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“शक्तिक्रीड़ा जगत् सर्वम्”

यह सारा जगत शक्ति की ही क्रीड़ा है।वस्तुत: परमात्मरूपा महाशक्ति ही विविध शक्तियों के रूप में सर्वत्र क्रीड़ा कर रही हैं। जहाँ शक्ति नहीं वहाँ न्यूनता है। शक्तिहीन का कहीं भी समादर नहीं होता। ध्रुव और प्रह्लाद भक्तिशक्ति के कारण पूजित हैं। गोपियाँ प्रेमशक्ति के कारण जगत्पूज्य हुई हैं। हनुमान और भीष्म की ब्रह्मचर्यशक्ति, व्यास और वाल्मीकि की कवित्वशक्ति, भीम और अर्जुन की शौर्यशक्ति, युधिष्ठिर और हरीशचंद्र की सत्यशक्ति, प्रताप और शिवाजी की वीरशक्ति ही सबको श्रद्धा और समादर का पात्र बनाती है। सर्वत्र शक्ति की ही प्रधानता है। समस्त विश्व महाशक्ति का ही विलास है। देवीभागवत में स्वयम भगवती कहती है – ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् – अर्थात समस्त विश्व मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त दूसर को सनातन या अविनाशी तत्व नहीं है।

‘नित्यैव सा जगन्मूर्ति:’ – वह जगदात्मिका भगवती नित्या है।

निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती तवेत्याहु: सन्तो धरणिधरराजन्यतनये।

तदुन्मेषाज्जातं जगदिदमशेषं प्रलयत: परित्रातुं शंके परिह्रतनिमषास्तव दृश:।।

 हे शैलेंद्रतनये! शास्त्र ऐवं संत यह कहते हैं कि तुम्हारे पलक झपकते ही यह संसार प्रलय के गर्भ में लीन हो जाता है और पलक खोलते ही यह फिर से प्रकट हो जाता है।संसार क बनना और बिगड़ना तुम्हारे लिये एक पल का खेल है। तुम्हारे एक बार पलक उठाने से जो यह संसार खड़ा हो गया है वह नष्ट न हो जाये, मानो ऐसी शंका से तुम सदा निर्निमेष दॄष्टि से अपने भक्तों को निहारती रहती हो।

चित्त-विलास प्रपंच यह, चिद्-विवर्त चिद्-रूप।

ऐसी जाकी दृष्टि है, सो विद्वान अनूप।।

ॐ श्रीमूलशक्त्यै नम:

~ साभार: कल्याण – शक्ति अंक । चित्र सौजन्य: बिजय बिसवाल

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