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अट्ठारह पुराण – उनके नाम

Home [gtranslate] अट्ठारह पुराण – उनके नाम Anshu Dubey August 29, 2021 No Comments हमारे अट्ठारह पुराण मुख्य हैं, जो हमारे इतिहास की श्रेणी में आते हैं (रामायण व महाभारत हमारे अन्य दो मुख्य ऐतिहासिक ग्रंथ हैं)। यदि उनके नामों को जानकर ही अपने इतिहास की जानकारी को आरंभ करना चाहें और विशेषकर बच्चों को बताना चाहें तो सबसे बड़ी कठिनाई उनके नाम याद करने या रखने में आती है। अट्ठारह नाम रटने का बड़ा प्रयत्न करते हैं, पर फिर भी कोई न कोई भूल ही जाते हैं। इन्हें सूत्र रूप में याद रखना बड़ा ही सरल है इस अनुष्टुप छंद के माध्यम से: मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्। अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥ इसे गाकर याद करेंगे तो और भी सरल होगा। गीता के (अधिकतर) श्लोकों की गायन शैली में ही इन्हें भी गाया जाता है। मद्वयं अर्थात् दो म (से) १. मत्स्य पुराण २. मार्कण्डेय पुराण भद्वयं अर्थात् दो भ (से) ३. भागवत् पुराण ४. भविष्य पुराण ब्रत्रयं अर्थात् तीन ब्र (से) ५. ब्रह्म पुराण ६. ब्रह्माण्ड पुराण ७. ब्रह्मवैवर्त पुराण वचतुष्टयम् अर्थात् चार व (से) ८. विष्णु पुराण ९. वराह पुराण १०. वामन पुराण ११. वायु पुराण (जो विष्णुपुराण के अनुसार शैव पुराण है) अ से एक १२. अग्नि पुराण ना से एक १३. नारद पुराण प से एक १४. पद्म पुराण लिं से एक १५. लिङ्ग पुराण ग से एक १६. गरुड़ पुराण कू से एक १७. कूर्म पुराण स्क से एक १८. स्कन्द पुराण और अंत में इन पुराणों के सार स्वरूप ये सुभाषित है: अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् || अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना | तो यदि न किया हो तो स्वयं भी याद करें और बच्चों को भी याद कराएँ। प्रतिदिन एक काम ऐसा करें जो आपके बच्चों को, चाहे वो किसी भी आयु के हों, आपके इतिहास व संस्कृति से अवगत कराए और उनके निकट ले जाए। जिस भारत को इतने गर्व से Indic civilisation कहते हैं, उसके इतिहास में स्वतंत्रता संग्राम से इतर और उससे पहले बहुत बहुत कुछ है और सही अर्थ में वही हमारे भविष्य की सफलता की कुंजी है। यात्रा जारी है….

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गाय का संक्षिप्त परिचय

Home [gtranslate] गाय का संक्षिप्त परिचय Anshu Dubey July 4, 2021 No Comments गाय का संक्षिप्त परिचय – पंचगव्य विज्ञान से उदृत भारत में वर्तमान समय में मुख्य रूप से तीन प्रकार की गायें पाई जाती हैं :1. जर्सी गाय 2. दोगली गाय 3. देशी गाय 1. जर्सी गाय – जर्मन के जंगलों में एक माँसाहारी पशु था लेकिन उसके चार स्तन थे, उसकी मादा दूध देती थी। वहाँ के वैज्ञानिकों ने, उस पशु को पकड़ा और उसके अन्दर सूअर एवं भैंसा का क्रास बीज डालकर एक तीसरा नस्ल तैयार किया। उसका नाम जर्सी एनीमल रखा। उस जर्सी एनीमल के अन्दर उसके दूध और माँस दोनों की क्षमता में बेहद वृद्धि हुई । उस नस्ल को भारत में लाया गया, लेकिन उसको भारत में लाने से पहले उसका नामकरण संस्कार जर्सी गाय के रूप में किया गया । क्योंकि यहाँ के लोग गाय के प्रति श्रद्धा रखते हैं और उसी श्रद्धा से गाय के दूध, दही, घी आदि का सेवन करते हैं। जिसके कारण भारत के लोगों ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसीलिए वह जर्सी गाय नहीं बल्कि जर्सी पशु है। जो मानव निर्मित एक विकृत प्राणी है। जिसके मूल में तीन तरह के डी. एन. ए. डिफ्रेंन्स दोष पाया जाता है। 1. हिंसक पशु का- इसीलिए जर्सी गाय का दूध पीने से मानव के अन्दर भी हिंसा का भाव उत्पन्न होने लगता है। 2. सूअर का- इसीलिए जर्सी गाय का दूध पीने से मानव के अन्दर नास्तिक बुद्धि का विकास होने लगता है। 3. भैंसे का- इसीलिए जर्सी गाय का दूध पीने से मानव के अन्दर अति कामना, वासना और भोग की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती है। इसके साथ ब्रेन टयमर. लकवा. फालिस. बाँझपन.नपुंसकता जैसे- भयानक रोग होते हैं। इस प्रकार जर्सी गाय का दूध सफेद पानी और धीमा जहर होता है। इस पशु अन्दर जो डी.एन.ए. है, वह मानवीय गुण धर्म के विपरीत है इसलिए जर्सी गाय का पालन करना उसके दूध, दही, आदि का सेवन करना हानिकारक है। दोगली गाय – वर्तमान समय में गौ सेवा के क्षेत्र में अर्थ को महत्व देने बाले लोगों ने, नस्ल सुधार के नाम पर जर्सी साँड़ और देशी गाय को आपस में क्रास करवाकर एक अलग से डी. एन. ए. डिफ्रेंन्स वर्णशंकर दोष यक्त दोगली गाय को उत्पन्न किया है। जिस वर्णशंकर दोष को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कुल को नाश करने वाला महा पाप कहा है। क्योंकि जैसे पाप से गाय के कुल का समूल नाश हो जाता है। इस प्रकार यह वर्णशंकर पाप को जो मनुष्य अपने लिए अपनाता है, वह सिर्फ अपने कुल का नाश करता है। लेकिन जो व्यक्ति गाय के साथ अपनाता है, वह अपने कुल के साथ समस्त प्रकृति और मानव जाति का नाश कर देता है। क्योंकि दोगली गाय के वंश वृद्धि के साथ उसके द्रव्य पदार्थ दूध, दही घी. गोबर और गौमत्र का सभी लोग उपयोग करते हैं। उन सभी को वह वर्णशंकर दोष प्रभावित करता है। वर्णशंकर दोष के अन्तर्गत धर्म शास्त्र में यहाँ तक कहा गया है स्वदेशी गाय में भी पाई जाने वाली अलग-अलग नस्ल को एक दूसरे के साथ आपस में सम्पर्क नहीं करबाना चाहिए। क्योंकि उससे उसके वास्तविक कुल का नाश हो जाता है । इस प्रकार नस्ल सुधार के नाम पर गाय के नस्ल को अधिक बिगाढ़ दिया गया। जिस दोगली गाय का दूध पीने से मनुष्य के अन्दर नास्तिक बुद्धि का विकास होता है। इसीलिए – गाय का नस्ल बिगाढ़ना पाप है। जो पाप आगे चलकर सामूहिक रूप से सभी मानव जाति को प्रभावित करता है। 3. स्वदेशी गाय और उसकी महिमा – भारत में कुल छः ऋतु है, जो विश्व के अन्य किसी देश में नहीं पाया जाता है, जिस ऋतु प्रभाव के कारण भारत की भूमि आध्यात्मिक भूमि कहलाती है। यहाँ की मिट्टी और फलों में विशेष रूप से सुगन्ध होता है। अन्न और फलों में विशेष स्वाद होता है। आयुर्वेद में विशेष रूप से प्राण होता है। जिस छः ऋतु प्रभाव के कारण यहाँ के लोग धर्म परायण, प्रकृति परायण और अहिंसावादी होते हैं। जिस छः ऋतु प्रभाव के कारण यहाँ की गाय संसार की अन्य गायों से भिन्न होती है तथा उसके अन्दर विशेष दिव्य गुण होता है। उसके द्रव्य पदार्थ में सात्विक गुण और सात्विक सुगन्ध होता है। उसके शरीर की आकृति और बनावट संसार के अन्य गायों से भिन्न होती है। उसके कंधे पर ऊपर की ओर उठा हुआ गोल थुम्मा यानि डिल्ला होता है। जिसके अन्दर सूर्यचक्र और सूर्यकेतु नाड़ी विद्यमान होता है। उसके गले में नीचे की ओर लटका हुआ चमड़ा गल कम्बल होता है, जो सभी नक्षत्रों का रिसीवर कहलाता है। सामने दोनों पाँव के बीच में नीचे की और लटका हुआ गोल थुम्मा होता है, जो चन्द्र नाड़ी का उद्गम स्थल कहलाता है। यह सभी दिव्य अंग और दिव्य गण छ: ऋत प्रभाव के कारण यहाँ की गायों में पाई जाती है। इसीलिए उसे भारतीय संस्कृति में माता का स्थान प्राप्त है। जिसके शरीर में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास है। जिसके दूध, दही, घी, गोबर, गौमत्र को परम पवित्र और देवताओं का दिव्य प्रसाद माना जाता है। आयुर्वेद शास्त्र में उसके द्रव्य पदार्थ को दिव्य औषधि और अमृत कहा गया है। गौमाता अपने इन्हीं दिव्य गुणों के कारण परम पूज्यनीय है। इनके अन्दर प्राणबल और सतोगुण की शक्ति पूर्णतः विद्यमान होता है। जिसके कारण गौमाता के अन्दर दया, करूणा, ममता, वात्सल्य, प्रेम, स्नेह और त्याग वृत्ति जैसे सद्गुण विद्यमान होते हैं। इसीलिए भारतीय गौ वंश को दिव्य प्राणी कहा गया है। इनका द्रव्य पदार्थ समस्त दुर्गुणों को मिटाने वाला होता है। इसीलिए स्वदेशी गाय का संरक्षण व संवर्धन भारत में विशेष रूप से किया जाता है। भारत में स्वदेशी गाय की अनेक नस्ल पाई जाती हैं। इसीलिए जो गाय के नस्ल जहाँ पर पाई जाती हैं वह सभी गाय वहीं स्थान विशेष के लिए ज्यादा उपयुक्त होती हैं। भारत में कुल छः ऋतु हैं, जिस ऋतु प्रभाव के कारण यहाँ के भोगौलिक वातावरण का प्रभाव भी स्थान विशेष के अनुसार अलग-अलग होता है। इसीलिए परमात्मा ने उस अलग-अलग भौगोलिक वातावरण के अनुसार गाय के भी अनेक नस्ल बनाया है। जो स्थान विशेष के अनुसार वहाँ की मिट्टी-पानी, हवा, वनस्पति, धरती और

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मुराहू पण्डित का गंगा स्नान

Home [gtranslate] मुराहू पण्डित का गंगा स्नान Anshu Dubey June 20, 2021 No Comments अभी कुछ दिन पहले @GYANDUTT ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने मुराहू पण्डित से एक लघु भेंट का ट्वीट किया। रोचक लगा! पाण्डेय जी से निवेदन किया कि उनकी जीवन व दिनचर्या की कुछ और जानकारी बटोरें। आदरणीय पाण्डेय जी ने ऐसा शीघ्र किया। उन्हें बहुत धन्यवाद! उन्होंने podcast और blog दोनों में उनसे दीर्घ जीवन के सूत्रों पर हुई चर्चा को सबसे साझा किया। https://gyandutt.com/2021/06/18/murahu-pandit-and-longevity/  ये कौतूहल क्यों जागा? मैं प्रायः आयुर्वेद भारतीय शास्त्रीय जीवन, ज्ञान व दृष्टिकोण के बारे में ट्वीट करती हूँ। वो सब, जो अपने परिवर्तित जीवन मैं गुरु सानिध्य में ज्ञान पाकर, अनुभव से और प्रत्यक्ष प्रमाण से जी रही हूँ और साझा करती हूँ, उस पर, शायद उसे एक अच्छी ट्वीट/quote आदि से अधिक कुछ न समझ कर, पढ़ने/सुनने वाले विश्वास नहीं करते। और करते भी हों तो उसमें प्रस्तुत शास्त्रीय ज्ञान को अपने जीवन में उतारते हों, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। It is just good reading material ! आत्ममुग्धता के इस सामाजिक काल में, कोई निरपेक्ष होकर या तटस्थ होकर, गुरु प्राप्त व मनन किया ज्ञान, शिक्षा या जानकारी साझा करे तो उस पर विश्वास कम होता है। मुझे तो अहंकारी, opinionated, higher mortal आदि की उपाधियाँ भी मिलती रहती हैं।  तो मुराहू उपाध्याय जी के उस संक्षित उल्लेख से भी मुझे समझ आ गया कि ये पथ्यापथ्य व आहार-विहार के सरल सिद्धातों का पालन करने वाले शुद्ध भारतीय हैं जिन तक आधुनिकता के साधनों और जीवन के नाम पर प्रचलित आलस्य, दूषण और वैचारिक भ्रष्टाचार नहीं पहुँचा है। मुराहू जी की जीवनचर्या से प्रतिचित्रण (map) कर यहाँ ये बताने का प्रयास है कि जो कुछ हम भारतीय ग्रंथों-शास्त्रों में पढ़ते हैं वह पूर्णतया प्रायोगिक है, समकालीन-अद्यतन है और उसे अपने जीवन में उतारकर कैसे व्यक्ति सुखी और स्वस्थ रह सकता है, वृद्धावस्था में भी! आधुनिक अध्ययन की तरह कुछ भी केवल जानकारी के लिए शास्त्रादि में नहीं बताया जाता है, उसे जीवन में उतारकर सीधे सीधे उससे स्वास्थ्य और आयु लाभ लिया जाता है। तो प्रस्तुत है मुराहू उपाध्याय का शास्त्रीय चित्रण: अपनी वाणी से ही पुराहू जी बताते हैं की वह – 23 साल से रिटायर्ड हैं, सात विषय से M.A.हैं, राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित हैं, DM की बैठक में बैठते हैं और आयुर्वेदाचार्य, योगाचार्य हैं। उनके आधुनिक शिक्षा प्रणाली से प्राप्त प्रमाणपत्र तो आपको मिलेंगे, परंतु उनके आयुर्वेदाचार्य होने के नहीं। क्योंकि, उन्होंने आयुष मंत्रालय के बहुत ही उथले BAMS से नहीं अपितु किसी योग्य वैद्य अथवा गुरु से यह शिक्षा ली है, ऐसा उनके व्यक्तित्व, ज्ञान और शब्दों से प्रतीत होता है। दुःखं समग्रं आयातं अविज्ञाने द्वयाश्रये। सुखं समग्रं विज्ञाने विमले च प्रतिष्ठितम्।। (भाव प्रकाश) इसका अर्थ है – सारे दुख का कारण अवैज्ञानिकता का आश्रय है और सभी सुखों का कारण है विमल विज्ञान में प्रतिष्ठा।  मुराहू पंडित का विमल विज्ञान में अपने विश्वास को प्रतिष्ठित करने का कितना सुखी परिणाम है। उनको, जो 87 वर्ष की आयु में भी 50 वालों को पानी पिला दें। वैसे भावमिश्र लिखित भाव प्रकाश का ये श्लोक आयुर्वेद का सिद्धांत कहा जाता है। और कितने की जन, विशेषकर अलोपथी डॉक्टर, आयुर्वेद को घरेलू नुस्खे और नीम-हकीमी, आधुनिक समय में प्रयोग की अनुपस्थिति आदि कह कर अपने ही अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय देते हैं।  मुराहू जी अपने दीर्घ जीवन का सूत्र बताते हैं – भोजन कम करना, परिश्रम, व्यायाम, नियमित दिनचर्या और तनावमुक्त जीवन जीना। प्रतिदिन प्रातः साईकल से 7 किलोमीटर दूर गंगा स्नान को जाते हैं और सात किलोमीटर लौटते हैं।  यहाँ मुराहू पण्डित आयुर्वेद के कई मुख्य/विशेष सूत्रों का क्या ही अच्छा अनुसरण करते दिखते हैं: ब्रह्मुहूर्त जागरण: ब्राह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेत्स्वस्थो रक्षार्थमायुष:। – ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला स्वस्थ होता है, उसकी आयु की रक्षा होती है अर्थात वह दीर्घायु होता है। गंगा स्नान: गंगाजल की महत्ता और विशेषता से अधिकतर जन परिचित हैं। एक सुभाषित इस प्रकार कहता हैं: असारे खलु संसारे सारमेतत् चतुष्टयम्। काश्यां वासः सतांसंगः गंगास्नानं शिवार्चनम्।। – असार से इस पूरे संसार का सार इन चारों में हैं – काशी में वास, सज्जन लोगों का संग, गंगा स्नान और शिव की अर्चना! और स्नान के योग्य स्थान के लिए मनुस्मृति बताती है:  नदीषु देवस्थानेषु तडागेषु सर: सु च। स्नानं समाचरेनित्यं गर्त प्रस्रवणेषु च। नदी, देवता का स्थान (तीर्थ), तालाब, सर: सु अर्थात नदी के समान जल प्रवाह, झरना, इनमें नित्य स्नान करना चाहिए।  मुराहू जी नित्य स्नान करते हैं, गंगाजल से करते हैं और नदी पर जा कर करते हैं। सभी दिनचर्या के बताए गए आदर्शों का पालन कितनी सरलता से करते हैं और नियमित हैं।  दिनचर्या ज्ञानदत्त पाण्डेय जी उन्हें अपने घर में अरहर के डंठल के बण्डल से झाड़ू लगाते देख उनकी ऊर्जा और जवानी (वस्तुतः उत्तम स्वास्थ्य) के कायल हो गए थे। अट्ठासी की उम्र में फिट – ऐसा स्वास्थ्य कौन नहीं चाहेगा? अब देखिए: समः दोष समाग्निच समधातु मलक्रिय:  प्रसन्नात्मेंद्रियमना: स्वस्थ इत्यामिधियते।। (सुश्रुत स. 15|41)  दोषों की समता (वात, पित्त और कफ,शरीर में ये तीन दोष होते हैं), समस्त तेरह अग्नियों का समान रहना (पञ्चमहाभूताग्नि + रस रक्तादि सप्त धातु अग्नि + जठराग्नि) तथा रस रक्तादि धातुओं और विण्मूत्रस्वेदादि मलों का पोषण, धारण और निर्गमन आदि क्रियाओं का समान होना एवं आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता जिसमें विद्यमान हों, उसे स्वस्थ कहा जाता है।  मुराहू पण्डित गंगास्नान से लौटते समय गंगाजल का जरीकेन साईकल पर लटकाए लौटते हैं। रास्ते में जो भी मिलता है उसे गंगाजल का प्रसाद देते चलते हैं। रास्ते में कोई रोग ग्रस्त या अस्वस्थ व्यक्ति मिलता है तो उसे प्राकृतिक, सुलभ औषधि भी देते/बताते चलते हैं (podcast में उन्होंने रास्ते में एक महिला को अल्सर की औषधि देने की बात बताई) और कुछ दिन बीते हाल-चाल भी पूछते हैं कि व्यक्ति ठीक हुआ के नहीं! नित्यं हिताहार विहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेश्वसक्तः। दाता समः सत्यपर: क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।    यही शास्त्रीय या आयुर्वेद वर्णित स्वस्थता मुराहू पण्डित में विद्यमान है। जो दीर्घ जीवन के सूत्र मुराहू जी ने बताए, वो आयुर्वेद के ग्रंथों में वस्तुतः स्वस्थ रहने की मैनुअल के रूप में वर्णित हैं! दिनचर्यां निशाचर्यां ऋतुचर्यां यथोदितम्। आचारान् पुरुषः स्वस्थ: सदा तिष्ठति नान्यथा।। (भाव प्र. 5|13) स्वस्थ व्यक्ति दिनचर्या रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या का उसी प्रकार पालन करें

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विश्वगुरु राष्ट्र के नागरिकों का स्तर

Home [gtranslate] विश्वगुरु राष्ट्र के नागरिकों का स्तर Anshu Dubey February 19, 2021 No Comments बौद्धिक नागरिक किसी भी देश अथवा राज्य की सर्वाधिक मूल्यवान पूँजी होते हैं। केवल एक बौद्धिक वर्ग (think tank) नहीं, अपितु सभी गणलोग जिन्हें हम ‘साधारण जन’ कहते हैं, उनकी बुद्धि का स्तर, विवेक और संतोष जब ऐसा हो कि वह जीवन दर्शन को जीते हुए निर्भीकता से राजा(सर्वोच्च पदाधिकारी) की त्रुटियों को भी इंगित कर सकें – ऐसी स्थिति, ऐसा वातावरण दर्शाता है कि एक राष्ट्र कितना सम्पन्न है,उन्नत है, विश्व गुरु है।  ये विचार उस समय आया जब गुरुजी संस्कृत संभाषण का एक सत्र ले रहे थे। उस सत्र में उन्होंने राजा भोज की कथाओं से क्रिया का एक दृष्टांत प्रस्तुत किया। प्रायः हम राजा भोज की कथाएँ आनंद के लिए व उनके नैतिक संदेशों के कारण सुनते-सुनाते हैं। उनके राज्य की प्रजा कितनी विद्वान थी अथवा प्रजा के भाषाई बौद्धिक स्तर के बारे में कम ही चर्चा होती है।  राजा भोज ने देखा एक क्षीण सा व्यक्ति अपनी सर पर बड़ा सा और भारी गट्ठर रखे मंथर गति से जा रहा है। राजा ने संस्कृत में पूछा – “भारं न बाधति?” (भार बाधा नहीं दे रहा/नहीं लग रहा?) उस व्यक्ति ने संस्कृत में उत्तर दिया – “ भारं न बाधते राजन् यथा ‘बाधति’ बाधते।” (राजन, भार इतनी बाधा नहीं दे रहा जितना आपका ‘बाधते’ को ‘बाधति’कहना बाधा दे रहा है।) इस प्रश्न में ‘बाध’ एक आत्मनेपदी* धातु है अतः उसका वर्तमान काल में प्रयोग करेंगे तो ‘बाधते’ कहा जाएगा। ‘बाधति’ कहने का अर्थ हुआ कि वक्ता उसे परस्मैपदी धातु समझ रहा है अतः वर्तमान काल में ‘अति’ प्रत्यय के साथ क्रियापद बना प्रयोग कर रहा है।  *आत्मनेपदी वो धातु होती है जिसकी क्रिया का फल अपने को मिलता है और परस्मैपदी वो धातु होती है जिसकी क्रिया का फल दूसरे को मिलता है। यहाँ इस प्रश्न में उस भार की बाधा स्वयं उस व्यक्ति को मिल रही है अतः यहाँ आत्मनेपदी धातु के क्रियापद का प्रयोग होगा।  राजा की इसी संस्कृत व्याकरण की त्रुटि को उस साधारण नागरिक ने इंगित किया। और साथ ही साथ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करते हुए राजा को बड़ी सरलता से उत्तर दिया। अपने भार ढोने के काम से उसे कोई उलाहना नहीं थी, राजा के पूछने पर कुछ सहायता मिलने के अवसर का लाभ भी उसने कोई स्वार्थ व आलस्य जनित विचार कर नहीं लिया। प्रजा के संतोषजनक आदर्श जीवन-यापन का कितना सुंदर उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हुआ।  व्यक्ति ने उत्तर दिया – “रात्रौ जानु दिवा भानु कृशानु सन्ध्ययोर्भयो:। एवं शीतं मया नीतम् जानु भानु कृशानुभि:।।”  (रात में घुटने, दिन में सूर्य और दोनों संध्या समय अग्नि। ऐसे घुटनों, सूर्य और अग्नि से मेरी सर्दी बीतती है।) यानी रात में घुटनों को छाती तक समेट कर गुमड़ी मार कर सो जाता हूँ, दिन में सूर्य की गर्मी से रक्षा होती है और दोनों संध्या काल अर्थात सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद, जिस समय सो नहीं रहे होते और सूर्य भी नहीं होता, तब आग/अलाव जलाकर सर्दी के दिन व्यतीत करता हूँ। ऐसा उस फटे कपड़े पहने व्यक्ति ने राजा को बताया। एक प्रश्न के उत्तर में तुरंत एक अनुष्टुप छंद की रचना करी (अलंकार आप पहचानिये) और कितने संतोषजनक दृष्टिकोण का परिचय देते हुए बताया की कोई कष्ट नहीं है, और ये उपाय करके उसकी शीत ऋतु व्यतीत हो जाती है। वह व्यक्ति इतना सुंदर उत्तर देकर अपने संतोष की स्थिति का व कष्ट में न होने की मनःस्थिति का सूचन राजा को देता है। राजा को समक्ष देख, उसके सहायता करने के संकेत को समझकर भी उस निर्धन व्यक्ति ने राजा से कुछ नहीं माँगा। राजा ने अवश्य यह सुनने के उपरांत उसकी साधन/दृव्य से सहायता करी।  कोई ‘sense of entitlement’ नहीं कि मैं आपकी प्रजा हूँ और मेरी रक्षा व लालन-पालन आपका कर्तव्य/धर्म है- ऐसा कोई उलाहना राजा को नहीं दिया। कोई अपेक्षा नहीं करी क्योंकि अपने जीवन-यापन का दायित्व हर व्यक्ति पर स्वयं होता है। राजा, राज्य व समाज की परिकल्पना/ रचना अवश्य सभी व्यक्तियों के जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से की गयी है। परंतु वैदिक व वैज्ञानिक सिद्धांतों से स्थापित करी गयी संस्कृति में पला-बढ़ा व्यक्ति इतना सक्षम, स्वावलंबी व संतोषी (content) होता है कि अपने जीवन की परिस्थितियों में व्यग्र व उद्विग्न नहीं होता  और अपनी सहायता के लिए औरों से अपेक्षा नहीं रखता, राजा से भी नहीं। बौद्धिक स्तर पर परिपक्व होता है। और बड़ी बड़ी साहित्य की डिग्री न होने पर भी भाषा व व्याकरण (वो भी संस्कृत!) पर उसका पांडित्य अच्छा होता है।  एक निर्धन व्यक्ति की,एक अति साधारण काम करने वाले व्यक्ति की इस परिस्थिति की आज के समय के निर्धन या ‘शोषित’ व्यक्तियों की परिस्थिति से तुलना करिये। निर्धन व्यक्ति (below poverty line) की सहायता न करने पर सरकार को निकम्मा बताया जाता है। उस व्यक्ति/व्यक्तियों से अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी निर्धनता को दूर करने की अपेक्षा नहीं रखी जाती। एक तरह से उन्हें दया का पात्र बनाकर पहले तो उनके आत्मसम्मान को नीचे धकेलने में हम अपना योगदान देते हैं और दूसरा अकर्मठता को बढ़ावा देते हैं।  जीविका उपार्जन और विद्या ग्रहण में योग्यता को ताक पर रखते हुए जातिगत व सम्प्रदायगत आरक्षण के अपना अधिकार मानते हैं। वर्ण व जाति प्रथा को discriminatory बताते हैं पर जीविका उपार्जन के विभिन्न कार्यों की जातियाँ बना रखी हैं। ये काम छोटा है, नीचा है -ये काम ऊँचा है, खेती करे तो बेचारा, मज़दूरी करे तो बेचारा और ऑफिस में बैठ कर काम करे तो अच्छा। धन के आधार पर परिवहन में, brandvalue के अस्तित्व के आधार पर class की रचना तो सामाजिक कार्यसमता व योग्यतासमता के लिए बनाई गयी जाति व्यवस्था से कहीं भिन्न है और वास्तव में अति तुच्छ है। यह वाला आधुनिक caste-system हम सब के अंतर्मन और मस्तिष्क में चिन्हित हो चुका है और हम सब वैसे ही व्यवहार करते हैं।  राष्ट्र को विश्वगुरु बनाने के लिए स्वावलंबी, योग्य व बुद्धि से परिपक्व नागरिक सबके आवश्यक घटक (component) है।  राजा भोज की अति साधारण प्रजा के यह दृष्टांत, उस समय के राष्ट्र के उन्नत स्तर, व्यक्ति की मनः स्थिति व भाषा की संपन्नता को दर्शाते हैं। उस भारत को

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अहिल्या की कथा और उसके सत्य के रूप!

Home [gtranslate] अहिल्या की कथा और उसके सत्य के रूप! Anshu Dubey December 22, 2020 No Comments प्राचीन अहल्या महर्षि गौतम की पत्नी थीं. इनके पिता का नाम वृद्धाश्व था। अहिल्या अत्यंत रूपवती थी। देवराज इंद्र ने गौतम का रूप धार का इनका धर्म नष्ट करना चाहा। गौतम के शाप से इंद्रा नपुंसक हो गए थे, परंतु देवताओं ने बड़े परिश्रम से मेष का पुरुषत्व ले कर इंद्रा को प्रदान किया, तभी से इंद्र का एक नाम मेशवृषण हुआ। गौतम ने अहिल्या को भी श्राप दिया। गौतम के श्राप से अहिल्या निराहार केवल वायु के आधार पर रहने लगी, सर्वदा वह पश्चात्ताप करती रहती थीं, उसका शरीर भस्म से पूर्ण था और वह समस्त प्राणियों से अदृश्य हो गयी।  “वातभक्षा निराहारा, तपंती भस्मशायिनी। अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि।।” (रामायण) पुनः अहल्या के प्रार्थना करने पर गौतम प्रसन्न होकर बोले, “हमारा शाप व्यर्थ नहीं हो सकता, किन्तु विष्णुरूपी रामचंद्र जब इस आश्रम में आवेंगे, तब तुम उनके चरण वंदन कर, मुक्त हो सकोगी।” विश्वामित्र के साथ जब रामचंद्र आये, तब उन लोगों ने भी अहल्या को तपस्विनी के रूप में देखा था। राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने अहल्या को प्रणाम किया था और अहल्या ने भी अपने पति गौतम का वचन स्मरण कर के रामचंद्रजी का चरण वंदन किया। “राघवौ तु तदा तस्या: पादौ जागृहतुर्मुदा। स्मरन्ती गौतमवच: प्रतिजग्राह सा हि ” (रामायण) पद्मपुराण में लिखा है की गौतम के श्राप से अहल्या पत्थर हो गयी थीं और इंद्रा के शरीर में अनंत भाग के चिह्न हो गए थे। कुमारिल भट्ट के मत से अहल्या और इंद्रा विषयक उपाख्यान केवल रूपक हैं। अहल्या शब्द का अर्थ रात्रि हैं और इंद्र का अर्थ है सूर्य। दिन में सूर्योदय होने से रात्रि नष्ट होती है इसी घटना को ले कर उक्त उपाख्यान कल्पित हुआ है। आज के समय में अधिकतर लोगों को जिस रूप में ये कथा या घटना ज्ञात है, वह अहल्या के पत्थर (एक वास्तविक पत्थर की शिला) होने की है। मेरी अपनी अनुभूति यह कहती है कि इसी तरह की क्षति पुराणों ने हमारे इतिहास को अनजाने में पहुँचाई है। अलंकारों व अतिशियोक्ति भरी भाषा का प्रयोग करके! पुराणों की रचना जनमानस तक ज्ञान को सुलभ रूप से पहुँचाने के लिए करी गयी थी, उसका अक्षरशः अर्थ बहुत हानि करता है। आज जब information overload के समय में पुराण की कथा को केवल पढ़ा जाता है, उसके अर्थ, उसकी सत्यता को पूर्ण रूप से आत्मसात करने का अवकाश किसी के पास नहीं है, तो इतिहास का ऐसा ही हश्र होता है। इसका दोष क्या हम रोमिला थापर को दे सकते हैं ? मेरी अनुभूति और समझ से अहल्या की कथा का पहला रूप या पक्ष : जैसा की रामायण के श्लोकों से भी स्पस्ट है, अहल्या जड़ (पत्थर) नहीं हुयी थीं, वह केवल वायु के आधार पर रहने लगी थीं (पत्थर या खनिज की भाँति)। उनका शरीर भस्म से परिपूर्ण था और वह सदा पश्चाताप करती रहती थीं, तपस्विनी हो गयी थीं अर्थात संसार से पूर्णतया विमुख साधनावत् जीवन जीने लगी थीं। ये उस परिस्थिति में जब वह गौतम मुनि के गुरुकुल की गुरुमाँ थीं और उनके अचार्यपत्नी के रूप में कई दायित्व थे, जिन्हें प्रायः उन्होंने त्याग दिया था अतः वह उपस्थित सभी प्राणियों से अदृश्य हो गयी थीं। अथवा तप/योग की शक्ति से उन्होंने या गौतम मुनि ने उनके रूप का आभामंडल ऐसा कर दिया कि उनकी उपस्थिति की अनुभूति किसी को नहीं होती थी। राम-लक्ष्मण के आने पर उन्हें सुध आयी (क्योंकि वह ईश्वर का अवतार थे), गौतम मुनि आदि के साथ विमर्श हुआ और अहल्या पूर्ववत् हो गयीं। मेरी अनुभूति और समझ से अहल्या की कथा का दूसरा पक्ष : गौतम मुनि भारतीय न्याय शास्त्र के सर्जक हैं। वह चिंतन में इतने अधिक मग्न रहते थे कि चलते चलते गिर पड़ते थे। उनके शिष्यों की प्रार्थना पर महादेव शिव ने गौतम ऋषि के पैर में एक नेत्र दे दिया, जिसे अपने कार्य के लिए मन (इन्द्रिय संचालक) की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए उनका एक नाम अक्षपाद भी है। अब इतने मग्न रहने वाले ऋषि ने जब इंद्र को अपनी पत्नी के साथ देखा तो क्या ये संभव नहीं की उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया की इंद्र मुनि रूप धर जल-पान के लिए बैठे थे अथवा उनकी पत्नी पर उनका ही रूप धरकर चेष्टाएँ कर रहे थे। न्याय शास्त्र के द्वारा सृष्टि के सूक्ष्मतम तत्वों को परिभाषित व विस्तृत करने वाले मुनि अपनी पत्नी को एक सती और पवित्र नारी के रूप में नहीं जानते होंगे? अपने महान दार्शनिक ऋषि पति से ऐसे वचन सुनकर अहल्या जड़वत हो गयी, जबकि वह ऐसा कोई आचरण कर भी नहीं रहीं थीं। अतः उन्हें अपने ऋषि पति के शब्दों (श्राप, कठोर वचन) से इतना आघात पहुँचा कि वह फिर शिला समान हो गयीं। कुछ खाती पीती नहीं थीं। अंतःपुर में ही वास करती थीं इसलिए प्राणियों के लिए अदृश्य हो गयीं थीं। गुरुमाँ के अपने सभी धर्म और कर्म व दायित्व त्याग दिए क्योंकि वह इतनी आहत हो गयीं के एकांतवास में चली गयीं। गुरुकुल में शिष्यों की शिक्षा जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े इसलिए गौतम मुनि ने हिमालय में आश्रम स्थानांतरित कर लिया। यह कहकर की अब तो ईश्वर ही आकर अहल्या का उद्धार करेंगे। अंतर्मुखी अहल्या की तपस्या व साधना जारी रही। अंततः जब राम-लक्ष्मण वहाँ आये तो अहल्या ने उनका सावधानीपूर्वक (?) सत्कार किया, ज्ञान का आदान-प्रदान हुआ जिससे सब संतुष्ट हुये। जिसके पश्चात अहल्या अपने पूर्ववत जीवन में आयीं, गौतम मुनि ने भी इसी आश्रम में पुनः गुरुकुल स्थापित कर आगे का जीवन व्यतीत किया।  स्मरण रहे, अहल्या के स्थान पर आने से कुछ समय पहले ही विश्वामित्र के अयोध्या आगमन पर श्रीराम के साथ वसिष्ठ व विश्वामित्र जी का जीवन विज्ञान व दर्शन का इतना विकसित प्रश्नोत्तर हुआ था की योग-वशिष्ठ की रचना हुई, जिसे महारामायण कहा जाता है। राम की जीवन दर्शन की दृष्टि अति सूक्ष्म थी। महाभारत शांतिपर्व, अध्याय 265 में भी गौतम के पत्नी के मर्यादा-अतिक्रमण का विचार कर उस समय से तपस्या में अवस्थित होने का विवरण है। उसके पश्चात न्याय शास्त्र की रचना हुई (मेधातिथि = गौतम) “ मेधातिथिमहाप्राज्ञो गोतमस्तपसि स्थितः। विमृश्य तेन कालेन पत्नया: सस्थाव्यतिक्रमम्।।”   इस प्रसंग के

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Is this the right path in the chaos?

Home [gtranslate] Is this the right path in the chaos? Anshu Dubey October 3, 2020 No Comments Can we really sort a chaos by only being another voice adding to that chaos? Thinking that their voice is the sane one, the dharmiks also come and share their thoughts, knowledge and suggestions to rest of the world in the limited confinement of a social media platform. They (most likely) do that on more than one platform, each time in the confinement of that social media platform, talking in the format (micro-blog, audio-visual, Q-ans and so on) of that platform. All this for explaining and bringing back people to something which is a complex system called sanatana, if I may call it so for the sake of discussion (see, I just did it by calling sanatana a system so that I can say what I have to say using the limited vocabulary and space I have got). Why chaos? Because they are so many voices with each one saying ‘listen to me’. A knowledgeable and well-intentioned dharmik writes a book in an ‘acceptable’ language about certain aspect of santana, sharing deep insights, reasons, explainable tarkas and suggestions on how to start following it; but at the same time there are 100 other books written by modern hindus with the repackaged truth, they use the rules of the game and have better shelf availability of their book. This proportion of dharmik to modern hindus is what, 1:10 maybe 1:100? Dharmik’s book doesn’t reach the desired shelf, the desired audience. How is the audience supposed to know that the dharmik’s book is the genuine and better one? We blame the audience for not using their ‘viveka’ to choose, we blame them for not being the seeker and search for themselves but why do we forget that so many dharmic warriors have to come up because this collective ‘viveka’ is very weak and the spirit of being a seeker has been killed in a planned and structured manner in last few hundred years? So does the job start or end by simply calling them a failed collective? Does it solve the problem? No. They rather get further pushed away, as being defensive is in the DNA for atleast 2 to 3 generations now. While doing manan I struggle with the question that can we really explain or move people to a complex system called santana or vedic sanskruti which is fluid, interdisciplinary and doesn’t use the tool-set which is popular or understood by people today? This complex system which has been made surprisingly simple by our sages, great rushi-munis to understand and follow by knitting various practices, rules of life, sanskaras and biggest & oldest ever documented repository! Using this repository and by being the pracharak shishya of the guru-shishya parampara, a big number of dharmiks are trying to bring the knowledge to people in an ‘acceptable format’ or ‘bite sized’ information (not gyan). Is that really the right step-by-step approach to ultimately bring all into the purview of understanding santana thoughts and practices completely and later start following them? I also observe a lot of well-intentioned Hindu’s getting pulled into the same tricks of social media which they initially took up only to reach out to more people. The initial intension was noble but gradually they get taken over by the thought of talking to people in the language they understand, where the core problem is that the language (set of life practices, attitudes, approach) which is understood by all itself is very shallow, promotes alasya, wants everything to be served to a person instead of motivating the person to be a seeker and initiate the journey of being wiser than the previous day, every day. Another example is where a lot of these dharmiks write smaller bite sized pieces to explain various aspects of sanatana in the modern understandable language and all the references they get to cite are non-Indian westerners? So, by giving reference of a recent researcher ( 50 -100 years is recent in this context) from the western world we try to ‘justify’ that that our age old knowledge and practices are scientific and relevant by putting them in a tool-set which is modern but very limited and certainly very different from the original tool-set where these practices were originated. Why are we unable to provide the vedic and shastriya-tarkik scientific explanation and have to switch to modern science process to explain it. The indic scientific explanation also goes to the last molecule of detail and in a simple way but every such explanation disappears in the chaos and the explanation using the modern scientific/technical language rather starts sounding like a rant. I have my doubts if this is the right path. Can’t articulate all of them well here as my vaakpatuta isn’t good enough to bring all of them forth. That is the reason I am sharing this open question to all! I have seen a dharmiks sharing their disappointment at times on twitter, some are sad, some are angry, some are anguished, some seem to be giving up and but still trying their best to keep on the path as they realise it is a difficult one. But I have my doubts if this is the right path to reach the goal post we want to reach. Rajiv Malhotra ji has been working on the project of creating ‘Intellectual Kshatriyas’ for long. He gets very annoyed at a lot of emotional hindus not been able to present their case well and defend sanatana and dharma. But some IKs that would have been created by now, are they visible? Or have they been lost to this chaos as well? If yes, then is this one of the right paths? The fundamental question is, if I am willing to change the game itself because it is on shallow and incorrect grounds, doesn’t follow the right rules and has blind folded the participants/participants don’t want to play with blinds unfolded,

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Music : How did it all begin?

Home [gtranslate] Music : How did it all begin? Anshu Dubey September 21, 2020 No Comments How did the Indian music begin? As with everything, it was a gift from Ishwara. Here is what the ancient Natyashastra says: Once, a long time ago (told at the onset of Tretayuga), it so happened that people got addicted to base sentiments, were ruled by lust and greed, experienced less happiness and more sorrow, behaved in angry and jealous ways, with each other and not only gods but demons, evil spirits, yakshas and such like others swarmed over the earth. Seeing this plight, Indra and other gods approached Brahma and requested him to give the people a mean of entertainment (Kridaniyaka), but one which would not only be seen but heard and this should turn out to be a diversion (so that people gave up their bad ways). Till then, sangeet had been something only the devas enjoyed. A suitable human had to be found who was capable of receiving this gift-a truly great man. A gandharva or man of superior spiritual ability was required to convey this knowledge of the gods to the world of man. So, Brahma instructed Bharata in the Nāṭyaveda and gave the responsibility to him and his hundred sons to propagate and practice the same. The eternal gandharva sage Narada is to be thanked for the classical music we have today. Since our music has a background in dharma, the teaching methods are very similar to dharmic-vedic education.  It is the tradition of guru-shishya parampara, that has been part of Indian culture or humility – the willingness to learn. He must also have the quality of sadhana or dedication. Only through constant sadhana can a shishya become a true master of music. It is the best principle to teach our children, even today. In the beginning: the music of Vedas So much for the legends. How about formal beginnings! As in so many other fields, so also in music, India has one of the most ancient traditions in the world. At a time when Western civilisation was barbaric and crude, thousands of years before the rise of the Greeks and the Romans we already had a complex and sophisticated music tradition. As with much else, our music began in the age of the vedas. The vedic period saw the beginning of what is today known as sama music or the Saman the musical way of rendering Sama Veda. Sama music was very simple, starting with one note, then two, then three, up to seven. In each round of chanting, one note was added. The notes started high and, and went down gradually. Music of India is a composite art comprising Gita (singing), Vadya (instruments) and Nrtya (limb movements) – Gita, Vadya, Nrtyam trayam Natyam Tauratrikam ca tat Samgitam || (Hemachandra) Our vedic ancestors used four kinds of instruments: Tata : Stringed instruments, like the Veena Avanaddha : Hollow things to beat like drums Ghana : Solid things to beat, like gongs Sushira : Things to blow on, like flutes. Narad muni works gave the gatra veena, which has clear instruments on how to use fingers, hands and head with different notes and words. What were the words? Mostly from the Rigveda. Everything was not religious in nature. Sama music was for rituals, but early music scholars also mention narashamshi gathas – songs of the common man. SO we’ve been a democratic nation for a pretty long time too – even when it comes to music ! जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥ Nāṭyaśāstra  He took the lyrics (पाठ्य) from the Ṛgveda, the music (गीत) from the Sāmaveda, the language of gestures (अभिनय) from the Yajurveda and the aesthetic experience (रस) from Atharvaveda The journey continues  

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टिकटॉक, इंद्रजीत और अक्षपाद

Home [gtranslate] टिकटॉक, इंद्रजीत और अक्षपाद Anshu Dubey June 30, 2020 No Comments आज भारत में कई अन्य एप्प के साथ साथ टिकटॉक भी बंद हो गया है (वर्तमान में तो हो गया है, भविष्य के बारे में ज्ञात नहीं)। भयंकर हलचल है अंतर्जाल पर! जीवन, जीवन का सार, जीविका, जिजीविषा – न जाने क्या क्या छिन्न-भिन्न हो गया है कितने भारतीय नागरिकों का । विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर विविध प्रकार की प्रक्रियाएँ हैं। कहीं लोग दुःखी हैं कि नेत्रों को शांति देने का साधन छिन गया। कहीं लोग चिंतामुक्त हैं कि जो दृष्टि-पंक इतनों (विशेषकर युवाओं) को घेरे था, वहाँ निर्मल जल आने का मार्ग बना । कुछ संस्थाएँ भारतीयता के नाम पर उसका विकल्प, दृष्टि-पंक के एक दूसरे कुंड के रूप में क्रय-विक्रय करने के लिए प्रस्तुत हैं । आज चक्षुरिन्द्रीय परोक्ष रूप से सबकी चर्चा का केंद्र हैं क्योंकि इसके आकर्षण के कारण आज भारत में टिकटॉक के लगभग 12 करोड़ उपभोक्ता हैं। चक्षुरिन्द्रीय को कुछ भारतीय पंक परोसने के इस कोलाहल में चलिए , कुछ इसके दार्शनिक ज्ञान अर्जन का भी प्रयास करते हैं। भारतीय ज्ञान व दर्शन के अनुसार मनुष्य की पाँच कर्मेन्द्रियाँ व पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। कर्मेन्द्रियाँ जो हमें कार्य करने में सहायता करती हैं। व ज्ञानेन्द्रियाँ जो हमें किसी पदार्थ ,तत्व के लक्षण अथवा गुण का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं। ये पाँच हैं – घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, त्वगेन्द्रिय व श्रवणेन्द्रिय । ये इन्द्रियाँ क्रमशः हमारी नासिका, जिह्वा, नेत्रों, त्वचा व कर्णों में स्थित होती हैं। इनके लक्षण या अर्थ हैं – गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द। चक्षुरिन्द्रिय हमें देखने की क्षमता प्रदान करती हैं। सभी ज्ञानेंद्रियों से सुसज्जित हम इन्हें अपनी सामान्य क्षमता का भाग मानकर इसे ‘taken for granted’ लेकर चलते हैं। इनमें चक्षुरिन्द्रिय कदाचित सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती हैं। इस इन्द्रिय के निष्क्रिय होने से हमें सबसे अधिक बाधा होती है। टिकटॉक की सामग्री सेवन के लिए भी इसी इन्द्रिय का सर्वाधिक प्रयोग होता है। न्याय शास्त्र कहता है : चक्षुर्मात्रग्राह्यो गुणो रुपम् ।  चक्षुर्मात्रग्राह्यत्वे सति गुणत्वं रुपत्वम्। जिस गुण का ग्रहण मात्र चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ही किया जाता है, उसे रूप कहते हैं। अर्थात् जो केवल रूप मात्र का ग्रहण करे, रूप से इतर जो विशेष गुण ग्रहण न करे, उसे चक्षु इन्द्रिय कहते हैं। यही टिकटॉक के उपभोक्ता करते हैं! इस इन्द्रिय का अच्छा अधिष्ठान कर लिया है। इस इन्द्रिय के एक अन्य पक्ष का मेरा अनुभव इससे भिन्न है । जीवन में कई बार दृष्टि बाधित बच्चों/ वयस्कों के साथ काम करने का, उनके साथ समय बिताने का उनकी किसी प्रकार की सहायता करने का अवसर मिला है। उस समय जब भारत में ऑडियो बुक्स और पॉडकास्ट प्रचलित नहीं थे (टिकटॉक तो बहुत दूर की बात है), हम कार्यालय के मित्र मिलकर एक दृष्टि-बाधित बालिकाओं के विद्यालय के लिए उनकी पाठ्य पुस्तकें रेकॉर्ड किया करते थे (आप वॉकमैन जानते हों कदाचित)। उस विद्यालय की संस्थापक व प्रबंधक ने (जो स्वयं दृष्टि-बाधित हैं) अपने जीवन की आई बाधाओं से सीखकर ऐसी कई अन्य बालिकाओं के जीवन को आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता से परिपूर्ण करने का बीड़ा उठाया था। आज भी उनकी संस्था इस क्षेत्र में एक प्रखर व अग्रणी संस्था के रूप में सम्मानित है। एक अन्य संस्था ऐसी वयस्क होते बालक-बालिकाओं को जीविका के लिए कुछ विद्या, कला व शिक्षा देने के क्षेत्र में कार्यरत है। उनमें से एक बड़ी संख्या संगणक (computer) प्रक्षिक्षण प्राप्त करती है और अनेक तेजस्वी प्रोग्रामर समाज को दे चुकी है। इन सभी स्थानों में एक भी बालक ऐसा नहीं मिला जो चक्षुरिन्द्रिय के अभाव में दुःखी हो अथवा उस कारण अपने आप को कोई भी कार्य करने में असमर्थ समझते हों। कितना भयंकर विरोधाभास है कि टिकटॉक पर प्रतिबंध से कितने युवा चक्षुरिन्द्रिय के मनोरंजन वंचित होने से दुखी हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ट्विटर पर एक वीडियो देखा था एक दृष्टि-बाधित, नेत्रहीन युवक का । उसका नाम इंद्रजीत है, बड़ी प्रसन्नता से मग्न हो कर वो शिव तांडव स्तोत्र गा रहा है (credit: Youtube channel bihar mail)। ये वीडियो देखकर मुझे इंद्रजीत शब्द का उसके सही स्वरूप में अर्थ धारण हुआ। इंद्रजीत (संस्कृत – इंद्रजित्)  अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। वो जो इन्द्रियों पर निर्भर न रहे। ये नवयुवक उचित अर्थ में इंद्रजीत है। इसकी अपनी चक्षुरिंद्रिय पर किंचित भी निर्भरता नहीं है। इसने वास्तविक अर्थ में अपनी इंद्रिय को जीत लिया है। एक अन्य परिपेक्ष्य हैं गौतम मुनि का।  न्याय सूत्र या न्यायशास्त्र के प्रवर्तक प्रणेता, जिनका औपाधिक नाम अक्षपाद भी है। अक्षपाद अर्थात् वह जिसमें गति व दृष्टि दोनों हों। इसकी कथा है कि गौतम मुनि का मन निरंतर तत्व चिंतन में लगा रहता था । नेत्र को मन का सहयोग नहीं मिल पाता था, अतः वे चलते-चलते प्रायः गिर जाया करते थे और आहत हो जाते थे। इस लिए महेश्वर ने कृपा कर उनके पैर में एक ऐसे नये नेत्र की रचना कर दी जिसे मन के सहयोग की अपेक्षा ना थी । इस नये नेत्र के मिलने से वे अक्षपाद  नाम से प्रसिद्ध हुए। और इससे उनके दोनों कार्यों – चलने फिरने तथा तत्वचिंतन करने की बाधाएँ दूर हो गयीं । भारतीय प्रमेयप्रधान न्याय दर्शन को किस पद पर उन्होंने आसीन किया है, ये मुझे कहने की आवश्यकता भी नहीं है। महेश्वर तो स्वयं त्रिनेत्रधारि हैं, यद्यपि उनका तीसरा नेत्र ज्ञानचक्षु है। उसकी पात्रता की अपेक्षा आज के टिकटॉक योद्धाओं से करना अपनी ही मानहानि करना है। इन दोनों दृष्टांतों के बाद टिकटॉक पर पूर्णतया आश्रित इन कोटि कोटि युवाओं को देखकर रिक्तता का, खेद का अनुभव होता है। इनसे क्या अपेक्षा कर सकते हैं – इंद्रजीत अथवा अक्षपाद बनने या होने की ? ये कोटि कोटि उपभोक्ता जो अपने दृष्टिसुख (व किंचित श्रवणसुख) के लिए अपना बहुत कुछ विस्मरण कर २ घड़ी के विडीओ के लिए अपनी मनोस्थिति को रुग्ण व आहत कर रहे हैं और उन्हें आभास भी नहीं है। अब टिकटॉक गया तो कोई भारतीय ऐप उन्हें इस अंतहीन अतृप्त कामना की मरीचिका में ले जाने को तत्पर है। मेरे चक्षुरिंद्रिय अनेकों इंद्रजीत व अक्षपाद देखने को लालायित है, आशान्वित है! न जातु काम: कामनामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते।।   मनुष्य की कामनाएँ भोग

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