को केवल व्यापारिक दृष्टि से नाप-तोल कर विवेकपूर्ण व्यवहार करना शुरू किया और अपने देश में भी शासन से अलग आर्थिक स्वावलंबन की राह पर चलने का प्रयास किया तो, एक दृष्टि से विश्व की सबसे बड़ी कंपनी को रातों-रात क्या बना दिया

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अम्मा

Home [gtranslate] अम्मा Anshu Dubey October 8, 2021 No Comments माँ नोवेम्बर 1938 – अगस्त 2020 अम्मा चली गयीं। उनकी आत्मा अब दिवंगत हो गई। ईश्वर की शरण में है। जीवन चक्र का एक वृत्त पूर्ण हुआ। ये अच्छी तरह पता है, लेकिन माँ का रूप तो वही देखा जाना, जो इस जीवनमें था। आत्मा की यात्रा की जानकारी उनके अब अचानक से न होने दुख, ख़ालीपन, कष्ट और अवसाद को कम नहीं कर पा रही। धीरे धीरे उनके जाने के दिन के एक-एक दिन पीछे होते जाने से ये अनुभव स्मृति में परिवर्तित होना आरंभ हुआ है पर यही जीवन भर की स्मृतियाँ एक विद्युत तरंग की तरह आती हैं और हाथ पैर सुन्न कर जाती हैं, एक ही जगह पर जड़ खड़े कर जाती हैं। ईश्वर की कृपा से आपस में प्रेम से जुड़े घर परिवार की ‘जगत मामी’ ने प्रत्येक व्यक्ति जीवन को छुआ है। कोरोना के समय में भी जो अपने को उनके अंतिम दर्शन लेने से नहीं रोक पाए, उन सभी व्यक्तियों में एक भी, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसने उनसे कुछ सीखा ना हो, उनके हाथ का बना कुछ फ़ेवरेट खाया हो या उनके हाथ से बना कुछ पहना न हो। अनगिनत स्मृतियाँ..सबकी.. कोई शोक के आता है तो कभी बात कर पाती हूँ, कभी नहीं कर पाती। लगा था, लिख कर मन का सार शब्दों में आ पाएगा। पर यह असीम ईश्वर का अंश, जिसे हम माँ के रूप में जानते हैं, शब्दों से बहुत परे है। कितने रूप मन में, मस्तिष्क में एक साथ घूम रहे हैं। वो वाली अम्मा, जिसकी पहली लिखाई उनकी काली डायरी में देखी जो वो बच्चों की तोते भाई वाली कविता थी, या वो वाली जिनकी आख़िरी लिखाई स्वस्तिक के आकार में लिखा राम-नाम था। वो वाली माँ जो एकता कपूर के अधिकतर धारावाहिक बड़े रस से देखती थीं, या वो वाली जो एक बार में विस्तृत श्रीमद्भागवतम पढ़ गईं थीं। वो वाली माँ जो हाथ के पंखे, झाड़ू से पिटाई करती थीं, या वो वाली माँ जिसने अपनी बेटी की नाक इसलिए नहीं छिदाई थी क्योंकि उससे दर्द बहुत होता है। वो वाली माँ जो सारे स्कूल जीवन में बेटी को अकेले पैदल आने-जाने की आदत डालती थीं या वो वाली जो ऑफ़िस की कैब से भी घर पहुँचने तक गेट पर ही टहलती रहती थीं। वो वाली माँ जो परिवार की सभी बहुओं को सूने हाथ रखने पर बहुत डाँटती थीं, या वो वाली जो पापा के जाने के बाद कभी पिक्चर देखने हॉल में नहीं गयीं। वो वाली माँ जिसे सारा जीवन स्वावलंबी व दौड़ता फिरता देखा, जिन्हें नानाजी उनसे 8 साल बड़े मामाजी के पीछे भगाते थे, या वो वाली जो ICU की मशीनों के तारों, अपने अंदर गयीं नलियों में घिरी, धीरे धीरे शारीरिक कष्ट से अचेतन होती इसलिए भावशून्य मुख लिए थी कि उनके चेहरे पर कष्ट देखकर उनके बेटे को असह्य कष्ट हो रहा था। वो वाली माँ जिसकी कभी कभी चिंता होती थी कि कैसे अपनी गृहस्थी का,पुत्र का मोह छोड़ सकेंगी, या वो वाली जिन्होंने तीन दिन में अपनी जिजीविषा समेट ली और वेंटिलेटर पर भी अपनी हृदय गति रोक कर, बाहर के बल से एक श्वास भी स्वीकार नहीं करी। उनके जाने के दुःख को बता नहीं सकती लेकिन अम्बे माँ ने उन्हें अपनी शरण में लिया और उनका ध्यान करने पर गले तक भरी हुई संतुष्टि का आभास देकर जो ममता भरी सांत्वना दी, वही आगे जीवन का संबल है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

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मेरा गीता पथ

Home [gtranslate] मेरा गीता पथ Anshu Dubey October 8, 2021 No Comments गीता विश्व की सर्वाधिक अनुवादित पुस्तक है। गीता प्रेस, गोरखपुर का गीता की प्रतियाँ छापने का विश्व रिकॉर्ड है। सबसे प्रिय व प्रचलित ग्रंथों में से एक है भगवद्गीता! आज गीता-जयंती है, मोक्षा एकादशी – मार्ग शीष शुक्ल एकादशी! अनेक गहन लेख, विश्लेषण आज देखने और पढ़ने को मिले।  दो वर्ष पहले तक मुझे कुछ नहीं पता था गीता जयंती के बारे में और गीता की बारे में केवल जानकारी थी। कितने योग हैं, प्रत्येक का क्या संदेश है, भीम के शंख का नाम क्या है, ईश्वर को कौन प्रिय है, निष्काम कर्म के सोपान क्या हैं – कुछ नहीं पता था। घर में चार या पाँच गीता, अलग अलग रूपों में होने पर भी, पूरी एक बार भी पढ़ी नहीं थी। अनुवाद तो बाद की बात है, मूल संस्कृत के श्लोक भी गिने-चुने थे जो पता थे या कंठस्थ थे ( बी आर चोपड़ा का धन्यवाद)। जर्मनी, ब्लैक फारेस्ट घूमने गयी थी और वहां के एक छोटे से गाँव जैसी जगह में मुझे एक इस्कॉन के जर्मन व्यक्ति ने भगवद्गीता की अंग्रेजी अनुवाद की प्रति पकड़ाई थी और कहा था कि वह वृंदावन जाने के लिए प्रतीक्षारत है। उस दिन अपने आप को पहली बार गीता न पढ़ी होने के लिए धिक्कारा था। उसके बाद घर आ कर कितनी बार नियम बनाने का प्रयत्न किया कि नित्य एक श्लोक पढ़ने से तो आरम्भ करें पर हुआ ही नहीं। बस एक इंग्लिश अनुवाद वाली और एक गीता प्रेस की छोटी गुटका living room में रखी रहती थीं। उसे पूजा के समय नित्य पढ़ने का प्रयास किया, ‘कॉफ़ी टेबल बुक’ की तरह पढ़ने का प्रयास किया, ऑफिस आते-जाते पढ़ने का नियम बनाने का प्रयास किया पर प्रथम अध्याय के 8-10 श्लोकों से आगे किसी अवस्था में आगे नहीं बढ़ पाई। फिर सोचा पहले अच्छे से संस्कृत का पुनरावर्तन (revision) कर लूँ फिर गति से और सरलता से पढ़ ली जाएगी। पुस्तक से स्वयं पढ़ना आरम्भ किया क्योंकि लगता था दसवीं तक पढ़ी है तो उतना तक पहुँचे आगे की पास की एक वेद शाला में पढ़ लेंगे (पुणे में घर के पास मठ है वहाँ वेद शाला चलती है)। स्कूल वाला पुनरावर्तन भी न हो पाया, वेद शाला तो क्या ही जाते। इन सब में कुछ दो साल निकल गये। पिछले वर्ष मैं गुरकुल में अंतः वासी बनने के बाद से चौथा गेयर लग गया! प्रतिदिन पहले शिक्षा सत्र में बच्चे गीता के दो अध्याय अवश्य पढ़ते हैं और एक संध्या समय। जिस समय मैं आयी तो तीसरा और पंद्रहवाँ प्रातः और पहला अध्याय संध्या समय चल रहा था। इतनी संस्कृत तो पढ़नी आती थी कि क्या लिखा है पढ़ लेते थे और बच्चों के साथ साथ गुरूमाँ से सुनकर उच्चारण की अशुद्धियाँ भी ठीक कर लीं। आते जाते गुरु जी कुछ त्रुटि ठीक कराते रहते थे। एक मास में बच्चों को तो तीनों पाठ कंठस्थ हो गए और मुझे त्रुटि रहित पढ़ने का अभ्यास हो गया। मोबाइल से अधिक गीता कहाँ रखी है इसका ध्यान होता था (सबकी अपनी अपनी प्रति है यहाँ)। अनुभव तो कर लिया पर एक बार किसी अतिथि से गुरुमाँ को कहते सुना तो आभास हुआ की गीता तो गुरुकुल में एक विषय है, नियम से नित्य व पूरी गंभीरता से पढ़ा जाने वाला और जीवन शैली भी। गुरु माँ को 13 वर्ष की आयु से पूरी गीता कंठस्थ है। किसी भी अध्याय से कोई भी श्लोक, उसका कोई भी पद (एक अनुष्टुप छंद श्लोक में चार पद होते हैं) कभी भी पूछ लीजिये। उससे भी अधिक उसका दिनचर्या में कभी भी प्रयोग दृष्टांत के रूप में, कभी बच्चों से उनकी स्मृति परखने के बहाने, जो बच्चों ने याद कर लिया है उसमें से, कुछ भी पूछ लेना – बहुत सहजता से आता है उनके व्यक्तित्व में। उन्हें याद कराने के लिए तरह तरह से श्लोकों को लिखने का ग्रह कार्य मिलता है, जैसे प्रत्येक अध्याय का तीसरा श्लोक लिखो। मैंने भी बच्चों के साथ ऐसा करना आरम्भ कर दिया। फिर कभी शाम को हमने गाँव वाली गीता सुनी। गाँव की गुजराती में सुनाई गीता (कुछ ही श्लोक) सुनकर, उसकी शैली और शब्द चुनाव से हँस हँस के पेट में दर्द हो गया। सच में ROFL, साँस अटकने तक हँसे थे। संजय – हनजड़ेया, धृतराष्ट्र – धरतड़या और कृष्ण – कनहड़िया थे उसमें। ये भी गुरुमाँ ने सुनाया और कुछ महीनों में जैसे जैसे समय मिला उन्होंने गीता के प्रत्येक श्लोक पर एक गुजराती गीत लिखा, बात करते करते लिखती रहती थीं वो! 700 श्लोक हैं गीता में! गुरुजी तो गीता-दर्शन के विशारद हैं। यहाँ उनसे गीता पढ़ने कितने लोग आते हैं, सभी वर्गों से। कई जैन गुरु मुनि आदि भी आते हैं उनसे गीता व दर्शन के विशेष प्रश्नों के लिए। तब मैंने जाना कि कितने लोग कितने स्तर पर गीता को अपने जीवन से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं। गीता के लिए क्या-2 करते हैं। अविश्वसनीय सा था। अब गीता नित्य जीवन में है। प्रतिदिन एक अध्याय का सस्वर वाचन करना अत्यंत सहज है अब। कितने वर्तन पूरे हो चुकें हैं एक साल में। बच्चों के साथ बदल बदलकर नित्य के तीन अध्याय पढ़ते हुए; उच्चारण की अशुद्धि सुधारते हुए; कभी शब्दों से, कभी अंतः प्रेरणा से, कभी अनुभव कर, कभी गुरुजी को सुनकर श्लोकों को समझते हुए, कब भगवद्गीता जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई है, पता नहीं चला। पहला पड़ाव पिछले वर्ष गीता जयंती पर युवाओं (कॉलेज के बच्चों) के लिए आयोजित गीता निबंध प्रतियोगिता के आयोजको में सम्मिलित हुई तो वो भी अविश्वसनीय सा ही था कि एक वर्ष पहले तक गीता जयंती का ही पता नहीं था और अगले वर्ष में गीता निबंध प्रतियोगिता के निबंध जांच रही थी। 800-900 निबंध आये थे और मुझे इंग्लिश के और कुछ हिंदी के निबंध जांचने थे। संस्कृत में केवल एक निबंध आया था। बच्चे अंक तालिका बनाते थे। गुजराती निबंधों की वर्तनी त्रुटि और व्याकरण त्रुटि पर दबे दबे हँसते थे कि कॉलेज के भैया-दीदी इतनी ग़लतियाँ करते हैं। पहली परीक्षा थी मेरी, गुरुजी से मैंने कहा कि मुझे तो गीता का कुछ ज्ञान नहीं है, मैं कैसे

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सुता चली ससुराल!

Home [gtranslate] सुता चली ससुराल! Anshu Dubey October 8, 2021 No Comments शादी करके लड़कियों को ही पति के घर क्यों जाना होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास.. जिस वैदिक समाज की आदिम वैवाहिक कल्पना ‘सूर्या’ के रूप में ऋग्वेद में प्रस्तुत की है, उसकी कल्पना न जाने कितनी शत-सहस्त्राब्दियों के बाद भी समाज में यथावत देखी जा सकती है। ऋषिका सूर्या का ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सूक्त है: सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवा भव। ननांदरी सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधिदेवेषु । । अर्थात, हे वधु, तू ससुराल जाकर (अपने सदाचरण और सबके साथ अच्छे बर्ताव से) सास ससुर नंद के ऊपर अधिपत्य जमाकर सर्वत्र महारानी होकर रह! कारण अवलोकन : (1) ये परंपरा यानि कन्या का विवाह कर के अपने वर/पति के घर जाना ऋग्वैदिक काल से है और थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अभी तक समाज में यथावत है। कोई व्यवस्था यदि सर्वहितकारी नहीं होती तो इतने लंबे समय तक टिक नहीं पाती। तो पहली बात ये इतनी प्राचीन है। पुराणों के काल से भी पहले की प्रथा, अतः परंपरा। पुराणों की बात इसलिए कि कई प्रकार का दूषण उसके बाद से आना आरम्भ हुआ जब गूढ़ ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक सरलता से समझाने के लिए लाक्षणिक भाषा में कथाओं और पात्रों की रचना हुई, जिसका अक्षरशः और स्थूल अर्थ लेकर के भ्रांतियों या ऐसी मान्यताओं का प्रसार हुआ जो तार्किक नहीं लगतीं।  एक तर्क जो इस प्रथा के बदलाव के पक्ष में दिया जाता है कि सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ भी बंद हुईं और यह इस बात का द्योतक है कि निरंतर परिवर्तनशीलता व ‘सुधार’ हमारे धर्म का, सनातन का परिचायक है इसलिए इस प्रथा (विवाह कर के कन्या का ससुराल जाना) को भी क्यों न बदलें! तो पहली बात यह कुप्रथा नहीं प्रथा है। प्रथा केवल इसलिए बदलनी चाहिए क्योंकि वह पुरानी है, कुछ उचित तर्क नहीं लगता। दूसरा, सती भी प्रथा नहीं थी। आपने और हमने जो देखा सुना है वह अधिकतर ताज़े लिखे इतिहास में पढ़ा है और राजा राममोहन राय जैसे समाज ‘सुधारकों’ के जीवन चरित्र के माध्यम से जानते हैं। पहले तो उसकी तह तक जाकर देखिए की क्या यह प्रथा थी? – देशव्यापि और चिरकालीन? अथवा क्षेत्र विशेष में कुछ समय के लिए आयी विसंगति! दूसरा, राजपूतों के रण पश्चात होने वाले जौहर को यदि हम सती-प्रथा मानते हैं तो ये ठीक नहीं। ऐसा ही कुछ बाल-विवाह के साथ है। बाल-विवाह को चिर कालिक प्रथा मानते हों तो खोजें-पढ़ें कि लड़कियों की शिक्षा 16-17 वर्ष की आयु तक होती थी और लड़कों की 25 वर्ष तक। इस आयु में विवाह होने को बाल-विवाह कहा जाएगा ? तो इस विसंगति के आरम्भ होने का काल ढूंढें और कारण भी। तो पहला बिंदु यह है कि यह प्रथा वैदिक काल से ही स्थापित है। ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित व्यवस्थाएँ बहुत सूक्ष्म, गहन चिंतन व परीक्षण के बाद स्थापित करीं गयीं थीं,जो बहुत लचीली हैं, यानी परिवर्तनशील होते हुए भी सशक्त सिद्धान्तों पर आधारित हैं जो पूर्णतया व्यावहारिक हैं। इसलिए इतने समय तक चल पा रहे हैं।  एक किसी ने इस प्रश्न पर मत प्रकट किया था कि इसे बदलना समाज को तोड़ने या राष्ट्र को नष्ट करने की ओर एक कदम होगा, तो उसका बहुत उपहास व तिरस्कार किया गया। किसी भी एक ओर के अंतिम ध्रुव पर अपना विचार बाँधने की बजाय एक मूल बात मैं ये समझती हूँ कि पूर्वजों के अतीत को जानने की उत्कंठा व अभिलाषा हर मनुष्य की होती है। जब अपने ही जीवन की अतीत कालिक स्मृतियों को वह परम् समान व स्नेह की दृष्टि से देखते है भले ही वह सुख की हों या दुख की, ऐसे ही अपने प्राचीन ज्ञान व परम्परा भी हमारे राष्ट्र की स्मृतियाँ हैं, उन्हें खो देने पर हम राष्ट्र का अस्तित्व भी खोते जाते हैं।  ऐसे में एक रोचक सत्य ये भी है दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों में, जहाँ मातृ-प्रधान समाज का रूप है, वहाँ लड़के विवाह करके लड़की के घर जाते हैं, गोत्रादि बदलते हैं, वंशवृक्ष मातृपक्ष (माता की सत्ता से, पिता की नहीं) से चलते हैं। इसका मूल वैदिक-प्रथाओं से ये अपभ्रंश क्यों और कैसे हुआ, यह जानना रोचक होगा। ऐसा सीमित क्षेत्रों व कुलों में ही होता है, सर्वव्यापि नहीं है।  (2) नर और नारी की रचना में अंतर है। मानव शरीर सत, रज और तम, इन तीन गुणों से बनता है, उसमें ये तीन गुण होते हैं। नर सत प्रधान है और नारी रज प्रधान है।  ईश्वर के अहंकार ने, सत से सृष्टि की रचना की प्रेरणा करी और प्रकृति ने रज से सृष्टि की रचना करी। स्त्री को प्रकृति ने जीवन सृजन का गुण व लक्षण दिया है। पतञ्जलि के अनुसार स्त्री का अर्थ है – ‘स्त्यापति अस्यां गर्भ इति स्त्री’ – नारी को स्त्री इस लिए कहते हैं कि गर्भ की स्थिति उसके भीतर होती है। रजोधर्म, गर्भधारण व स्तन्य (breast milk) स्त्री की योग्यता है। न्याय बताता है ‘गर्भधारण योगत्वं’ – गर्भधारण की योग्यता उसका लक्षण! मनुष्य होते हुए भी जिसमें स्तन्य योग्यत्व हो वह स्त्री है। इन लक्षणों का उद्देश्य फल या उपस्थिति का कारण है संतान उत्पत्ति (संतति अथवा प्रजा की वृद्धि) अर्थात मातृत्व की प्राप्ति।  नर में केवल पुरुषत्व होता है और नारी में स्त्रीत्व और कन्यात्व दोनों होते हैं। वस्तुतः जब एक पिता विवाह संस्कार के समय पुत्री का हाथ जामाता के हाथ में देता है तो केवल उसके कन्यात्व का दान करता है, उसके स्त्रीत्व का नहीं। पाणिग्रहण संस्कार में उसके कन्यात्व अर्थात भोग्यत्व की योग्यता (उसके द्वारा सर्जन करे जाने की योग्यता) का अमूल्य दान कन्या का पिता वर को देकर उसके संरक्षण व पोषण का दायित्व वर को देता है (वर के परिवार को नहीं)। अपने ही घर में परिपक्व स्त्री होने पर भी वह संतान की छाया से बाहर नहीं आ पाती। जब तक स्त्री स्वयं संतान की भूमिका व भाव में रहेगी तो माँ होने के भाव का दमन रहेगा। उसका पूर्ण उत्तरदायित्व लेने का भाव सीमित रूप में जागृत रहेगा क्योंकि वह स्वयं अपना उत्तरदायित्व अपने माता-पिता पर छोड़े है।  (3) स्त्री रजप्रधान है और पुरुष (नर) सत प्रधान है। रज कामना का,

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“शक्तिक्रीड़ा जगत् सर्वम्”

Home [gtranslate] “शक्तिक्रीड़ा जगत् सर्वम्” Anshu Dubey October 7, 2021 No Comments यह सारा जगत शक्ति की ही क्रीड़ा है।वस्तुत: परमात्मरूपा महाशक्ति ही विविध शक्तियों के रूप में सर्वत्र क्रीड़ा कर रही हैं। जहाँ शक्ति नहीं वहाँ न्यूनता है। शक्तिहीन का कहीं भी समादर नहीं होता। ध्रुव और प्रह्लाद भक्तिशक्ति के कारण पूजित हैं। गोपियाँ प्रेमशक्ति के कारण जगत्पूज्य हुई हैं। हनुमान और भीष्म की ब्रह्मचर्यशक्ति, व्यास और वाल्मीकि की कवित्वशक्ति, भीम और अर्जुन की शौर्यशक्ति, युधिष्ठिर और हरीशचंद्र की सत्यशक्ति, प्रताप और शिवाजी की वीरशक्ति ही सबको श्रद्धा और समादर का पात्र बनाती है। सर्वत्र शक्ति की ही प्रधानता है। समस्त विश्व महाशक्ति का ही विलास है। देवीभागवत में स्वयम भगवती कहती है – ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् – अर्थात समस्त विश्व मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त दूसर को सनातन या अविनाशी तत्व नहीं है। ‘नित्यैव सा जगन्मूर्ति:’ – वह जगदात्मिका भगवती नित्या है। निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती तवेत्याहु: सन्तो धरणिधरराजन्यतनये। तदुन्मेषाज्जातं जगदिदमशेषं प्रलयत: परित्रातुं शंके परिह्रतनिमषास्तव दृश:।।  हे शैलेंद्रतनये! शास्त्र ऐवं संत यह कहते हैं कि तुम्हारे पलक झपकते ही यह संसार प्रलय के गर्भ में लीन हो जाता है और पलक खोलते ही यह फिर से प्रकट हो जाता है।संसार क बनना और बिगड़ना तुम्हारे लिये एक पल का खेल है। तुम्हारे एक बार पलक उठाने से जो यह संसार खड़ा हो गया है वह नष्ट न हो जाये, मानो ऐसी शंका से तुम सदा निर्निमेष दॄष्टि से अपने भक्तों को निहारती रहती हो। चित्त-विलास प्रपंच यह, चिद्-विवर्त चिद्-रूप। ऐसी जाकी दृष्टि है, सो विद्वान अनूप।। ॐ श्रीमूलशक्त्यै नम: ~ साभार: कल्याण – शक्ति अंक । चित्र सौजन्य: बिजय बिसवाल

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