आरम्भ

‘कहाँ से आरंभ करें’ की अनिश्चितता किसी के लिए भी अनजानी नहीं है। कुछ विवेक आने पर से लेकर उस समय तक, जब तक किसी निश्चित लक्ष्य को ध्यान में रखकर एक यात्रा आरम्भ होती है, ये ‘कहाँ से शुरू करें’ एक ऐसा प्रश्न होता है जो सर्वदा मुँह बाए खड़ा रहता है। मेरे लिए तो सदैव रहा है! तो चलिए, आज यहीं से आरम्भ करते हैं। 

किशोरावस्था एक ऐसा समय होता है जब एक के पीछे एक नई जानकारियों, नए व्यक्तियों, दृष्टिकोण, और संसार से आपका साक्षात्कार हो रहा होता है। सब ओर से आपको बताया जाता है कि आप बिन पेंदी के लोटे हैं, कभी इधर तो कभी उधर लुढ़कते रहते हैं, किसी एक बिंदु पे स्थिर नहीं होते, इत्यदि। वास्तविकता के उस समय से लेकर तब तक, जब कुछ ऐसा होता है जो आपके विचारों को या किसी एक विचार को पूरी तरह मोड़ देता है और पता नहीं कहाँ से एक दृढ़ निश्चय को जन्म दे देता है, हम इसी ‘कहाँ से शुरू करें’ के प्रश्न  का उत्तर खोजते रहते हैं। कभी कभी तो (ब्रह्चर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम व वानप्रस्थ आश्रम के उपरांत) सन्यास आश्रम की आयु आ जाने पर भी उत्तर नहीं मिलता।

मेरे लिए भी अपनी सार्थकता, अपनी उपयोगिता को ढूँढने की यात्रा अनवरत चल रही थी। इस ‘यात्रा’ शब्द के अर्थ को समझने के सबके अलग दृष्टिकोण होते हैं। यात्राएं आज के समय में अधिकतर विभिन्न रमणीक स्थानों पर जाने को या प्रेरणाप्रद स्थानों पर जाने को और उनसे प्रेरित हुए विचारों को प्रकट करना समझा जाता है,अधिकतर व्यक्ति वही साझा करते हैं। वीडियो लॉग और फ़ोटो लॉग के इस युग में हर किसी की यात्रा एक विशेषज्ञ या ज्ञाता बनने के पश्चात ही आरम्भ होती है।

मेरा यात्रा को देखने का दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। मैं उन सभी स्थलों की यात्राओं की कथा सुनाते कथाकार की यात्रा को देखती हूँ, कि उसने कहाँ से आरम्भ किया और अब वो कहाँ है। यात्रा का वो भाग जिसके बारे में वो बात नहीं कर रहा, उस भाग को देखती हूँ। और आगे चलकर ऐसे ही लोगों से जुड़ पाती हूँ, जिनकी यात्राएँ ‘ट्रेवल लॉग’ भरने से भिन्न हैं।

तो ‘कहाँ से आरम्भ करें’ के चिर प्रश्न पर वापस आती हूँ। ‘ब्रह्म वर्चस’ की यात्रा का आरम्भ भी इसी प्रश्न के पहली बार मिले एक सांकेतिक उत्तर से हुआ। 30 वर्ष की आयु दशक के अंतिम पड़ावों में ये आभास हुआ कि ‘ये कहाँ से आरम्भ करें’ का प्रश्न तो बहुत समय से मन में था, पर क्या आरम्भ करना था वो उत्तर भी कब से अंतर्मन के एक कोने में बैठा वातायन से बाहर देखा करता था, मैंने ही उसकी ओर ध्यान नहीं दिया कभी।

अपने सूचना तंत्र (IT) के जीविकोपार्जन कार्यकाल में मैं कुछ वर्ष पहले नेदरलैंड्स में नियुक्त थी। आफिस का काम तो अधिक तनावपूर्ण नहीं था – वहां तो बस कार्यालय की राजनीति, परोक्ष जातिवाद (racism) से जूझना, दो देशों में काम कर रहे एक ही कंपनी के, एक दूसरे को हरदम पीछे धकेलने को तैयार लोगों से काम निकालना, कुछ लाख डॉलर्स का नया काम लाना और अपने देश में बनी एक विशेषज्ञ इकाई को वहाँ अच्छे प्रभाव के साथ स्थापित करना, जैसे साधारण लक्ष्य ही थे। किसी ऐसे नए प्रयास के लिए, जिसके लिए मुझे भेजा गया था – एक ही व्यक्ति के आने की अनुमति थी तो मैं एकल ही अपनी इकाई के ध्वजारोहण के लिए आ पहुँची थी।

इससे पहले मेरी विदेश यात्राएँ अधिक से अधिक 1-2 मास की होती थी परंतु इस बार दीर्घ कालीन कार्य अवधि थी। (जिसे long term onsite कहा जाता है और जो लगभग प्रत्येक आई टी में काम करने वाले के सपनों में से एक बड़ा सपना होता है)। अकेले होने के कारण सभी सहकर्मियों, मित्रों आदि से दूरभाष से निरंतर संपर्क बनाये रखती थी। लेकिन अपने परिवेश, परिवार, मित्रों और मिट्टी से इतना दूर रहना कुछ अधिक नहीं भाता था।

नया स्थान, नया देश, नई संस्कृति, नए लोग, सभी कुछ रोचक था।  नेदरलैंड्स के लोग प्रायः शांतचित्त, कर्मठ व स्पष्टवक्ता होते हैं, सभी गुण जो मुझे बहुत अनुकूल लगते हैं। डच लोगों ने समुद्र पाट के अपने लिए भूमि उत्पन्न करी है। उस भूमि पे बहुत ही सुंदर फूल भी उगाते हैं। प्रसन्नता सूचकांक (happiness index) में भी ये देश कदाचित तीसरे या चौथे स्थान पर है, तो और क्या चाहिए होता है जीवन में !

परंतु मेरे मन में एक अभाव रहा करता था। एक और वस्तु, जिसका वहाँ अत्याधिक अभाव है वो है सूर्यप्रकाश! भारत में इतनी धूप होती है की हम उससे बचने के उपाय ढूँढते हैं और नेदरलैंड्स में सूर्यदेव को ही ढूँढने में बड़े धीरज की आवश्यकता होती है।  बादल, हवाएँ और वर्षा अधिकतर रहती हैं। वहाँ ग्रीष्म ऋतु का अर्थ होता है अधिकतम 25 डिग्री तापमान और हफ्ते में एक-दो दिन पूरे समय सूर्यदेव का दर्शन देना। उतने में ही वहाँ के लोग बावले हो जाया करते हैं।

पर उतने से मेरी बात नहीं बनी। विटामिन डी की कमी हो गयी और ‘टेनिस एल्बो’ नामक संभ्रांत लक्षण की स्थिति हो गयी। जीवन में पहली बार खेले बिना ही खिलाड़ियों वाली समस्या हो गयी थी। कुछ दिन तो हाथ और भुजा में क्रेप बैंडेज, टेप और विशिष्ट बैंड पहन के मन ही मन इतरा लिए परंतु धीरे धीरे स्थिति अधिक कष्टदायक हो गयी। कुछ काम नहीं हो पाता था, विशेषकर भोजन पकाना। ऐसे में मेरे एक सहकर्मी मित्र की पत्नी ने अपनी भारतीय आत्मीयता का परिचय देते हुए मुझे हर शनिवार-रविवार अपने यहाँ भोजन करने का निमंत्रण दे दिया ।

तो ऐसी ही एक रविवार की दोपहर अपनी भुभुक्षा शांति के लिए अपने शहर से उनके शहर चली। वैसे तो नेदरलैंड्स एक देश है पर क्षेत्रफल में हरियाणा राज्य से भी छोटा है, तो उनकी उत्तम व निपुण रेल व्यवस्था के चलते देश के एक कोने से दूसरे कोने तक 5 घण्टे में पहुँचा जा सकता है। इसी मापदंड के चलते डेढ़ घंटे की उस यात्रा पे मेरे शहर हिल्वरसम (Hilversum) से मेरी मित्र के शहर एमस्टेल्वीन(Amstelveen) चली। अपने स्टेशन पे ट्रेन में चढते ही मुझे मेरे एक अन्य सहकर्मी मित्र का सामान्य रविवासरीय वार्ता के लिए फ़ोन आया। वो उन दिनों एक प्रोजेक्ट पर शिकागो में नियुक्त थे। सूचनाओं के आदान-प्रदान से पता चला कि मेरे हाथ के कारण मैं, भारत में अपने बहुत सरलता से मिल जाने वाले स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन का अभाव अनुभव कर रही हूँ और मेरे मित्र अपने कुछ महीनों पहले हुई दूसरी संतान के लालन-पालन को किसी बड़े की छत्रछाया में न होने के कारण भारत का अभाव अनुभव कर रहे हैं। उसके उपरांत जीवन की, हम-कहाँ-से-चले-कहाँ-आ-गए वाली, बचपन के खेलों की, मिट्टी की सुगंध की बातें चल निकलीं। और बात से बात निकलकर पहुँची की कुछ ऐसा क्या है जो हम कब से करना चाहते हैं पर इस विदेशी परिवेश की खटनी के कारण कर नहीं पा रहें हैं और जीवन है जो द्रुतगामी लौहपथ पर दौड़ा चला जा रहा है।

 मुझे उस समय आभास हुआ की खो दी गयी या अप्रचलित कर दी गई भारतीय वैदिक विद्या को न पढ़ा होना मुझे कहीं बहुत गहरे, सबसे अधिक खलता है। हम भारत के अभाव को तो अनुभव करते हैं परंतु उस भारत की सांस्कृतिक संपत्ति, ज्ञान की धरोहर के अभाव का आभास तक नहीं होता।

अपने शहर में स्टेशन तक चलते हुए, फिर इंटरसिटी में बैठ कर द्रुतगति से बड़े शहर तक यात्रा करते हुए, फिर शहर से छोटे शहर को जोड़ने वाली मेट्रो पर सवार होकर और अंत में मेट्रो स्टेशन से अपने मित्र के घर में भोजन की थाली तक पहुँचते पहुँचते ये तय हो चुका था की इस दिशा में तुरंत कार्य आरम्भ कर दिया जाएगा। हम दोनों में से पहले मैंने भारत वापस जाने पर काम करने  का निश्चय किया और शोध (groundwork) का दायित्व संभाला और मेरे मित्र ने प्रोजेक्ट प्लानिंग का दायित्व संभाला। ये निश्चित हुआ की छोटे बच्चों से पढ़ाना आरम्भ करेंगे, जिससे कम से कम आने वाली पीढ़ी (जो विद्यारम्भ करेगी) वो उचित सिद्धांत, गुण व ज्ञान के साथ अपनी शिक्षा की नींव रखे।

बस, चेतन मन ने सूचना देकर और अवचेतन मन ने सूचना दिए बिना चिंतन आरम्भ कर दिया था। एक निश्चित दिशा का पथ सामने था और लक्ष्य का अनुमान होने लगा था। ‘ कहाँ से आरम्भ करें’ का उत्तर मिल गया था।

2015 के उस दिन से लेकर अब तक यह यात्रा जारी है व कदाचित आजीवन जारी रहेगी। एक परिवर्तन जो मेरे भीतर हुआ है (दिखता नहीं है) कि जो भी कोई अनुभव, सीख, सूचना, घटना, नए व्यक्तियों से परिचय इस दिन के बाद हुआ उसे मैं अपने इस लक्ष्य से जोड़ती हूँ। ये परिवर्तन केवल एक दिन में नहीं हुआ है। क्रमशः हुआ है। आज जो मेरा जीवन है, जीवन शैली है, दृष्टिकोण है वो उस भूतकाल से सर्वथा भिन्न है। इतना अधिक भिन्न है की मुझे अधिक समय से जानने वाले तो उसका विश्वास तक नहीं कर पाते हैं।

ये परिवर्तन, इतनी निरंतरता, सहजता और सरलता से आये की मैं स्वयं भी किसी पुराने समय की घटना का स्मरण करती हूँ या अपने विचारों का स्मरण करती हूँ या कोई चित्र भी देखती हूँ, तो कभी कभी स्वयं भी विश्वास नहीं कर पाती कि इस पथ में कितना आगे बढ़ती चली आ गयी हूँ।

जिस परिवेश और शिक्षा व समाज व्यवस्था में आप और हम पले बढ़े हैं, वो परिवेश -विशेषकर नगरों में- हमें अपनी वैदिक व सांस्कृतिक जड़ों से बहुत दूर ले गया है और निरंतर ले जा रहा है। इस परिवेश में रह रहे अधिकतर भारतीयों का एक वर्ग है जिसे अपने भारतीय ज्ञान की वैज्ञानिकता का, उसके गुरुत्व का, उसकी दृढ़ता का, उसकी प्रासंगिकता का आभास तक नहीं है। ये वर्ग आधुनिक उपभोक्तावाद में, अपनी इन्द्रियों के अधीन, भोगों में इतना मग्न है कि उसका जागृत होना असंभव से लगता है। एक अन्य वर्ग ऐसा है जिसे आभास तो है, परंतु विश्वास नहीं है कि ये उतना महान है जितना बताया जाता है (मुख्यतः आधुनिक मध्यम वर्ग)। एक वर्ग ऐसा है जो इन सब से अपरचित तो नहीं किन्तु उसके विचारों का इतना पाश्चात्यिकरण और धर्मनिर्पेक्षिकरण हो चुका है कि वो भारतीय ज्ञान को केवल हिन्दू समाज का ज्ञान समझकर, उसे सामाजिक मंचों अथवा चाय की बैठकों से आगे चर्चा के योग्य नहीं समझता। या यूं कहिए उसे प्रासंगिक नहीं मानता। और इसी कारण उस ज्ञान का अर्जन तो करता है किन्तु उसका प्रयोग अपने जीवन में, अपनी जीविका उपार्जन में नहीं करता। अपनी संतानों को वह ज्ञान धरोहर, परंपरा या विशुद्ध ज्ञान के रूप में हस्तांतरित नहीं करता क्योंकि उसे इसकी उपयोगिता नहीं लगती। एक वर्ग ऐसा है जो केवल इसलिए विरोध करता है या अपनाता नहीं है क्योंकि ऐसा करना इस बात का सूचक होगा कि जो वह अभी जानता है या अभी कर रहा है, वह अपूर्ण है, त्रुटिपूर्ण है या दिशाहीन है। वर्तमान में उपलब्ध सभी कुछ को वह इतना अच्छा बता चुका है कि उसके कुछ अधिक अच्छा होने की संभावना क्षीण है, विशेषकर इतना प्राचीन ज्ञान तो कदापि नहीं! यह और बात है की कुछ मुट्ठीभर लोग संसार के एक कोने में बैठकर, साढ़े सात अरब में से 1000 व्यक्तियों पर कोई प्रयोग करके एक नया ‘ज्ञान का कौर’ (knwoledge bite) या पद्धति या निष्कर्ष घोषित कर देंगे और बड़े प्रकाशकों द्वारा उसे वितरित करवा देंगे तो इस वर्ग को वह ‘नई खोज’ पूर्णतया विश्वसनीय लगेगी।

और अंततः एक ऐसा वर्ग है जो निर्मलता से ये स्वीकार करता है कि वैदिक ज्ञान व न्यायोचित विवेक एक ऐसी अमूल्य पूंजी है, जो भारत में जन्म लेने पर हमें ईश्वर कृपा से व अपने ही प्रारब्ध के कर्मों के पुण्य से सहजता से उपलब्ध है। हमें इसका उपयोग करना है और इसके यथोचित अर्जन व प्रयोग से अपना, अपने बंधु-बांधवों का, अपने समाज का व अपने राष्ट्र का हित व विकास करना है।

इन सभी वर्गों से, आप सब से, मैं इस ब्लॉग के माध्यम से अपनी इस यात्रा के अंतर्गत होने वाले अनुभवों और साधना पथ पर निरंतर मिलते ज्ञान को साझा करने का प्रयास करूंगी। कदाचित आप मेरे विचारों से या मेरे दृष्टिकोण से सहमत न भी हों। मेरे विचार से सहमत न होने का अर्थ होगा कि एक भिन्न विचार उपलब्ध है। वह विचार जो विवेक से उपजता है। और विवेक का उत्तरोत्तर विकास, उसकी तेजस्विता जो अंततः अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त हो, वही तो ब्रह्म वर्चस है!

इस साधना में आपके सहयोग की अपेक्षा रहेगी।

मैंने इस यात्रा को आरम्भ करने के पश्चात जो प्रथम शिक्षा ली वो यह कि ‘हित’ और ‘सुख’ में से सुख को चुनना आलस्य है और हित को चुनना विवेक!

उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः।   [ऋग्वेद 10।101।1]

‘एक विचार और एक प्रकार के ज्ञान से युक्त मित्रजनों, उठो! जागो!’

..यात्रा जारी है….

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