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टिकटॉक, इंद्रजीत और अक्षपाद

आज भारत में कई अन्य एप्प के साथ साथ टिकटॉक भी बंद हो गया है (वर्तमान में तो हो गया है, भविष्य के बारे में ज्ञात नहीं)। भयंकर हलचल है अंतर्जाल पर! जीवन, जीवन का सार, जीविका, जिजीविषा – न जाने क्या क्या छिन्न-भिन्न हो गया है कितने भारतीय नागरिकों का । विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर विविध प्रकार की प्रक्रियाएँ हैं। कहीं लोग दुःखी हैं कि नेत्रों को शांति देने का साधन छिन गया। कहीं लोग चिंतामुक्त हैं कि जो दृष्टि-पंक इतनों (विशेषकर युवाओं) को घेरे था, वहाँ निर्मल जल आने का मार्ग बना । कुछ संस्थाएँ भारतीयता के नाम पर उसका विकल्प, दृष्टि-पंक के एक दूसरे कुंड के रूप में क्रय-विक्रय करने के लिए प्रस्तुत हैं ।

आज चक्षुरिन्द्रीय परोक्ष रूप से सबकी चर्चा का केंद्र हैं क्योंकि इसके आकर्षण के कारण आज भारत में टिकटॉक के लगभग 12 करोड़ उपभोक्ता हैं।

चक्षुरिन्द्रीय को कुछ भारतीय पंक परोसने के इस कोलाहल में चलिए , कुछ इसके दार्शनिक ज्ञान अर्जन का भी प्रयास करते हैं। भारतीय ज्ञान व दर्शन के अनुसार मनुष्य की पाँच कर्मेन्द्रियाँ व पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। कर्मेन्द्रियाँ जो हमें कार्य करने में सहायता करती हैं। व ज्ञानेन्द्रियाँ जो हमें किसी पदार्थ ,तत्व के लक्षण अथवा गुण का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं। ये पाँच हैं – घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, त्वगेन्द्रिय व श्रवणेन्द्रिय । ये इन्द्रियाँ क्रमशः हमारी नासिका, जिह्वा, नेत्रों, त्वचा व कर्णों में स्थित होती हैं। इनके लक्षण या अर्थ हैं – गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द।

चक्षुरिन्द्रिय हमें देखने की क्षमता प्रदान करती हैं। सभी ज्ञानेंद्रियों से सुसज्जित हम इन्हें अपनी सामान्य क्षमता का भाग मानकर इसे ‘taken for granted’ लेकर चलते हैं। इनमें चक्षुरिन्द्रिय कदाचित सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती हैं। इस इन्द्रिय के निष्क्रिय होने से हमें सबसे अधिक बाधा होती है। टिकटॉक की सामग्री सेवन के लिए भी इसी इन्द्रिय का सर्वाधिक प्रयोग होता है।

न्याय शास्त्र कहता है :

चक्षुर्मात्रग्राह्यो गुणो रुपम् ।

 चक्षुर्मात्रग्राह्यत्वे सति गुणत्वं रुपत्वम्।

जिस गुण का ग्रहण मात्र चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ही किया जाता है, उसे रूप कहते हैं। अर्थात् जो केवल रूप मात्र का ग्रहण करे, रूप से इतर जो विशेष गुण ग्रहण न करे, उसे चक्षु इन्द्रिय कहते हैं।

यही टिकटॉक के उपभोक्ता करते हैं! इस इन्द्रिय का अच्छा अधिष्ठान कर लिया है।

इस इन्द्रिय के एक अन्य पक्ष का मेरा अनुभव इससे भिन्न है । जीवन में कई बार दृष्टि बाधित बच्चों/ वयस्कों के साथ काम करने का, उनके साथ समय बिताने का उनकी किसी प्रकार की सहायता करने का अवसर मिला है। उस समय जब भारत में ऑडियो बुक्स और पॉडकास्ट प्रचलित नहीं थे (टिकटॉक तो बहुत दूर की बात है), हम कार्यालय के मित्र मिलकर एक दृष्टि-बाधित बालिकाओं के विद्यालय के लिए उनकी पाठ्य पुस्तकें रेकॉर्ड किया करते थे (आप वॉकमैन जानते हों कदाचित)। उस विद्यालय की संस्थापक व प्रबंधक ने (जो स्वयं दृष्टि-बाधित हैं) अपने जीवन की आई बाधाओं से सीखकर ऐसी कई अन्य बालिकाओं के जीवन को आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता से परिपूर्ण करने का बीड़ा उठाया था। आज भी उनकी संस्था इस क्षेत्र में एक प्रखर व अग्रणी संस्था के रूप में सम्मानित है। एक अन्य संस्था ऐसी वयस्क होते बालक-बालिकाओं को जीविका के लिए कुछ विद्या, कला व शिक्षा देने के क्षेत्र में कार्यरत है। उनमें से एक बड़ी संख्या संगणक (computer) प्रक्षिक्षण प्राप्त करती है और अनेक तेजस्वी प्रोग्रामर समाज को दे चुकी है। इन सभी स्थानों में एक भी बालक ऐसा नहीं मिला जो चक्षुरिन्द्रिय के अभाव में दुःखी हो अथवा उस कारण अपने आप को कोई भी कार्य करने में असमर्थ समझते हों।

कितना भयंकर विरोधाभास है कि टिकटॉक पर प्रतिबंध से कितने युवा चक्षुरिन्द्रिय के मनोरंजन वंचित होने से दुखी हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व ट्विटर पर एक वीडियो देखा था एक दृष्टि-बाधित, नेत्रहीन युवक का । उसका नाम इंद्रजीत है, बड़ी प्रसन्नता से मग्न हो कर वो शिव तांडव स्तोत्र गा रहा है (credit: Youtube channel bihar mail)।

ये वीडियो देखकर मुझे इंद्रजीत शब्द का उसके सही स्वरूप में अर्थ धारण हुआ। इंद्रजीत (संस्कृत – इंद्रजित्)  अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। वो जो इन्द्रियों पर निर्भर न रहे। ये नवयुवक उचित अर्थ में इंद्रजीत है। इसकी अपनी चक्षुरिंद्रिय पर किंचित भी निर्भरता नहीं है। इसने वास्तविक अर्थ में अपनी इंद्रिय को जीत लिया है।

एक अन्य परिपेक्ष्य हैं गौतम मुनि का।  न्याय सूत्र या न्यायशास्त्र के प्रवर्तक प्रणेता, जिनका औपाधिक नाम अक्षपाद भी है। अक्षपाद अर्थात् वह जिसमें गति व दृष्टि दोनों हों। इसकी कथा है कि गौतम मुनि का मन निरंतर तत्व चिंतन में लगा रहता था । नेत्र को मन का सहयोग नहीं मिल पाता था, अतः वे चलते-चलते प्रायः गिर जाया करते थे और आहत हो जाते थे। इस लिए महेश्वर ने कृपा कर उनके पैर में एक ऐसे नये नेत्र की रचना कर दी जिसे मन के सहयोग की अपेक्षा ना थी । इस नये नेत्र के मिलने से वे अक्षपाद  नाम से प्रसिद्ध हुए। और इससे उनके दोनों कार्यों – चलने फिरने तथा तत्वचिंतन करने की बाधाएँ दूर हो गयीं । भारतीय प्रमेयप्रधान न्याय दर्शन को किस पद पर उन्होंने आसीन किया है, ये मुझे कहने की आवश्यकता भी नहीं है।

महेश्वर तो स्वयं त्रिनेत्रधारि हैं, यद्यपि उनका तीसरा नेत्र ज्ञानचक्षु है। उसकी पात्रता की अपेक्षा आज के टिकटॉक योद्धाओं से करना अपनी ही मानहानि करना है।

इन दोनों दृष्टांतों के बाद टिकटॉक पर पूर्णतया आश्रित इन कोटि कोटि युवाओं को देखकर रिक्तता का, खेद का अनुभव होता है। इनसे क्या अपेक्षा कर सकते हैं – इंद्रजीत अथवा अक्षपाद बनने या होने की ? ये कोटि कोटि उपभोक्ता जो अपने दृष्टिसुख (व किंचित श्रवणसुख) के लिए अपना बहुत कुछ विस्मरण कर २ घड़ी के विडीओ के लिए अपनी मनोस्थिति को रुग्ण व आहत कर रहे हैं और उन्हें आभास भी नहीं है।

अब टिकटॉक गया तो कोई भारतीय ऐप उन्हें इस अंतहीन अतृप्त कामना की मरीचिका में ले जाने को तत्पर है।

मेरे चक्षुरिंद्रिय अनेकों इंद्रजीत व अक्षपाद देखने को लालायित है, आशान्वित है!

न जातु काम: कामनामुपभोगेन शाम्यति

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते।।

मनुस्मृति २।६४

 

मनुष्य की कामनाएँ भोग करने से तृप्त नहीं होतीं, किंतु जैसे अग्नि की ज्वाला घृत डालने से बढ़ती है, इसी प्रकार कामनाएँ भोग करने से और अधिक बढ़ जाती हैं।

 

यात्रा जारी है……

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